ग्राउंड रिपोर्ट: चंदौली में चारा संकट और कर्ज से परेशान किसान बेच रहे मवेशी

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चंदौली। कर्मनाशा नदी के सटे करार पर बसे सत्तासी वर्षीय रामवृक्ष निषाद के आंखों की चमक गायब है। हफ्ते भर पहले पहले अपनी सत्तर हजार रुपए की भैंस, चारा-भूसे के संकट की वजह से विवशता में महज चालीस हजार रुपए में बेचना पड़ा। इन दिनों उनके रौबदार चेहरे पर बैंक का कर्ज और मवेशी चारे के कमी की चिंता पसरी हुई है।

लंबे परिवार, खेती-किसानी की जिम्मेदारी, न बराबर आमदनी और जिंदगी के आखिरी पड़ाव की ओर खींचती उम्र ने उन्हें, सिर्फ इस उम्मीद में ठगा है कि अगले बरस से सब ठीक होने लगेगा।

पशुपालन और किसानी से आर्थिक उन्नयन की उम्मीद में रामवृक्ष ने एक के बाद एक कई दशक गुजार दिए। हाथ कोई पूंजी आई नहीं, सिर्फ समूचे परिवार के जीतोड़ परिश्रम के बल पर भरण-पोषण चलता आ रहा है।

स्टॉक के नाम पर सिर्फ एक बोरी भूसा शेष है। इसमें बमुश्किल बीस सेर भूसा होगा, जिसे दो छोटे मवेशी एक पहर में ही चट कर जायेंगे।

अब चुनौती यह है कि ढलती उम्र की स्वास्थ्य समस्या, खेती-किसानी की लागत, पशुपालन और देखभाल पर रोजाना व्यय होने वाली पूंजी और बेहिसाब श्रम, दूध की कम कीमत पर खरीद और आसमान छूते भूसे की कीमत से किसानों के हौसले पस्त होने लगे हैं।

कमोबेश यह समस्या सिर्फ रामवृक्ष निषाद की नहीं, अपितु जिले भर के लाखों मवेशीपालक किसानों के रोजमर्रा के जीवन संघर्ष को बयां करती है। पेश है पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट:

जंगल में चराई के कीचड़ में आराम करती रजिंदर की भैंस

महंगाई की मार से देश के आम नागरिक के साथ मवेशी भी नहीं बच पाए हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपदों में मवेशियों का पेट भरने वाला भूसा 1200-1300 रुपए प्रति क्विंटल तक बिक रहा है। हाल के वर्षों में अचानक बढ़ी भूसे की कीमत ने पशुपालकों को परेशान कर दिया है।

पशुपालकों का कहना है कि गांव-देहात इलाकों में दूध की अच्छी कीमत नहीं मिल रही है। मवेशियों की महंगी होती खुराक से पशुपालकों का बजट बिगड़ने लगा है, जबकि गत वर्ष यही भूसा 900-1000 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा था।

आज गांव-गांव भूसा 1200-1300 रुपए प्रति क्विंटल तक बिक रहा है। महंगे भूसे से पशुपालकों की आमदनी में गिरावट आई है और वे अपने मवेशियों को बेचने शुरू कर दिए हैं।

उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद के मानिकपुर सानी के किसान रामवृक्ष निषाद के पास दो बीघा खुद की जमीन है। वे मालगुजारी पर साढ़े सात हजार रुपए की दर से कुल 75 हजार रुपए में दस बीघे खेती के लिए जमीन लिए हैं।

इसमें से चार बीघे में ज्वार-बाजरा और शेष छह बीघे में धान की फसल की बुआई की है। इतनी खेती के बाद भी पशुपालक रामवृक्ष चारा-भूसे की कमी से परेशान हैं। दिन का उनका चैन कहीं खोया हुआ और रात की नींद हराम है।

चार मवेशियों के लिए कुछ दिन के लिए बचा भूसा

रामवृक्ष “जनचौक” को बताते हैं कि “मेरे पास चार भैंस, दो गाय और 9 बकरियों समेत कुल 15 मवेशी हैं। इनकी देख-रेख में मैं और परिवार के 15 अन्य सदस्य जुड़े हुए हैं। इस समय हर तरफ फसल लगी हुई है। सभी फसलों को हरी होकर पकने में एक महीने -पैंतालीस दिन का समय लगेगा।

