सावन माह में कांवड़ यात्रा की तैयारियों के सिलसिले में इस साल उत्तर प्रदेश प्रशासन की ओर से यह नया फरमान आया है। 28 दिनों तक चलने वाली इस यात्रा के लिए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान सहित तमाम राज्यों की सरकारें पुलिस प्रशासन के साथ पूरे तामझाम का बंदोबस्त करने में जुट जाती हैं। कांवड़ यात्रा की यह परिघटना पिछले दो दशकों से एकाएक बढ़ने लगी थी, लेकिन 2014 के बाद से इसका महात्म कई गुना बढ़ चुका है, इसमें हरिद्वार से गंगाजल लेकर लाखों की संख्या में कांवड़ियों अपने कंधों पर गंगाजल को लेकर पैदल चलते हैं। ऐसी मान्यता है कि गंतव्य तक पहुँचने से पहले वे जल पात्र को कहीं भी जमीन पर नहीं रखा जाना चाहिए।
इसमें अधिकांश कांवड़िये युवा होने के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक तौर पर पिछड़े या दलित समाज से आते हैं। आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद की वर्षों की मेहनत का यह नतीजा है, जिसके फलस्वरूप भाजपा को ओबीसी वर्ग और दलितों को हिंदुत्ववादी खेमे में लाने और अपने चुनावी प्रदर्शन को पूर्व की तुलना में काफी बेहतर करने में सफलता हासिल हुई है। धर्म-कर्म के काम में जुटने वाले ये युवा और किसान इन कांवड़ यात्राओं के माध्यम से ग्राम समाज के उच्च वर्गीय तबकों और पुरोहित समाज के बीच सम्मान को पाते हैं, जिससे हिंदुत्वादी परियोजना को हाल के दशकों में काफी बल मिला है।
बता दें कि इस मामले ने तब तूल पकड़ा जब मुजफ्फरनगर के स्वामी यशवीर जी महाराज ने कांवड़ यात्रा से पहले ही यह चेतावनी दे डाली थी कि कांवड़ मार्ग पर खाने-पीने की वस्तुओं की बिक्री करने वाले किसी भी व्यवसायी को अपने नाम का खुलासा करना होगा। यशवीर जी महाराज के बारे में जो जानकारी मिली है, उसके मुताबिक वे यशवीराश्रम बाघरा के संस्थापक और निदेशक होने के साथ-साथ 2021 में 15 मुस्लिमों को हिंदू धर्म में घर वापसी कराने के लिए जाने जाते हैं।
इससे पहले 7 जुलाई को उत्तर प्रदेश में राज्य मंत्री कपिल देव अग्रवाल, जो खुद भी मुजफ्फरनगर से हैं, ने भी कुछ ऐसा ही विवादास्पद बयान दिया था। कांवड़ यात्रा के प्रबंध का जायजा लेते हुए मंत्री कपिल देव अग्रवाल ने मीडिया के साथ अपनी बातचीत में कहा था कि, “मुस्लिम वर्ग लोग हिंदू देवी देवताओं के नाम और फोटो का प्रयोग करके इसका संचालन कर रहे हैं। इससे कावड़िया और सनातन धर्म को मानने वाले लोग वैष्णो ढाबा समझकर खाना खाते हैं। यात्रा के दौरान कावड़ियों को मीट-मसाले से लेकर लहसुन और प्याज तक खाना परहेज होता है। ऐसे में उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं। इसलिए किसी झगड़े और विवाद से बचने के लिए सभी मुस्लिम ढाबा संचालक को अपना नाम बाहर लिखना चाहिए।”
इसी के मद्देनजर, मुजफ्फरनगर एसएसपी अभिषेक सिंह ने एक प्रेस वार्ता के दौरान यह स्वीकारा किया कि, “हमारे जनपद में 240 किमी का कांवड़ रूट है, उसमें पुलिस प्रशासन ने जितने भी खानपान की दुकानें, जिसमें होटल ढाबे या ठेले पर बिक्री की जाती है, के मालिक और काम करने वालों के नाम जाहिर किये जाने के निर्देश दे दिए गये हैं, ताकि बाद में कांवड़ियों को किसी प्रकार का कोई कन्फ्यूजन न हो, जो बाद में आरोप प्रत्यारोप और फिर कानून-व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न न हो जाए, इसलिए इसके निर्देश दिए गये हैं, और सभी लोग इसका स्वेच्छा से पालन कर रहे हैं।”
आखिर यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? क्या धार्मिक आयोजनों के बहाने राज्य सरकार हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज करना चाहती है? क्या किसी भी देश में उसके नागरिकों को अपने व्यवसाय को जारी रखने के लिए खरीददारों को अपनी पहचान बताना अनिवार्य नियम है? क्या इसके माध्यम से जानबूझकर कांवड़ियों को कोई संदेश देने की कोशिश की जा रही है? क्या यह समस्या सिर्फ मुजफ्फरनगर जिले तक ही सीमित थी, जिसको लेकर हिंदू संत समाज, राज्य मंत्री और जिला प्रशासन को ऐसा फैसला लेना पड़ा? या इस एक जिले की मिसाल पर देशभर में इसी तरह से मुस्लिम व्यवसायियों की पहचान कराकर उनके आर्थिक बहिष्कार के लिए जमीन तैयार की जा सकती है?
