चन्दौली, उत्तर प्रदेश। बाल श्रम अपराध है, लेकिन ईंट भट्टों में बाल श्रम बेहिसाब जारी है। एक ओर जहां समूचे भारत में आजादी का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा है। वहीं, देश के एक करोड़ से अधिक बच्चे खेलने और स्कूल जाने की उम्र में दिहाड़ी मजदूरी को मजबूर हैं।
मसलन, भट्ठों में काम करने वाले बच्चों का भविष्य ईंट भट्ठों की चिमनी में सुलग रहा है। केंद्र व राज्य प्रशासन द्वारा इन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश सिर्फ कागजों में दिखाई पड़ती है।

ये 6-14 साल तक के ये बच्चे ईंट-भट्टों में लगातार 10-12 घंटे जी-तोड़ मेहनत करते हैं। इसके एवज में परिवार की आमदनी में बमुश्किल से एक दिन में 100-150 रुपए जोड़ पाते हैं। इससे बाल श्रम, चाइल्ड राइट, मानवाधिकार के दावे यहां चिमनी के धुएं में उड़ते नजर आते हैं।
पेश है पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।
उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद में सुबह के साढ़े दस बज रहे हैं। सिर पर सीधी धूप गिर रही है। हवा की गति न होने से उमस का माहौल। भट्ठे के पास में मिट्टी के ऊंचे टीले के नीचे खाई वाले खेत में सांचे से ईंट बना रहे राजेश, सुबह सात बजे से जुटे हैं। आगामी एक घंटे में वह काम बंद कर खाना खाने चले जायेंगे।
राजेश “जनचौक” को बताते हैं “मैं, पत्नी और बच्चे के साथ अब तक 300 ईंट बना चुका हूं। भोजन कर के दोपहर के बाद पथाई (सांचे से ईंट बनाना) में कोशिश करूंगा कि, कुल एक हजार ईंट बना दूं। जिससे की 700 रुपए की कमाई हो जाए। (ईंट भट्ठे में प्रति 1000 बनाने पर मजदूर को 700 रुपए मिलते हैं)। मैं अब 50-52 वर्ष का हो गया हूं, अकेला पथाई करूंगा तो आधे ईंट भी नहीं बना पाऊंगा।”
उत्तर प्रदेश सबसे अधिक बाल मजदूर
भारत में बाल मजदूरों का सबसे ज्यादा संख्या पांच राज्यों में है। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में हैं। यहां बाल मजदूरों की कुल संख्या लगभग 55 प्रतिशत है। सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तर प्रदेश और बिहार से हैं।

उत्तर प्रदेश में 21.5 फीसदी यानी 21.80 लाख और बिहार में 10.7 फीसदी यानी 10.9 लाख बाल मजदूर हैं। राजस्थान में 8.5 लाख बाल मजदूर हैं।
वाराणसी से 45-50 किलोमीटर पूरब दिशा में बिहार बॉर्डर के आसपास के गांवों में सैकड़ों ईंट भट्ठे की चिमनियों को सहज ही देखा जा सकता है। वाराणसी से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांसद हैं, जो चन्दौली सटा हुआ जिला है। भट्ठों के आसपास बने झोपड़ी-झुग्गीनुमा अस्थाई बसाहट में जीवन खटराग को भी करीब दे देखा और महसूस किया जा सकता है।
ईंट भट्टों पर मजदूरी करने वाले मजदूर झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के होते हैं। राजेश दो दशक से ईंट भट्ठे पर मजदूरी कर रहे हैं। ईंट भट्ठों पर काम करना उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र साधन है।
राजेश के अलावा अन्य कई मजदूर ईंट पाथते मिले, जहां उनके बच्चे भी ईंट पथाई के काम, मिट्टी तैयार करने, ईंट को उलटने-पलटने, इकठ्ठा करने और अन्य कार्यों में सहयोग करते मिले। काम में जुटे बच्चों ने ईंट-भट्टों के परिसर से बाहर की सीमा नहीं देखी है।
इन बच्चों का दायरा ईंट भट्ठे और आसपास की छोटी-मोटी दुकानों तक सिमित है। लगातार 10-12 घंटे तक बच्चे अपने परिवार के साथ ईंट बना रहे हैं। इससे उनका शारीरिक, मानसिक विकास बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है।
जुट्ठीपुर-बेलवनिया गांव के पश्चिम तरफ रोड के उत्तर दिशा में ईंट भट्ठे पर काम करता मिला प्रीतम (बदला हुआ नाम)। जो अपने पिता का हाथ बटाने आया था। प्रीतम कभी-कभार स्कूल जाता है, लेकिन उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता है।