इसी बीच मेरे भूसे का स्टॉक समाप्त हो गया है। सुबह जागने से लेकर सोने तक पूरा समय मवेशियों की देखभाल में गुजर रहा है। अभी कुछ दिन पहले सत्तर हजार रुपए की भैंस भूसे की परेशानी की वजह से 40 हजार रुपए में ही बेचना पड़ा। नहीं बेचता तो फसल के पकने तक आठ-दस हजार रुपए का चारा और खा जाती।”

मानिकपुर में कर्मनाशा नदी की बाढ़ से नष्ट हुई रामवृक्ष की फसल

वह आगे कहते हैं “ गांव में ही लगभग एक किमी दूर एक किसान की अगाही धान की फसल पक गई है। बहु-बेटा खाना बनाने और बच्चों को स्कूल भेजकर धान कटाने जाते हैं, फिर उसे टेम्पो पर लादकर घर ले आते हैं। उसका चारा मशीन से चारा बनाते हैं।

इससे इसी दिन शाम और अगली सुबह के लिए चारे की व्यवस्था हो पाती है। यह करने में चार से पांच घंटे का समय लग जाता है। यह हमलोगों का रोज का काम है। इस सबसे आमदनी कुछ नहीं हुई, लेकिन रोजाना परिवार के पांच-छह लोगों का समय नष्ट हो रहा है।“

पशुपालन घाटे का सौदा

आमदनी और मुनाफे के सवाल पर रामवृक्ष के बेटे संजय निषाद बताते हैं “ 70-80 हजार रुपए में खेत मालगुजारी पर लेते हैं। इसमें 60-70 हजार की लागत से खाद, बीज, जुताई, सिंचाई, मजदूर, रोपाई-कटाई और कीटनाशक पर खर्च हो जाती है। इसके लिए कई बार कर्ज भी लेना पड़ता है।

मैं दो भैंसो का 6 लीटर दूध, 40 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बेचता हूं। यानी मोटी-मोटा रोजाना 500 रुपए की आय। इसमें से मवेशियों की खुराक में खली-चुन्नी, राशन, गेहूं का दरुआ, गेहूं का आटा, भूसा, हरा चारा, मवेशी पालन में जुड़े 12-15 लोगों के श्रम की मजदूरी निकाली जाए तो क्या हाथ आएगा?

सभी किसान घाटा सहकर पशुपालन कर रहे हैं। जिस हिसाब से दूध देने वाली मवेशियों की खुराक की लागत है, उस हिसाब से दूध की कीमत नहीं मिलती है। गांव में बेक़ारी और बेरोजगारी है। सच कहिये तो खेती-किसानी और पशुपालन अब मुनाफा नहीं देने वाली।

आसमान छूती महंगाई और बेहिसाब लागत से हमलोगों के हौसले पस्त होने लगे हैं। हमलोग अपने बच्चों से खेती-पशुपालन नहीं कराएंगे। उन्हें पढ़ाएंगे और मास्टर-अधिकारी बनाएंगे।”

शेष एक बोरे भूसे को दिखाते संजय

स्टॉक के नाम यही एक बोरा भूसा

संजय आगे कहते हैं “भूसे की कमी की वजह से पिताजी को दिन भर मवेशियों को चराई कराना पड़ता है। चार लीटर दूध तो परिवार में ही खप जाता है। दूध की बिक्री से कोई काम नहीं हो पाता है। जो पैसा आता है, राशन और भूसे में खप जाता है। साल 2023 में 1000 रुपए भूसा खरीदना पड़ा था।

इस साल 1100-1200 रुपए प्रति क्विंटल की दर से अब तक पांच क्विंटल भूसा खरीद का मवेशियों को खिला चुका हूं। स्टॉक के नाम यही एक बोरा भूसा शेष है, जो आज (मंगलवार) दोपहर में ही समाप्त हो जाएगा।”

कौड़ी के भाव बिक गए बैल

संजय अपने किशोरवय समय को याद कर कहते हैं कि “पहले बाबूजी मजबूत और डील-डौल वाले बैल भी रखे हुए थे, लेकिन ट्रैक्टर-मशीन के आने की वजह से हमारे बैल कौड़ी के भाव बिक गए।

इस साल के खरीफ सीजन में ज्वार, बाजरा और सब्जी लगाए हुए थे, लौटते मानसून के दौरान उफनाई कर्मनाशा नदी ने सभी फसल को डुबो दिया। सात दिनों से अधिक जल जमाव होने से सभी फसल डूबकर नष्ट हो गई। किससे कहने जाए… अपनी पीड़ा …कौन सुनने वाला है ?”