ये सभी प्रश्न गंभीर हैं, और पिछले दस वर्षों में रह-रहकर उठ रहे हैं। मुज़फ्फरनगर के संदर्भ में विशेषकर, क्योंकि 2013 के हिंदू-मुस्लिम दंगे की पृष्ठभूमि में 2014 लोकसभा चुनाव हुए, जिसका भरपूर चुनावी लाभ भाजपा को उत्तर प्रदेश में हासिल हुआ। इस बार पूर्व केन्द्रीय मंत्री तक अपनी लोकसभा सीट नहीं बचा सके। महंगाई और बेरोजगारी से जूझता देश हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को पीछे छोड़ रोजीरोटी और सम्मान की जिंदगी जीने की और मुड़ गया, जिसका नतीजा भाजपा को अल्पमत सरकार के तौर पर भुगतना पड़ रहा है।
लेकिन असल मुद्दों को संबोधित कर 140 करोड़ लोगों को एक बार फिर अपने पक्ष में गोलबंद करने के बजाय भाजपा को कहीं न कहीं यह लगता है कि उसके पास न तो इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, और न ही घाटे की खेती में बर्बाद हो रहे किसानों और खेत मजदूरों की एमएसपी और लाभाकारी मूल्य की मांग को ही पूरा कर पाना संभव है। इन पर अमल करने की दिशा में बढ़ते ही भारत की मौजूदा अर्थनीति की दशा-दिशा पूरी तरह से उलट सकती है, जो पूरी तरह से कॉर्पोरेट, यहाँ तक कि चंद बड़े व्यावसायिक घरानों के हितों के लिए पूरी तरह से अनुकूलित हो चुकी है। ये घराने आज के दिन इतने ताकतवर हो चुके हैं कि किसी भी शासन को कुछ समय के भीतर ही अपदस्थ करने की ताकत रखते हैं। अब जिनके आशीर्वाद से यह सब मिला है, और उनकी सेवा करते रहने से शासन और मीडिया पर दबदबा बना रहता है, तो कोई इससे पंगा भला क्यूँ ले?
यह अनायास ही नहीं है कि भाजपा के विभिन्न राज्यों में कुछ इसी तरह की खबरें लगातार आनी शुरू हो चुकी हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा राज्य में बढ़ती मुस्लिम आबादी को लेकर गंभीर चिंता जता रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी सीधे-सीधे पीएम नरेंद्र मोदी के नारे, सबका साथ, सबका विकास के आह्वान को नाकाफी बताते हुए ऐलान कर रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय से दूरी बनाकर रहने में ही भलाई है। हाँ, हरियाणा और महाराष्ट्र फिलहाल इसका अपवाद बने हुए हैं, क्योंकि यहाँ पर जल्द ही विधान सभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में मतदाताओं को रिझाने के लिए लगभग रोज ही एक न एक घोषणाएं की जा रही हैं।
विपक्ष ने भी इस मामले पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी है। कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने इस मुद्दे पर देश के सभी सही सोच रखने वाले नागरिकों को आगे आकर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने का आह्वान किया था। आज एक बार फिर उन्होंने अपने सोशल मीडिया हैंडल से लिखा है, “कांवड़ यात्रा के रूट पर फल सब्ज़ी विक्रेताओं व रेस्टोरेंट ढाबा मालिकों को बोर्ड पर अपना नाम लिखना आवश्यक होगा।
यह मुसलमानों के आर्थिक बॉयकॉट की दिशा में उठाया कदम है या दलितों के आर्थिक बॉयकॉट का, या दोनों का, हमें नहीं मालूम।
जो लोग यह तय करना चाहते थे कि कौन क्या खाएगा, अब वो यह भी तय करेंगे कि कौन किस से क्या ख़रीदेगा? जब इस बात का विरोध किया गया तो कहते हैं कि जब ढाबों के बोर्ड पर हलाल लिखा जाता है तब तो आप विरोध नहीं करते। इसका जवाब यह है कि जब किसी होटल के बोर्ड पर शुद्ध शाकाहारी भी लिखा होता है तब भी हम होटल के मालिक, रसोइये, वेटर का नाम नहीं पूछते।
किसी रेहड़ी या ढाबे पर शुद्ध शाकाहारी, झटका, हलाल या कोशर लिखा होने से खाने वाले को अपनी पसंद का भोजन चुनने में सहायता मिलती है। लेकिन ढाबा मालिक का नाम लिखने से किसे क्या लाभ होगा?
