बड़गांव, उदयपुर। महीने की पहली से तीन तारीख के बीच राशन मिल जाता है। यदि कभी लेट होता है तो मेरे पोता और पोती राशन डीलर से नहीं मिलने का कारण पूछते हैं। मुझे तो कुछ नहीं पता है लेकिन मेरे घर की नई पीढ़ी बहुत जागरूक है। बच्चों ने राशन से संबंधित सभी दस्तावेज़ जमा करा रखा है। इसलिए हमारा राशन नहीं रुकता है। अब तो मेरी पेंशन भी समय पर मिलने लगी है। सरकार की बहुत सारी योजनाओं का लाभ इन बच्चों के कारण मिलने लगा है। वह योजनाओं के बारे में पढ़ते हैं और फिर पंचायत कार्यालय में जाकर उसे शुरू कराने का आवेदन देते हैं।” यह कहना है 76 वर्षीय अम्बा बाई का, जो राजस्थान के उदयपुर जिला स्थित लोयरा गांव की रहने वाली है।
ऐतिहासिक नगरी उदयपुर से मात्र 8 किमी की दूरी पर आबाद यह गांव बडग़ांव तहसील के अंतर्गत आता है। अनुसूचित जनजाति बहुल इस गांव की जनसंख्या करीब 2500 है। गांव में 550 मकानों में कुछ ओबीसी से जुड़े डांगी समुदाय के साथ-साथ कुछ घर लोहार, जाट, सुथार और उच्च जातियों की भी है। उदयपुर शहर से करीब होने का प्रभाव गांव में साफ़ नज़र आता है। कुछ कच्चे मकानों को छोड़कर अधिकतर मकान पक्के बनने लगे हैं। हालांकि आर्थिक रूप से अभी भी यह गांव कमज़ोर नज़र आता है।
ओबीसी और सामान्य जातियों के लोग जहां कृषि, व्यवसाय और पशुपालन करते हैं वहीं अनुसूचित जनजातियों से जुड़े अधिकतर परिवार के पुरुष सदस्य उदयपुर शहर के आसपास संचालित मार्बल फैक्ट्रियों में लेबर वर्कर के रूप में काम करते हैं। कुछ दैनिक मज़दूर के रूप में भी काम करते हैं। वहीं कुछ परिवार के पुरुष सदस्य अहमदाबाद, सूरत और बेंगलुरु के फैक्ट्रियों में काम करने जाते हैं। जबकि घर की महिलाएं शहर के बड़े घरों में घरेलू सहायिका के रूप में काम कर परिवार की आर्थिक सहायता करती हैं।

आर्थिक रूप से लोयरा गांव भले ही कमज़ोर हो, लेकिन सामाजिक और शैक्षणिक रूप से यह गांव पहले की अपेक्षा अधिक विकसित होने लगा है। यही कारण है कि गांव में सरकारी योजनाओं के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ने लगी है और वह इसका अधिक से अधिक लाभ भी उठाने लगे हैं। गांव की नई पीढ़ी में शिक्षा का स्तर बढ़ा है। अनुसूचित जनजाति समुदाय के लड़के और लड़कियां भी 12वीं तक शिक्षा प्राप्त करने लगी हैं। शिक्षा के बढ़ते स्तर ने गांव में जागरूकता को बढ़ाने का भी काम किया है। इसकी मिसाल खाद्य सुरक्षा के तहत गांव में मिलने वाली जन वितरण प्रणाली का लाभ है। इस संबंध में 45 वर्षीय शिवलाल कहते हैं कि वह स्वयं 12वीं पास हैं और बेंगलुरु जाकर मार्बल फैक्ट्री में काम करते हैं। लेकिन गांव में सरकार द्वारा दी जाने वाली लगभग सभी योजनाओं की न केवल उन्हें जानकारी है बल्कि उनका परिवार इसका लाभ भी उठाता है। वह बताते हैं कि “पहले के समय में राशन डीलर कुछ बहाना करके हमें राशन से वंचित कर देता था। लेकिन अब शिक्षा और जागरूकता के कारण ऐसा संभव नहीं है। अब राशन नहीं मिलने पर हम उससे सवाल करते हैं। पंचायत कार्यालय जाकर जानकारियां प्राप्त करते हैं। मैं जब घर पर नहीं होता हूं तो मेरे बच्चे यह काम करते हैं। इसलिए अब समय पर हमारा राशन मिल जाता है।”
