नई दिल्ली। हज़रत निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन से क़रीब 17 किमी दूर प्रेमनगर की बसाहट है। प्रेमनगर में ही टी-पाइंट के पास एक बस्ती है। इस बस्ती को लोहार बस्ती कहा जाता है। बस्ती में 98 परिवार सालों से झुग्गी-झोपड़ी बनाकर निवास करते आ रहे हैं। यह झुग्गी-झोपड़ी वाले राजस्थान, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों से काम की तलाश में आकर यहां रह रहे हैं। मगर, अब इन 98 परिवारों को हटाने की तैयारी हो रही है।
बताया जा रहा है कि, यह 98 झोपड़ियां दिल्ली मेट्रो लाइन में रोड़ा बन रही हैं। इसलिए इन झुग्गी-झोपड़ी को हटाने की तैयारी की जा रही है। झोपड़ियों को हटाने की प्रक्रिया पर जनचौक लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए उनके बीच पहुंची। बस्ती की निवासी पिंकी देवी बताती है कि, ‘झुग्गियां तोड़ने के लिए यहां पर नोटिस लगा दिया गया है। हमें हटाने की पूरी तैयारी है। जब झुग्गियां तोड़ी जायेंगी तब हमारा काम-धंधा सब चौपट हो जाएगा। मेरे बच्चों का स्कूल छूट जायेगा। मेरे तीन बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं। यहां आस-पास किराए पर कमरे भी नहीं मिल रहे, ताकि हम वहां कुछ दिन रह कर नया ठिकाना तलाश सकें। कुछ कमरे मिलते हैं, जिनका रेट बहुत हाई होता है उन्हें हम खरीद नहीं पाते। हम जाएं तो जाएं कहां? समझ में नहीं आ रहा।’

कैलाश बताते हैं कि, ‘हम प्रेम नगर ओखला मोड़ के पास कम से कम 20 सालों से झुग्गी बनाकर रह रहे हैं। झुग्गियां हटाने की सूचना ने सबको चिंता…में डाल दिया है। हम…लोगों के काम-धंधे तितर-बितर हो गये हैं। हम लोगों का कहना है कि, जब तक हमारा पुनर्वास नहीं किया जाता तब तक हमे रहने के लिए जगह दी जाएं। जिससे हम कहीं और अपने पैर जमाने का इंतजाम कर सकें।’
इसके आगे कौशल अपने हालात बयां करते हुए कहती हैं कि, ‘यहां रहते-रहते 15 साल से ज्यादा वक्त गुजर गया है। हम मूर्ति निर्माण का कार्य करते है। हमारे काम-धंधे के दिन अब आ रहे हैं। ऐसे में प्रशासन द्वारा हमारी झुग्गियों को तोड़ने की बात कही जा रही है। हमारी तीन जवान लड़की और एक लड़का है। इस बारिश के मौसम में हम उन्हें लेकर कहां जाएं। हमारे पास रहने का कोई ठिकाना नहीं है।’
कौशल आगे कहती हैं कि, ‘हमारी आईडी पर होमलेस लिखा हुआ है। शासन-प्रशासन ने हमें कई बार आश्वासन दिया है कि आपको आवास दिया जाएगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। यदि हमारे पास राजस्थान में खुद की जगह होती तब हम वहां चले जाते। प्रशासन से प्रार्थना है कि वह एक-दो महीने रुक जाए, ताकि, हम अपने रहने का ठिकाना तलाश सकें।’

सीता अपना दर्द सुनाती हैं। वे कहती हैं कि, ‘मेरे पति पहले ही ट्रेन से कट कर आत्महत्या कर चुके हैं। अब मैं बेसहारा हूं। अपने बच्चों के साथ झुग्गी में रहती हूं। अधिकारी लोग हमें…चैन की रोटी नहीं खाने दे रहे। लड़का-लड़की को कहां लेकर जाऊं, हमारी कोई जगह-जमीन नहीं हैं।’
कांता राजस्थान से अपनी संसाधनहीनता से निकलने का रास्ता तलाशने दिल्ली आयी थीं। उनका कहना है कि, ‘दिल्ली में रहते-रहते 16-17 साल बीत गये हैं। हमारी जान-पहचान, रिश्ते-नाते, संबंध सब दिल्ली में ही है। हमारा घर परिवार और संसार तो दिल्ली ही है। मगर, लगता है दिल्ली से हम जुदा हो जायेंगे। क्योंकि, अब हमारी झुग्गियां तोड़े जाने को लेकर चर्चा जोर-शोर से चल रही है।
कांता आगे दुखी मन से कहती हैं कि, ‘मेरी बहु की डिलिवरी होने वाली है। इस बारिश के मौसम में हम कहां जायेगें? कई साल से हमारी झुग्गियों का सर्वे किया जा रहा है। हमें आश्वासन दिया जा रहा है कि, घर दिया जायेगा। लेकिन, हम बेघर होने की कगार पर हैं। अब घर मिलेगा पता नहीं।
जब हमने 60 वर्षीय शर्मिला से झोपड़ी के मामले पर बातचीत की तब वह बोलती हैं कि, ‘हम मियां-बीवी अकेले रहते हैं। एक लड़की थी हमारी। जिसकी हमने शादी कर दी थी। अब हमारा कोई सहारा नहीं। हमें पेंशन और राशन तक का लाभ नहीं मिलता। यहां हम झुग्गी में रहते हैं, जिससे पानी टपकता है। हम कई मुसीबतों में जी रहे हैं। फिर भी, सरकार हमको यहां रहने नहीं दे रही। सरकारी घर पाने के लिए हम सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रहते हैं। मगर, वहां से हमें बदसलूकी के सिवा कुछ नहीं मिला।’