भारत के बड़े मीट एक्सपोर्टर हिंदू हैं। क्या हिंदुओं द्वारा बेचा गया मीट दाल भात बन जाता है? ठीक वैसे ही क्या किसी अल्ताफ़ या रशीद द्वारा बेचे गए आम अमरूद गोश्त तो नहीं बन जाएँगे।”
इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई लिखते हैं, “एक ऐसी कहानी जिसने सबका ध्यान खींचा: अब, कांवड़ यात्रा मार्ग पर यूपी में खाद्य पदार्थ बेचने वालों/ठेले वालों को पुलिस ने सख्त निर्देश दिए हैं कि वे अपने ठेले/दुकानों/रेस्तरां पर अपना नाम लिखें। असल में, यह एक संकेत है कि मुसलमानों के स्वामित्व वाली दुकानों से कोई खाद्य पदार्थ नहीं खरीदा जाएगा! दक्षिण अफ्रीका में, ऐसी प्रथाओं को कभी ‘रंगभेद’ की परिभाषा दी जाती थी। सबका साथ, सबका विकास कोई है?”
मशहूर लेखक और स्क्रिप्ट राइटर, जावेद अख्तर के अनुसार, “मुजफ्फरनगर यूपी पुलिस ने निर्देश दिया है कि निकट भविष्य में किसी विशेष धार्मिक जुलूस के मार्ग पर सभी दुकानों, रेस्तराओं और यहां तक कि वाहनों पर मालिक का नाम प्रमुखता से और स्पष्ट रूप से दर्शाया जाना चाहिए। क्यों? नाजी जर्मनी में वे केवल विशेष दुकानों और घरों पर ही निशान बनाते थे
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी उत्तर प्रदेश सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कुछ जरुरी प्रश्न किये हैं, “… और जिसका नाम गुड्डू, मुन्ना, छोटू या फत्ते है, उसके नाम से क्या पता चलेगा?
माननीय न्यायालय स्वत: संज्ञान ले और ऐसे प्रशासन के पीछे के शासन तक की मंशा की जाँच करवाकर, उचित दंडात्मक कार्रवाई करे। ऐसे आदेश सामाजिक अपराध हैं, जो सौहार्द के शांतिपूर्ण वातावरण को बिगाड़ना चाहते हैं।”
एआईएमआईएम अध्यक्क्ष, असदुद्दीन ओवैसी ने भी सवाल किया है, “उत्तर प्रदेश पुलिस के आदेश के अनुसार अब हर खाने वाली दुकान या ठेले के मालिक को अपना नाम बोर्ड पर लगाना होगा ताकि कोई कांवड़िया गलती से मुसलमान की दुकान से कुछ न खरीद ले। इसे दक्षिण अफ्रीका में अपारथाइड कहा जाता था और हिटलर की जर्मनी में इसका नाम ‘Judenboycott’ था।”
निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश सरकार को अंदाजा नहीं रहा होगा कि तमाम हलकों से उसे इतने कड़े प्रतिवाद का सामना करना पड़ेगा। अभी तक किसी भी प्रतिवाद को जमींदोज कर देने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आज विपक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले नागरिकों की तुलना में अपने ही घर में बुरी तरह से घिरे हुए हैं। पिछले दो दिनों में उन्होंने अपनी सार्वजनिक छवि को दुरुस्त करने पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है। लखनऊ में 5 लाख से अधिक शिक्षकों के ऑनलाइन हाजिरी के खिलाफ चल रहे धरने और कुकरौल नाले से सटी बस्तियों को जमींदोज करने के आदेश को फ़िलहाल स्थगित कर योगी आदित्यनाथ ने अपने बदले सुर का परिचय दिया था। लेकिन क्या वे कांवड़ियों के नाम पर एक खास धर्म के नागरिकों को निशाना बनाये जाने की अपनी मुहिम को भी ख़ारिज कर अपने मुकम्मल बदलाव का सुबूत देंगे, या इसी प्रकार की विभाजनकारी राजनीति को सिरे चढ़ाकर भाजपा-संघ के भीतर अपने लिए सुरक्षित कोना ढूँढने की फ़िराक में हैं?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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