इस रिपोर्ट में हम लोकपाल की कहानी को बताएंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि किस तरह बड़े आंदोलन के जरिये भारत में लोकपाल स्थापना की मांग की गई थी। लगभग 12 बरस पहले लोकपाल की मांग को लेकर हुए अन्ना हजारे के आंदोलन को भला कौन भुला सकता है?
उस आंदोलन ने देश को विस्मित कर दिया था। मानो आंदोलन आजादी की दूसरी लड़ाई हो। देश की जनता ने उस आंदोलन का पूरा समर्थन किया था। बड़ी-बड़ी बातें कही गई थी। दिल्ली के रामलीला मैदान में बड़े -बड़े नाटक भी दिखे थे। लोकपाल की मांग कर रहे अन्ना हजारे को लोग दूसरा गांधी तक कह रहे थे।
तब की मनमोहन सिंह सरकार उस आंदोलन से विचलित हो गई थी। मनमोहन सरकार पर कई सवाल उठने लगे थे। कई बड़े भ्रष्टाचार सामने आये थे। और कुल मिलकर कांग्रेस की सरकार को बेकार और नपुंसक करार दे दिया गया था।
मनमोहन सिंह की सरकार ने लोकपाल बनाने की हामी भरी, तब जाकर अन्ना का आंदोलन ख़त्म हुआ था। मनमोहन सिंह ने अपने वादे के मुताबिक़ लोकपाल विधेयक भी पास करा दिया। इसके बाद देश के सामने जो राजनीति प्रकट हुई उसमें एक तो केजरीवाल की राजनीति का उदय हुआ और दूसरा देश की राजनीति में मोदी का प्रादुर्भाव हुआ।
2014 में राजनीति बदल गई। केजरीवाल की राजनीति को भी इसी देश ने स्वीकार किया और मोदी की राजनीति को भी इस देश की जनता ने स्वीकार किया। लेकिन जिस लोकपाल को लेकर अन्ना का आंदोलन हुआ था और मनमोहन सिंह की सरकार जाते-जाते लोकपाल बिल पास करा गई थी, वह सब पेंडिंग में चला गया। उस पर कोई चर्चा नहीं हुई।
मोदी की सरकार पांच साल तक चलती रही लेकिन लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पायी। पांच साल के बाद जिस लोकपाल की नियुक्ति हुई वह भी शायद ही देश के लोगों को पता हो। अभी कौन लोकपाल है और लोकपाल ने क्या वह सब किया जिसकी मांग अन्ना हजारे कर रहे थे ?
और बड़ी बात तो यह कि मौजूदा लोकपाल अभी कर क्या रहे हैं ? क्या लोकपाल ने किसी बड़े भ्रष्टाचार की कहानी में अपनी भूमिका निभाई है ? हम इस पर चर्चा करेंगे लेकिन पहले देश के बदलते राजनीतिक मिजाज और देश की सरकार पर एक नजर डालने की जरूरत है।
तो क्या इस देश के आम जन मौजूदा मोदी सरकार के दर्जन भर मंत्रियों के नाम को बता सकते हैं ? शायद नहीं। संभव है कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों को भी ये नाम याद नहीं हो और वे भी कन्फ्यूज ही रहते हों। दिन रात राजनीतिक घटनाओं की जानकारी देने वाले पत्रकारों को भी शायद ही दर्जन भर मंत्रियों के नाम याद हों या उन्हें जानते हों।
बड़ा ही विचित्र मामला है। नेताओं और मंत्रियों का ऐसा गिरता इकबाल अब से पहले कभी देखा नहीं गया था। एक जमाना था जब गांव के लोग भी जानते थे कि देश के बड़े नेता कौन हैं और कौन मंत्री हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा।
जो सरकार देश को चलाने का दावा करती है उस सरकार का ब्यौरा देश के पास भले ही हो लेकिन जनता के जेहन में नहीं है। जनता को इससे कोई मतलब भी नहीं। पहले मंत्री और नेता से देश की जनता सीधे शिकायत करती थी लेकिन अब वह भी नहीं रहा।
पार्टी प्रमुख हो गई। पीएम प्रमुख हो गए। किसी को कोई बात कहनी है तो पीएम से कहो और पीएम चाहेंगे तो जनता की इच्छा पूरी होगी। कह सकते हैं कि राजनीति अब पहले वाली नहीं रही। राजनीति बदली तो नेता के आचरण भी बदले। उनकी भाव- भंगिमा भी बदली और जनता के बीच उनके रसूख भी बदले।