बुजुर्ग महीपाल राजस्थान के चित्तौड़ के हैं। लोहार समुदाय से ताल्लुक रखने वाले महीपाल अकेले और निराश्रित स्थिति में झुग्गी में रहते हैं। उनका कहना है कि, ‘मेरे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं। हम जहां…रहने का ठिकाना बनाते हैं वहीं हमें उजाड़ दिया जाता है। मेरे पास पांच पैसे का रोजगार नहीं है। भूखे मरने जैसी स्थिति बनी हुई है। सालों गुजर गये पर सरकार हमारी सूरत नहीं बदल पायी। ऐसे ही खानाबदोशों की तरह हम भटकते रहते हैं।’
दिनेश का रिश्ता-नाता उत्तर प्रदेश से है। वह फ़रमाते हैं कि, ‘यहां लोग, लोहे के सामान बनाने, पत्थर, चूना-मिट्टी की मूर्ति बनाने और मजदूरी का काम करते हैं। वहीं खुद के बारे में वह कहते हैं कि, मैं सिलवट्टा (मसाले और चटनी बांटने का पत्थर) बनाने का काम करता हूं। यहां कई सालों से निवास करते आ रहे लोग ज्यादातर अशिक्षित हैं। हमें सरकार की शौचालय जैसी सुविधा का ही लाभ मिला है। बाकी बहुत सी सुविधाओं से हम वंचित हैं। हम बहुत बार अपने स्थाई निवास हेतु आवाज उठा चुके हैं। धरना प्रदर्शन कर चुके हैं। मगर,अब तक निवास स्थल नहीं मिला।’
दिनेश आगे कहते हैं कि, ‘हम भी इसी देश के नागरिक हैं। देश पर हमारा भी अधिकार है। यदि हमें देश में रहने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी तब हम कहां जायेगें? हम सुरक्षित भी नहीं हैं। हमें हटाने की वजह यह है कि, हमारा निवास स्थल मैट्रो स्टेशन के रास्ते में आ रहा है। बारिश के मौसम में सब लोग छुपने की जगह देते हैं, मगर हमें उजाड़ने का कदम उठाया जा रहा है।’
बस्ती वासियों के हक अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे मजदूर आवास संघर्ष समिति दिल्ली के संयोजक निर्मल गौराना से भी हमने इस मामले में चर्चा की। निर्मल गौराना कहते हैं कि, ‘झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले 98 परिवारों ने पुनर्वास के लिए आवेदन किये थे, मगर,पुनर्वास की…नीतियों को कोई मानने के लिए तैयार नहीं है। अगर झुग्गियों में रहने वाले लोग पुनर्वास से वंचित…रह जाते हैं, तब इसमें सरकार भी जिम्मेदार होगी। पुनर्वास ना होने से झुग्गी निवासी जबरन बेदखली का शिकार होंगे। झुग्गियों में रहने वाले लोगों की हालत को सुधारने और बिगाड़ने में सरकार की नीतियों का हाथ रहेगा।’
बस्ती के इन 98 परिवारों के पुनर्वास और अधिकार के लिए हाई कोर्ट दिल्ली में एक याचिका भी दायर की गयी। याचिकाकर्ता की वकील सुमैया खातून दिल्ली हाईकोर्ट में वकील है। सुमैया मानवाधिकार की कानूनी लड़ाई लड़ती हैं।
सुमैया खातून बातचीत में हमें बताती हैं कि, ‘जीवन और आवास पर काम करने पर मुझे अनुभव हुआ कि, जो हमारी नीतियां और कानून बने हैं उनका उचित ढंग से अनुसरण नहीं किया जा रहा है। इन नीतियों और कानून का ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। जब भी झुग्गी-झोपड़ी वालों का डिमोलिशन किया जाता है तब पहले उनका पुनर्वास नहीं किया जाता है। जबकि, कानून के मुताबिक लोगों को हटाने से पहले उनका पुनर्वास किया जाना चाहिए।’
सुमैया आगे बतलाती है कि, ‘ऐसा बहुत बार देखने में आता है किसी का जो घर या झुग्गी होती है, उससे उनका पूरा…जीवन जुड़ा होता है। जब झुग्गी-झोपड़ी को तोड़ा जाता है तब व्यक्ति मानसिक संतुलन खो देता है। व्यक्ति…का पूरा परिवार प्रभावित हो जाता है। संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार का हनन होने लगता है।’
98 परिवारों के पुनर्वास और हक अधिकार के लिए दायर की गयी याचिका का भी हमने अध्ययन किया। याचिका में बहुत से तथ्य उल्लिखित है। साथ में बस्ती वासियों से संबंधित बहुत सी जानकारी दी गयी है। याचिका में 29/07/2024 दिनांक अंकित है। याचिका में उल्लेख किया गया कि, डीयूएसआईबी (दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड) ने 98 परिवारों का एक बेतरतीब सर्वेक्षण किया है।