उसके पिता राजेश बताते हैं कि “मेरे अकेले के कमाने से इतनी बेहताशा मंहगाई में घर का खर्चा पाना मुश्किल है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, लेकिन उसे भी ईंट पाथने के काम में सहयोग लेना पड़ता है। अब हमलोगों का पहले की तरह हाथ नहीं चला पता है।
मेरे पास कोई जमीन\भूमि नहीं है। धान की रोपाई-बुआई के बाद कोई काम नहीं रहता है। रोज दिहाड़ी भी नहीं मिलती है। यहां पेट पालने के लिए रोज 200-250 का राशन लगता है। साथ ही अन्य जरूरतें हैं।
यहां भी भट्ठे में रोज के लिए काम\रोजगार तो है, लेकिन मेहनत बहुत है।” (यह कह लेने के बाद राजेश ईंट पाथने के लिए मिट्टी बनाने में जुट गए)
परेवा-नौबतपुर के पास ईंट भट्ठे में 30 साल से ईंट बनाने वाले हीरा वनवासी दोपहर में भट्ठे पर काम करने जा रहे थे। वह बताते हैं “ भट्ठे पर औसतन 250 से 300 मजदूर काम करते हैं। ईंट निकासी और पथाई सीजन में मजदूरों की संख्या बढ़ जाती है। इधर क्षेत्र में पचास से अधिक ईंट भट्ठे हैं।

हमलोग चाहकर भी बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। दुनिया बदल तो रही है, लेकिन ईंट भट्ठा मजदूरों की स्थिति-परिस्थिति को छोड़कर सब कुछ बदल रहा है। भट्ठों में यहां कोई इलाज, स्वास्थ्य जांच, दवा, पोषण, शिक्षा, सुरक्षा, अधिकार आदि की जानकारी-सहयोग करने कोई नहीं आता है।
भट्ठों में मजदूरों के झोपड़ियों में न तो पर्याप्त रोशनी की सुविधा है और न ही शौचालय\नहानघर और साफ़ पेयजल के साधन की व्यवस्था है।”
हीरा आगे कहते हैं “वनवासी और आदिवासी तबके के बच्चों का भविष्य भी ईंट भट्ठे में काम करके चौपट हो रहा है। (बच्चों की ओर इशारा करते हुए) इन बच्चों को राह चलते कौन नहीं देख रहा है, लेकिन फ़िक्र है किसी को? ये बच्चे, ईंट पथाई में रोजाना 4 से 5 घंटे काम करते हैं।

खाना या पोषण के नाम पर आधा पेट चावल-सब्जी। इससे ज्यादा भोजन देना हमलोगों के सामर्थ्य में नहीं है। हमलोगों की तरह ये बच्चे भी मजदूर ही रह जाएंगे। कमजोर स्वास्थ्य और अशिक्षा का रोग अलग से।”
बच्चों के लिए ना आंगनबाड़ी ना शिक्षा
चंदौली जनपद में तकरीबन सौ से अधिक की तादात में ईंट भट्ठे हैं। इन ईंट-भट्टों पर काम करने वाले इन बच्चों ने कभी स्कूल नहीं देखा। इन बच्चों की पढाई-लिखे, खेल-कूद जगना और सोना सबकुछ ईंट बनाना ही है। भट्ठों को फूंके जाने (कोयला या अन्य खर-पतवार डालकर ईंट पकने की शुरुआत), पथाई और निकासी के दौरान बच्चों को कई तरह के काम करने पड़ते हैं।

प्रीतम, छोटू और नीलम ( सभी के बदले हुए नाम) के साथ आस-पास के सभी ईंट-भट्टों के बच्चे भी माता-पिता के साथ ईंट थापने, सुखाने और मिट्टी हटाने का काम करते हैं।
बीते 30 साल से ईंट-भट्टा मजदूरों के साथ काम कर रहे हीरा वनवासी इसे भट्टा मालिक और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही कहते हैं।
मर जाते हैं भविष्य के सपने
चन्दौली जिला अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉक्टर अवधेश कुमार “जनचौक” से कहते हैं कि “कम उम्र में बड़ी जिम्मेदारी मन-तन के विकास और संतुलन को प्रभावित करती है। क्षमता से ज्यादा काम करने का असर बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर सीधे तौर पर पड़ता है।

