संसद में कुंठित वक्तव्य: घृणा और ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता को बचाने की मरीचिका

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जाति और पहचान को लेकर आजकल बहुत हल्ला हो रहा है। अभी संसद में अनुराग ठाकुर ने राहुल की जाति को लेकर उन पर एक अमर्यादित टिप्पणी  की। इससे पहले भी उनके द्वारा सार्वजनिक मंच से गोली मारो का ‘पवित्र और सद्भावपूर्ण’ नारा लगाया जा चुका था। हालिया टिप्पणी भी उसी भावना के क्रम में थी। लेकिन जब विपक्ष ने उनकी इस टिप्पणी को लेकर सख़्त नाराजगी दिखाई, तो वह बच्चों की तरह कहने लगे कि हमने तो किसी का नाम ही नहीं लिया। फिर इन्हें ही क्यों दिक्कत हुई।

सत्ता का शीर्ष नेतृत्व सहित पूरी पार्टी अनुराग के बचाव में उतर आई। कुछ ने तो उनके बयान में साहित्यिक मूल्य भी खोज लिए। पूरी पार्टी कहने लगी कि जब राहुल गांधी सबकी जाति पूछते हैं, तो फिर इनसे पूछ लिया गया तो क्या गलत किया गया? इन्हें अपनी जाति बताने में क्या दिक्कत है? हालांकि बजट पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी का यह कहना भी थोड़ा अतिरंजनापूर्ण है कि बजट अमुक-अमुक जाति के लोगों ने तैयार किया है, इसलिए एकपक्षीय है।

बजट का मूल खांचा तो सत्ता पक्ष की प्राथमिकताओं से तय होता है, न कि अधिकारियों की जातीय पहचान से। इसलिए यह ठीक नहीं, पर हां समाज के हर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व तो मिलना ही चाहिए, ताकि ऐसी नीतियां बने, जिनमें सभी की आकांक्षाओं को स्वर मिले, जिनमें सभी का विश्वास हो और प्रभावी हो। समग्रता लिए हुए ऐसी नीतियां समाज के आखिरी व्यक्ति तक लाभ पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

खैर, बात अनुराग ठाकुर के बयान के समर्थन की। जो यह कहते हैं कि अनुराग ठाकुर ने जाति पूछी तो क्या गलत किया? 

पर सही बात तो ये है कि जाति उन्होंने पूछी ही कहां? उन्होंने तो प्रकारांतर से बताया है कि उनकी कोई जाति नहीं। उनका बयान भारतीय संस्कृति की समावेशी प्रकृति से कहीं मेल नहीं खाता। उनके बयान में जातीय श्रेष्ठता का दंभ है, सामने वाले के प्रति तिरस्कार का भाव है। क्या जाति से इतर व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं?   

यद्यपि जाति आधारित समाज भारत की एक कड़वी सच्चाई है, जिसमें जाति सामाजिक, आर्थिक स्तर के निर्धारण में असरकारी भूमिका निभाती रही है। इसीलिए स्वतंत्रता पश्चात समग्र विकास की इच्छा से पिछड़ी जातियों के लिए कानूनी उपबंध किए गए। जाति के आधार पर भेदभाव को अपराध माना गया। जाति को लेकर किसी पर तंज कसना गलत है। जब कोर्ट उन अबोध संतानों की भी गरिमा के लिए फिक्रमंद है, जिनके माता-पिता तक का पता नहीं है।

ऐसे में किसी की जाति/धर्म को लेकर शर्मनाक टिप्पणी करना कितना गर्हित है, बताने की जरूरत नहीं। न जाति पूछना गलत है और न बताना, लेकिन जातिवादी होना गलत है। पूछने का लहजा बता देता है कि आप क्या हैं, जातिवादी या समाजवादी। पूछने का लहजा ही तय कर देता है कि आपकी नीयत कैसी है। आप किस नीयत से सवाल कर रहें हैं, यही महत्त्वपूर्ण है न कि सवाल। 

अनुराग ठाकुर का यह कहना कि “जिनकी जाति का पता नहीं ………” का क्या मतलब है? क्या यह लांछना नहीं है? क्या इसे ही जाति पूछना कहते हैं? शायद  इनको पता नहीं भारत के सांस्कृतिक परिवेश और धर्म के प्रतीक पुरुषों में तमाम ऐसे नायक हैं, जिनकी या तो माता सजातीय नहीं है या फिर पिता, या फिर दोनों ही अज्ञात कुल के हैं। लेकिन ये सभी भारत भूमि के गौरव है। माता सीता भी तो भूमिजा हैं। उनकी जाति और गोत्र कौन बताएगा?

इसके अलावा भरत, जिनके नाम पर अपने देश का नाम पड़ा, की मां शकुंतला की माता अप्सरा मेनका और पिता ऋषि विश्वामित्र थे। इसी तरह कर्ण भी एक उदात्त चरित्र है भारतीय परंपरा का, जिसके मूल को लेकर प्रश्न खड़े किए गए।

कर्ण को जाति के आधार पर किस तरह तिरस्कृत किया गया, सबको पता है। दिनकर ने कर्ण के लिए ही लिखा है – “तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।”

महात्मा विदुर दासी पुत्र थे, जबकि इनके पिता ऋषि वेदव्यास जी थे। इनको क्या कहेंगे? ऋषि जाबाल को अपने पिता का पता नहीं था। जब जाबाल गुरुकुल में अध्ययन करने गए तो उनके गुरु ने उनका गोत्र पूछा, तिस पर उन्होंने अपने पिता के बारे में अनभिज्ञता प्रकट की। बावजूद इसके उनके गुरु ने न उनको लौटाया और ना ही कटाक्ष किया, उल्टे उनकी स्पष्टवादिता और सत्यवादिता को देख अंक में भर लिया। गुरु ने सत्य के प्रति जाबाल की निष्ठा को देखते हुए उन्हें गोत्र दिया सत्यकाम। ये सब हमारे लिए आदरणीय हैं।

मध्यकाल के क्रांतिकारी तेवर वाले कबीर को क्या गोत्र से तौलेंगे? बताते हैं कि वे एक ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसे एक जुलाहे परिवार ने पाला था। उनका गोत्र कैसे मिलेगा? क्या रैदास को खारिज करना संभव है? क्या इंसानियत कुछ भी नहीं!

 कुंठा, घृणा और ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता को स्थायी करने की इच्छा मरीचिका साबित होगी। 

इक्कसवीं सदी में इस तरह की टिप्पणी करना कुंठा को दर्शाता है। जातिवादी और सांप्रदायिक सोच से भला नहीं होने वाला। इंसान को जाति से न तोलो। सबसे बड़ी जाति इंसानियत है।

वर्तमान को गाली देने से पहले अपने अतीत को जान लीजिए। वह अतीत का ही भविष्य है। भारत का अतीत आपकी आंखों को खोल देगा, चमत्कृत कर देगा। बस पीछे मुड़कर देखिए।

 (संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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