सर्वेक्षण में कुल 98 परिवारों में से एक को भी व्यक्ति पुनर्वास के लिए पात्र नहीं पाया गया है। ऐसा मुख्य रूप से इस कारण से होता है कि, निवासी का नाम संबंधित वर्ष 2012, 2013, 2014 या 2015 और सर्वेक्षण वर्ष 2020 की मतदाता सूची में दर्ज नहीं है। वहीं, कुछ निवासियों को निर्धारित 12 दस्तावेजों के न होने के कारण अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। भले ही उनके पास साइट पर उनके निरंतर निवास को साबित करने वाले अन्य दस्तावेज हों।
याचिका में कहा गया कि, आवास की समस्या को सार्वभौमिक माना जा सकता है, क्योंकि आज तक कोई भी देश इस बुनियादी मानवीय आवश्यकता को पूरी तरह से पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाया है। पर्याप्त आवास मानव कल्याण और विकास के लिए एक महत्वपूर्ण आधार के रूप में कार्य करता है, जो पारिस्थितिकी, सतत और टिकाऊ विकास से संबंधित तत्वों को एक साथ लाता है।
इसके आगे याचिका में वर्णित किया गया कि, 575 मिलियन से अधिक लोगों के साथ, भारत में 2030 तक 41 प्रतिशत आबादी शहरों और कस्बों में रहेगी। वर्तमान में इसका स्तर 286 मिलियन है। लेकिन इस सफलता के साथ शहरी क्षेत्रों में गरीबी भी आई है। भारत में शहरी गरीबी 25 प्रतिशत से अधिक के स्तर पर उच्च बनी हुई है। भारत के शहरों और कस्बों में 80 मिलियन से अधिक गरीब लोग रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप ‘गरीबी का शहरीकरण’ हुआ है।
शहरी गरीबी के कारण झुग्गी-झोपड़ियों की आबादी में वृद्धि हुई है। 2001 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहरों और कस्बों में 50,000 और उससे अधिक की आबादी वाले झुग्गी-झोपड़ियों की आबादी 42.6 मिलियन थी। देश की कुल झुग्गी-झोपड़ियों की आबादी का 11.2 मिलियन महाराष्ट्र में है, इसके बाद आंध्र प्रदेश (5.2 मिलियन) और उत्तर प्रदेश (4.4 मिलियन) का स्थान है।
याचिका में यह भी बताया गया कि,वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, कुल शहरी बेघर आबादी 7,78,599 लोग हैं। दिल्ली में यह राष्ट्रीय स्तर का 3.1 प्रतिशत था, और बिहार और तमिलनाडु में क्रमशः 1.6 प्रतिशत और 7.3 प्रतिशत था।दिल्ली में, 100,000 से अधिक बेघर लोगों के लिए सरकार 2,937 लोगों की अधिकतम क्षमता वाले 14 रैन बसेरों का संचालन करती है, जो शहर में बेघर लोगों का केवल 3 प्रतिशत है।

याचिका में आगे एक दस्तावेज अटैच है। इस दस्तावेज में जिक्र किया गया कि, जेजे बस्ती लोहार बस्ती, टीपॉइंट, लाल कुआँ के संबंध में यह प्रस्तुत किया जाता है कि डीएमआरसी ने 21.10.2019 के पत्र के माध्यम से दिल्ली एमआरटीएस परियोजना चरण- IV के टी-जंक्शन पर झुग्गियों को हटाने का अनुरोध किया था। इसने 22.09.2020 को पुनर्वास शुल्क के रूप में 7.69,36.000/- रुपये की राशि जमा कर दी है।
जेजे लोहार बस्ती टी-पॉइंटरेड लाइट लाल कुआँ का संयुक्त सर्वेक्षण 02.11.2020 से 05.11.2020 के दौरान डीयूएसआईबी के अधिकारियों द्वारा डीएमआरसी के प्रतिनिधियों के साथ किया गया था। इस सर्वेक्षण में 98 झुग्गी इकाइयों की पहचान की गई थी। फिर, डीयूएसआईबी ने 12.04.2021 को आयोजित अपनी 30वीं बोर्ड बैठक में उक्त बस्ती के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के पुनर्वास को मंजूरी दे दी।
आगे, सर्वेक्षित 98 इकाइयों में से 87 झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग पात्रता निर्धारण समिति (ईडीसी) के समक्ष उपस्थित हुए। ईडीसी ने 11.12.2017 की नीति के अनुसार सभी निवासियों को अपात्र घोषित कर दिया।
(सतीश भारतीय स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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