राजनीति की यह त्रासदी देश और समाज को कहां तक ले जाएगी इसे देखना बाकी है।
किसी भी सरकार का अंतिम लक्ष्य क्या होता है? यही न कि देश और समाज को आगे बढ़ाने के लिए उन्नत कार्य हो और देश की सीमा के भीतर की जनता का पूर्ण विकास हो ताकि समय और काल के मुताबिक़ उसकी जिंदगी खुशहाल हो। सुरक्षित हो। सबल हो और आधुनिकता के साथ भविष्य खुशहाल नजर आता हो।
समाज के भीतर हो रहे व्याभिचार, आतंक, अपराध और भ्रष्टाचार ख़त्म हो ताकि देश क हर नागरिक खुशहाल और सुरक्षित जीवन जी सके। सरकार से यह भी अपेक्षा की जाती है कि पड़ोस के देशों के साथ भी मधुर और सहयोगात्मक सम्बन्ध और सरोकार रहे।
सम्बन्ध ऐसा जिसमें पड़ोसी का भी विकास हो और खुद का भी विकास हो सके। सबको सामान न्याय मिले और सबको अपने अधिकार और कर्तव्य का बोध भी हो।
लेकिन क्या ऐसा होता दिख रहा है? सत्ताधारी पार्टी और सरकार के लोग तो कह सकते हैं कि ऐसा ही हो रहा है। लेकिन विपक्ष की बात माने तो सरकार जो कर रही है वह सब बेकार है। लेकिन ऐसा होता नहीं। इस मामले में सरकार के लोग भी झूठ बोलते हैं और विपक्ष के लोग भी झूठ ही बोलते हैं।
सत्य तो यही है कि कोई भी सरकार करती तो बहुत कुछ है लेकिन उस बहुत कुछ में उसके हित छुपे होते हैं। उसकी राजनीति छुपी होती है। उसके समीकरण छुपे होते हैं। इसी हिडेन एजेंडा पर देश आगे बढ़ता है और सरकार भी आगे बढ़ती दिखती है।
क्या मोदी सरकार में किसी बड़े भ्रष्टाचारी नेता, अधिकारी और लोकसेवक के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है? क्या कालाधन लाने में सरकार कोई बड़ी सफलता पा सकी है? मोदी सरकार यह कह सकती है कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ कई बड़ी कार्रवाई की गई और उन्हें जेलों में बंद किया गया। उनकी संपत्ति भी जप्त की गई।
लेकिन बड़ी बात तो यह है कि खुद मोदी जी और अमित शाह ने जिन लोगों को देश का सबसे भ्रष्टाचारी नेता कहा था, उसकी जांच लोकपाल से क्यों नहीं कराई? मोदी की नज़रों में भ्रष्टाचारियों की जांच लोकपाल से होती तो भी माना जाता कि इस देश में लोकपाल ज़िंदा है और देश के लोगों को भी पता चलता कि इस देश में बड़े नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ जांच करने वाली भी कोई बड़ी संस्था है। जिसका नाम लोकपाल है।
जिस लोकपाल बनाने के नाम पर मोदी सत्ता में आये थे, सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार को लोकपाल बनाने में पांच साल गए और वह भी दंतहीन।
अब लोकपाल की चर्चा फिर से की जा सकती है। लोकपाल बिल जब बनाया गया तो कहा गया कि लोकपाल राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करेगा। लोकपाल बिल में यह भी कहा गया है कि लोकपाल, उच्च सरकारी पदों पर आसीन लोगों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की शिकायतों पर भी काम करता है।
लोकपाल और लोकायुक्त, वैधानिक निकाय हैं, लेकिन इनका कोई संवैधानिक महत्व नहीं है। लोकपाल और लोकायुक्त, सरकारी संस्थाओं और संगठनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ दूसरी समस्याओं को भी देखते हैं।