गांव की 70 वर्षीय बुज़ुर्ग तारु बाई कहती हैं कि “अब हमारे समुदाय की 55 प्रतिशत लड़कियां 12वीं तक पढ़ने लगी हैं। इसीलिए उन्हें सभी योजनाओं की जानकारियां हैं। घर में बच्चों के पढ़ने के कारण ही मेरी वृद्धा पेंशन शुरू हो सकी है। उन्होंने ही मेरे सारे कागज़ात जमा कराये। जबकि हमारे समय में लड़कियों के पढ़ने का कोई रिवाज नहीं था। इसलिए हमें किसी सरकारी योजनाओं के बारे में कुछ पता नहीं होता था। कभी किसी से किसी योजना का नाम सुना और जब उसके बारे में पंचायत में पता भी किया तो कोई ठोस जवाब नहीं मिलता था। लेकिन अब नई पीढ़ी सभी योजनाओं के बारे में जानने लगी है। उन्हें यह भी पता है कि इसका लाभ उठाने के लिए कौन सा फॉर्म भरने की आवश्यकता है।” तारु बाई बताती है कि “गांव का अधिकतर अनुसूचित जनजाति परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर है। अधिकतर परिवारों के पास इतने पैसे नहीं है कि वह कोई व्यवसाय कर सकें और न ही इतनी ज़मीन है कि वह उस पर खेती या सब्ज़ी उत्पादन कर सकें। नई पीढ़ी पढ़ने तो लगी है लेकिन नाममात्र लोग ही नौकरी करते हैं। इसीलिए इस समुदाय के ज़्यादातर सदस्य मज़दूरी या फैक्ट्रियों में काम करने जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद शिक्षा के प्रति नई पीढ़ी में उत्साह है।”

55 वर्षीय सुंदर बाई बताती हैं कि “मेरे 5 बच्चे हैं और सभी स्कूल जाते हैं। बड़ी बेटी पिछले वर्ष 12वीं पास की है और अब प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रही है। मुझे अपनी बेटी के माध्यम से पता चला कि सरकार हमारे समुदाय के उत्थान के लिए बहुत काम करती है। ऐसी बहुत सारी योजनाएं हैं जिसका लाभ उठा कर हम अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोग विकास कर सकते हैं। मेरी बेटी ने भी इसका लाभ उठाते हुए स्कॉलरशिप प्राप्त किया है। मैं और मेरे पति पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिए पहले राशन डीलर किसी न किसी कागज़ की कमी बता कर हमारा राशन रोक देता था। लेकिन जब मेरी बेटी ने जाकर उससे बात की और खुद से सरकारी वेबसाइट पर सारे कागज़ात भरे, इसके बाद से हमारा राशन कभी नहीं रुका है। हमें ख़ुशी है कि हमारे बच्चे पढ़ लिख कर जागरूक हो गए हैं और अपने अधिकारों को पहचानने लगे हैं। इसीलिए समुदाय के अधिकतर लोग सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने लगे हैं। हालांकि हमारे समुदाय के नाममात्र बच्चे ही सरकारी नौकरियों में हैं। लेकिन मुझे लगता है कि जिस प्रकार बच्चों में पढ़ने लिखने का रुझान बढ़ा है और उनमें जागरूकता आई है, उससे वह भी जल्द ही सरकारी नौकरी में भर्ती होने लगेंगे।”
हालांकि इसी गांव में मांगी लाल और तुलसीराम का परिवार भी है जो खाद्य सुरक्षा के तहत जन वितरण प्रणाली का लाभ उठाने से वंचित है। मांगी लाल के पुत्र भूपेंद्र 12 वीं पास है। उनका कहना है कि उनके परिवार में 7 सदस्य हैं। पिछले वर्ष उनका राशन BPL से APL में कर दिया गया। जिससे उन्हें राशन मिलना बंद हो गया है। इसके लिए वह लगातार ई-मित्र से बात कर रहे हैं। वहीं तुलसीराम कहते हैं कि कुछ दस्तावेज़ की कमी के कारण उनके परिवार को राशन नहीं मिल रहा है। जिसे वह जल्द ठीक कराने का प्रयास कर रहे हैं। बहरहाल, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के बढ़ते प्रसार ने लोयरा गांव के अनुसूचित जनजाति समाज को भी जागरूक बना दिया है। जिसका परिणाम है कि पिछड़ा समझे जाने वाले इस समुदाय की भी सरकारी योजनाओं तक पहुंच बढ़ने लगी है।
(उदयपुर से मोहन लाल गमेती की ग्राउंड रिपोर्ट।)
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