सदन में भाषण जारी था, बाहर लोकतंत्र लहूलुहान हो रहा था

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नई दिल्ली। आज दिन भर राजधानी दिल्ली की सड़कों पर छात्र और छात्राओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जाता रहा। किसी के सिर फूटे तो किसी की टांग टूटी। कोई सड़क पर कराह रहा था तो किसी को उसके दोस्त अस्पताल ले जाते देखे गए। जेएनयू न हुआ अबूझमाड़ का जंगल हो गया। छात्र न हुए बम बांधे अजमल कसाब का आत्मघाती दस्ता हो गए। जो उनसे निपटने के लिए सीआरपीएफ के जवानों को तैनात किया गया। यह बात सबको पता है कि केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों को किन्हीं खास परिस्थितियों में ही तैनात किया जाता है।

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दिल्ली पुलिस की संख्या घट गयी थी या फिर वह इतनी नाकाबिल हो चली थी कि उससे कुछ न संभल पाने की आशंका थी। सुबह से ही तकरीबन एक हजार के आस-पास केंद्रीय सुरक्षा बलों के जवानों को वर्दी में जेएनयू के गेट पर तैनात कर दिया गया था। दिलचस्प बात यह है कि उससे भी ज्यादा बगैर वर्दी के सादे लिबास में थे। उनके बारे में तब पता चल पाया जब छात्रों के बीच मौजूद ये सादे लिबासधारी अचानक उन पर टूट पड़े। उनकी जुबान में गालियां थीं। डंडे और हाथ की जगह लात और घूंसे थे। और मार-मार कर अधमरा कर देने के बाद छात्रों को फुटबाल की तरह बसों में फेंकने की उनकी कारस्तानियां थीं।

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सड़क से लेकर परिसर और बस से लेकर थाने तक जगह-जगह से छात्राओं के साथ पुलिस की बदतमीजी की रिपोर्टें आ रही हैं। इतने बड़े प्रदर्शन में बताया जा रहा है कि महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बिल्कुल न के बराबर थी। नतीजतन छात्राओं से निपटने के लिए भी पुरुष पुलिसकर्मियों को ही लगा दिया गया था। यह सब कुछ अनजाने में नहीं हुआ है। बिल्कुल सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है। मकसद था छात्रों को सबक सिखाना। दरअसल जेएनयू के छात्रों ने केंद्र सरकार की नाक में दम कर दिया है। लिहाजा सरकार ने अब उनको किसी भी तरीके हतोत्साहित करने की कवायद शुरू कर दी है। आज के सुरक्षा बलों के रवैये को उसी दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर देखा जाना चाहिए।

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आज की घटना ने कई सवाल खड़े किए हैं। पीएम मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब राज्यसभा में वह सदन के 250वें सत्र पर भाषण दे रहे थे उसी दौरान बाहर लोकतंत्र लहूलुहान हो रहा था। भला देश में ऐसा कौन सा दौर रहा है जब किसी तबके को शांतिपूर्ण प्रदर्शन से रोका गया हो। और वह भी देश की राजधानी के भीतर। जेएनयू के लिए यह कोई पहला मौका नहीं था। पिछले छह साल में सैकड़ों बार जेएनयू के छात्रों ने दिल्ली की सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन किया है।

एक बार भी उन्होंने कोई अराजकता दिखायी हो या फिर कुछ ऐसा किया हो जिससे कानून और व्यवस्था खराब हुई हो उसका कोई एक उदाहरण नहीं पेश कर सकता। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उनके प्रदर्शन को रोकने और उस पर लाठियां बरसाने के पीछे आखिर क्या वजह हो सकती है। क्या केंद्र सरकार ने जेएनयू को दुश्मन क्षेत्र घोषित कर दिया है। या फिर उसने तय कर लिया है कि जेएनयू के छात्रों और सरकार के बीच अब बात नहीं लाठी का ही रिश्ता होगा।

बहरहाल जो व्यक्ति न छात्र रहा है और न ही शिक्षा से जिसका कुछ लेना-देना रहा है उससे छात्रों की मांगों के प्रति सहानुभूतिपूर्वक विचार की उम्मीद करना किसी भोलेपन से कम नहीं है। छात्रों की पीठों पर बरसीं लाठियों ने आपातकाल के दौर को भी पीछे छोड़ दिया। यह बात जितनी सत्ता पक्ष के निरंकुश और नंगे चरित्र का पर्दाफाश करती है उतना ही विपक्ष के लोगों पर भी सवाल खड़े करती है।

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इतिहास में यह दिन काले अक्षरों में याद किया जाएगा। एक ऐसे मौके पर जब सड़क पर खाकी छात्रों पर कहर बरपा रही थी तब विपक्ष के नेता सदन में जुगाली कर रहे थे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि उन्नाव में अभी कल ही योगी की पुलिस ने बेकसूर किसानों पर बर्बर तरीके से लाठियां बरसाई हैं। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष को आज उनकी आवाज बनना था लेकिन वह गूंगा बना रहा।

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राष्ट्रनिर्माण में अमूल्य भूमिका निभाने वाले देश के दो सबसे ऊर्जावान और उत्पादक तबकों को जब घेर-घेर कर मारा जा रहा हो तो वह लोकतंत्र के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। भला यह कैसा राष्ट्रवाद है और इसके जरिये किस तरह के राष्ट्र का निर्माण किया जा रहा है? अगर वह छात्रों के लिए नहीं है। किसानों के लिए नहीं है। गरीब, आदिवासी और दलित तबकों के लिए नहीं है। अल्पसंख्यकों से तो उसका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं है। तो फिर भला वह किसका है? क्या वह अंबानियों और अडानियों का है?

और उनके हितों को पूरा करने के लिए जनता से हर तरह की कुर्बानी की मांग से प्रेरित नहीं है? वरना देश के सबसे बड़े इंस्टीट्यूट आफ एक्सिलेंस जेएनयू को मार कर उसकी जगह जियो को खड़ा करने के पीछे दूसरा क्या उद्देश्य हो सकता है। किसानों की जमीनों को जबरन छीनकर अडानी को देने के पीछे आखिर क्या वजह हो सकती है। वह जेएनयू हो या कि बीएचयू और इलाहाबाद हो या फिर हैदराबाद। छात्रों को निशाना बनाकर उनकी बेरहमी से पिटाई का कोई भी मौका सरकार नहीं छोड़ रही है।

जय जवान, जय किसान के नारे पर खड़ी देश की बुनियाद आज दरक रही है। विडंबना यह है कि आज बाप और बेटे को ही आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है। पिछले छह सालों के भीतर देश में नफरत और घृणा की निकली मवाद में अब छात्र और किसान समेत सभी तबके डूब जाने के लिए अभिशप्त हैं।

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