लोकपाल और लोकायुक्त, प्रशासन के स्वस्थ मानदंडों को बनाए रखने में मदद करते हैं। ये सभी बातें लोकपाल कानून में दर्ज है।
बता दें कि न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष भारत के पहले लोकपाल थे। 23 मार्च, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने उन्हें भारत का पहला लोकपाल नियुक्त किया था।
पिनाकी चंद्र घोष, सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान कई अहम फ़ैसले दिए थे। मई 2022 में दो साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद वे सेवानिवृत्त हुए। लेकिन लोकपाल रहते हुए उन्होंने कोई ऐसी तस्वीर पेश नहीं की जिससे यह कहा जाये लोकपाल की नजरों से कोई बच नहीं सकता।
वे कब लोकपाल बने और कब विदा हो गए, इसकी जानकारी सिर्फ मीडिया तक ही सीमित रही। देश के मौजूदा लोकपाल अजय माणिकराव खानविलकर हैं। अब उन पर चर्चा की जा सकती है।
देश में लोकपाल बने हुए पांच साल हो गए। जिस इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन में अन्ना हजारे के साथ बीजेपी भी शामिल रही। वही बीजेपी मोदी की सरकार बनने के बाद पांच साल तक लोकपाल के मसले पर चुप रही। हजारे भी मौन ही रहे।
पीएम मोदी भी अपनी पहली सरकार में पांच साल तक लोकपाल को लेकर मौन ही रहे। पांच साल के बाद मोदी ने लोकपाल का गठन किया लेकिन देश को जो लोकपाल मिला वह क्या कर रहा है यह किसी को पता नहीं।
देश के पहले लोकपाल पिनाकी चंद्र घोष ने अपने काल में भ्रष्टाचार को लेकर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की। फिर चले भी गए। अब जो लोकपाल हैं, उनकी हालत कैसी है, यह सब इस बात से पता चलता है कि पिछले पांच साल में इस लोकपाल ने भी कोई प्रदर्शन नहीं किया।
इससे दो बातें साबित हो रही हैं। या तो देश में कोई भ्रष्टाचार है ही नहीं और अगर है भी तो उस पर कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही है। कह सकते हैं कि लोकपाल के रहने और नहीं रहने से कोई बड़ा असर नहीं हो रहा है। सच तो यही है कि एक संसदीय समिति ने लोकपाल के प्रदर्शन सबसे ख़राब तक माना है।
पिछले साल ही एक रिपोर्ट आयी थी। उस रिपोर्ट के मुताबिक़ लोकपाल के पास कुल 2760 शिकायते पहुंची थी। इन शिकायतों में कई शिकायतें काफी गंभीर भी थी। शिकायत कर्ता को लगा था कि इन शिकायतों के आधार पर लोकपाल आगे की कार्रवाई करेगा और दोषी को सख्त सजा मिल सकती है।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 2518 शिकायतें तो इसलिए ख़ारिज कर दी गई कि वह एक निश्चित फॉर्मेट में नहीं थी। और जो बाकी की 242 शिकायतें लोकपाल के पास पड़ी रहीं, उस पर अभी तक कोई कार्रवाई ही नहीं हुई। इसी से आप जान सकते हैं कि इस देश में कोई भ्रष्टाचार नहीं है और है तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं चाहता।
लोकपाल की नियुक्ति तो इसलिए की गई थी कि देश में प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, नौकरशाह और सरकारी पैसे पर चल रहे संस्थाओं के भ्रष्टाचार पर काम की जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
सच तो यही है कि पिछले पांच साल में भ्रष्टाचार के एक भी मामले में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया। ऐसे में सवाल तो यह भी है कि फिर इस संस्थान की जरूरत क्या है? इसके रहने और नहीं रहने से क्या फर्क पड़ता है?