वहीं, जिस माहौल में बच्चे काम करते हैं, उसका असर भी बच्चों के शारीरिक, मानसिक विकास पर पड़ता है, जो बच्चों के स्मृति पटल पर हमेशा के लिए छप जाता है।
ये बच्चे अपने आगामी सालों में इन बुरी और कठिन यादों से पीछा नहीं छुड़ा पाते। मालिकों\मजदूर अभिभावकों की चार पैसे कमाने की ललक में बच्चों का पोषण भी नहीं हो पाता। उचित पोषण नहीं मिलाने से उनका शारीरिक विकास आम बच्चों की तरह नहीं हो पाता है।
जिस समय में बच्चों का बौद्धिक विकास होता है, उस समय में ईंट-भट्टों पर काम करने वाले बच्चे कड़ी मेहनत कर रहे होते हैं। ऐसे में ये बच्चे बाहरी दुनिया से एकदम से कटे होते हैं। मजबूरी में अपना पूरा बचपन मजदूरी में गुजार देने से बच्चों की मनस्थिति को नकारात्मक चोट पहुंचती है। इससे भविष्य के लिए उनके सपने मर जाते हैं।”
शिक्षा से दूरी, संविधान का भी उल्लंघन
देश में बच्चों को शिक्षा नहीं मिलना संविधान का भी उल्लंघन है। संविधान का आर्टिकल 21अ और आर्टिकल 45, 6-14 साल तक के बच्चों को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान देता है, लेकिन ईंट-भट्टों पर काम करने वाले बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। यह स्थिति सिर्फ यूपी, चंदौली नहीं बल्कि पूरे देश में है।

एक करोड़ से अधिक बच्चे मजदूर
भारत की जनगणना 2011 के अनुसार देश में 5-14 वर्ष की आयु के कुल बच्चों संख्या लगभग 25.6 करोड़ है। यानी देश की कुल आबादी का 3.9 फीसदी बच्चे हैं। जिसमें 5-14 साल तक के एक करोड़ से अधिक बच्चे किसी ना किसी तरह मजदूरी में शामिल हैं। इसमें से 0.560 करोड़ (5.6 मिलियन) लड़के और 0.45 करोड़ (4.5 मिलियन) लड़कियां हैं।
बाल श्रम कराने की सजा
कोई भी व्यक्ति अगर 14 साल से छोटे बच्चे से अगर काम कराता है, तो उसके खिलाफ बाल श्रम के खिलाफ महत्वपूर्ण कानूनों में भारतीय दंड संहिता 1860, बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976, बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986, किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2000 के तहत कार्रवाई हो सकती है।
वहीं 14 वर्ष से कम आयु या 14 से 18 वर्ष की आयु के बीच के बच्चे को किसी खतरनाक व्यवसाय या प्रक्रिया में नियोजित करता है, तो उसे एक से छह महीने के बीच जेल की सजा या 20,000 से 50,000 के बीच जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है।
शर्मसार करने वाली तस्वीर
वाराणसी स्थित मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक व दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ लेनिन रघुवंशी बताते हैं “आजादी के अमृतकाल में एक बड़ा वर्ग केंद्र और राज्य की दर्जनों कल्याणकारी योजनाओं से वंचित है।

यह सभी को शर्मसार करने वाली तस्वीर है। श्रमिकों के बच्चों को स्कूल, आंगनबाड़ी से जोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए। महिला और बच्चियों के स्वस्थ्य के लिए आशा और अन्य प्रकार के स्वास्थ्य कर्मियों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।”

“भोजन की गारंटी के लिए राशन, आवास, कार्यस्थल पर साफ पेयजल, बाथरूम, शौचालय, रास्ते, काम के घंटों का निर्धारण, मानक के अनुरूप मजदूरी का भुगतान, पेशगी या एडवांस देने वालों पर कानून की नजर, कर्ज के ब्याज के रूप में महीनों काम करने पर रोक आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए।
समय-समय पर कई हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में फैसले दिए हैं, लेकिन जमीन पर उनकी पालन नहीं होता। मेरा मानना है कि कानून को जमीन पर प्रभावी बनाने के प्रयास सरकार को करने चाहिए।”
डॉ लेनिन, हाल के दस वर्षों में ईंट भट्ठे पर बंधुआ मजदूरी करने वाले तकरीबन 4000 से अधिक बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराने व पुनर्वास की व्यवस्था उपलब्ध कराने का दावा करते हैं।
डॉ. लेनिन कहते हैं कि “चूंकि ईंट-भट्टों में काम करने वाले अधिकतर मजदूर झारखंड, बिहार और पड़ोसी जनपदों के होते हैं। इस वजह से इनका आर्थिक शोषण भी होता है। इन मजदूरों की ताकत दूसरे राज्यों में आकर कम हो जाती है। भट्ठों पर बहुत ही कठिन परिस्थितियों में ये मजदूर काम करते हैं।”
(चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)