लेकिन एक बात तो सच है कि जनता के टैक्स के पैसे से कुछ लोगों की जिंदगी तो कट ही रही है।
तो क्या लोकपाल भी सत्ता सरकार पर की गलतियों पर अंकुश लगाने के बजाय सत्ता सरकार को बचाने का प्रयास कर रहा है? यह बात इसलिए कही जा सकती है कि अभी हाल में लोकपाल के यहां सेबी प्रमुख माधबी बुच के खिलाफ मामला पहुंचा था। लोकपाल इसकी जांच करता लेकिन जांच नहीं हुई।
जिस व्यक्ति ने यह शिकायत की थी लोकपाल ने उसे ही फटकार दिया और शिकायत को रद्द कर दिया। लोकपाल ने यहां तक कहा कि आजकल लोग इंटरनेट से मामला लेकर चले आते हैं और मामले की सत्यता की जांच भी नहीं करते। लग रहा था मानो लोकपाल वकील भूमिका में खड़े हों।
लोकपाल ने हिंडनबर्ग की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा किया और शिकायतकर्ता को भी हड़काते हुए कहा कि पहले मामले की जांच कर लें। इस तरह का मैटर सामने नहीं लाये।
अब आप ही बता सकते हैं कि मामले की जांच की जिम्मेदारी तो किसी शिकायतकर्ता की नहीं है। यह जिम्मेदारी तो लोकपाल की है। कम से कम लोकपाल अपने स्तर से इस मामले की जांच तो कर सकता था जो संभव नहीं हो सका। अब इसे मामले को आप जिस रूप में लेना चाहें ले सकते हैं।
लोकपाल का एक दूसरा रूप भी सामने आया। मामला झारखंड का था। बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने सीएम हेमंत सोरेन के परिवार के खिलाफ लोकपाल में शिकायत दर्ज कराई। शिकायत दर्ज होते ही लोकपाल ने इस मामले की प्रारंभिक जांच सीबीआई से करने को कह दिया।
यह जांच चल भी रही है। लेकिन जब टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा और पूर्व आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने लोकपाल के सामने हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आधार पर माधबी बुच के खिलाफ मामला दर्ज किया तो लोकपाल ने उलटे उन्हीं से सवाल कर दिया कि आपको पहले इस मामले की जांच करनी चाहिए।
अब इसे आप जिस रूप में लें। लेकिन हो यही रहा है। क्या अन्ना हजारे को यह मालूम नहीं है कि लोकपाल क्या कर रहा है? जिस लोकपाल को लेकर उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार को ख़त्म कराया, उन्हें इस बात की जानकारी जरूर होगी कि देश का लोकपाल क्या कर रहा है और जो कर रहा है वह सही है या गलत ?
बता दें कि भ्रष्टाचार को मिटाने और दूर करने के लिए विभिन्न देशों में समय-समय पर अनेक कदम उठाए गये हैं। स्वीडन में सर्वप्रथम 1809 में संविधान के अन्तर्गत ‘ओम्बुड्समैन’ की स्थापना की गयी। भारत में ओम्बुड्समैन को लोकपाल के नाम से जाना जाता है।
फिनलैण्ड में 1918 में, डेनमार्क में 1954 में, नार्वे में 1961 में व ब्रिटेन में 1967 में ओम्बुड्समैन की स्थापना भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए की गई। इंग्लैंड में इसे संसदीय आयुक्त, रूस में ‘वक्ता‘ अथवा प्रोसिक्यूटर व डेनमार्क एंव न्यूजीलैंड में इंग्लैंड की तरह संसदीय आयुक्त के नाम से जानते है।
सभी देशों के लोकपाल बड़ी से बड़ी कार्रवाई करते दीखते हैं, लेकिन भारत का लोकपाल जिस मसले पर चोट करने के लिए बनाया गया था, पांच साल बाद भी वह कोई बड़ा काम नहीं कर सका।
लोकतंत्र में अगर राजनीति की दिशा और दशा बदली है और नेताओं के अंदाज बदल गए हैं तो यह भी साफ है कि इस देश की अधिकतर लोकतान्त्रिक संस्थाएं भी बदल गई हैं या उन्हें बदल दिया गया है।
देश की जांच एजेंसियां तो पहले से ही शक के दायरे में है और देश की शीर्ष अदालत समय-समय पर उसे कई नामों से प्रचारित भी करती है। संभव है कि आने वाले समय में देश का लोकपाल संस्था भी कही दंतहीन और विषहीन न साबित हो जाए।
(अखिलेश अखिल स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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