मुआवजा खेतिहर किसानों को मिले

आगे कहते हैं “पड़िया को पालकर, भैंस बेचने से कुछ मोटी रकम हाथ लगती है, इससे बच्चों की फ़ीस, दवा-इलाज, कर्ज चुकाने और अगली फसल के लिए कुछ पूंजी की व्यवस्था हो पाती है। हमलोग कई दशक से मालगुजारी पर खेत लेकर खेती करते हैं।

कई बार फसल कीटों के हमले और मौसम की वजह से मारी जाती है, लेकिन उसका मुआवजा हमें नहीं मिलता। फसल हमारी ख़राब होती है, लेकिन मुआवजा या प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की राशि भूस्वामी को मिलती है।

बीमारी से बचत भी ख़त्म

गरीब, मजदूर और बंटाईदार किसानों पर केंद्र व राज्य सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा बढ़ती महंगाई और तकनीक से लैस होती दुनिया में हमारे जैसे किसान बहुत पिछड़ जायेंगे। पशुपालन से तो नुकसान और तनाव किसी से छिपा नहीं है।

पहले पशुओं को गलघोंटू और संक्रामक बीमारी का टीका लगता था, लेकिन इस साल वह भी नहीं लगा। इस वजह से दो मवेशी बीमार पड़ गए थे, इनके इलाज में बचत के दस हजार रुपए से अधिक खर्च हो गया। साथ में हमलोग परेशानी उठाये सो अलग से।”

बरहनी क्षेत्र के किसान नेता रामविलास मौर्य

उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद में लाखों पशुपालक किसान इन दिनों ऐसे मर्ज से परेशान हैं, जो सहज दिखाई तो नहीं दे रहा, लेकिन जानकारी जुटाने पर वे परेशानियों के भंवर में घिरे हुए हैं। बरहनी विकासखंड के किसान नेता रामविलास मौर्य भी चारे की कमी से चिंतित है।

पिछले साल एक ट्रैक्टर-ट्रॉली भूसा बिहार से 1000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से मंगवाए थे। साल 2023 की रबी सीजन में गेहूं की मड़ाई के बाद भूसे का स्टॉक कम लगने पर भूसा बनाने वाली ट्रैक्टर गाड़ी से तकरीबन 1800 रुपए का भूसा भी बनवाये थे। अभी धान की फसल के तैयार होने में एक से डेढ़ महीने का समय है। इनके भूसे स्टॉक ख़त्म होने के कगार पर आ गए हैं।

लागत और मेहनत के मुकाबले नहीं मिल रहा फायदा

रामविलास मौर्य “जनचौक” से कहते हैं “मेरे खाने के लिए भोजन नहीं रहेगा, तो चलेगा। लेकिन चारा-भूसा ख़त्म हो जायेगा, तो बेचारे बेजुबान मवेशी क्या खाएंगे ? एक एकड़ में दोनों सीजन में धान-गेहूं की खेती, जायद में छह विस्वा ज्वार-बाजरे की बुआई और खरीफ में भी इतनी हरे चारे की बुआई करने के बाद भी भूसा संकट आ गया है।

समय पर धान की फसल तैयार नहीं हुई तो विवशता में मुझे अपने मवेशी बेचने पड़ सकते हैं। गाय-बछड़े की खुराक एक-दो किलो से पूरी होगी नहीं, इनको चाहिए भरपेट चारा भूसा, मोटा अनाज, आटा, दरुआ, खली-चुन्नी और सही देखभाल। तब जाकर दुधारू मवेशी कायदे से दूध देंगे।”

श्रम को जोड़ दिया जाए तो हमें मुनाफा कहां है

“मेरे पास तीन गाय और एक बछड़ा है। कुछ दिनों पहले तक दोनों गाय, सुबह और शाम मिलकर 12-13 लीटर दूध देती थीं। तब मैं रोजाना आठ लीटर दूध डेयरी पर 30 रुपए लीटर के भाव से बेचता था, इससे महीने के 7200 रुपए मिलते थे।

चूंकि दुधारू पशु की खुराक बैलेंस हो, इसके लिए दोनों पशुओं में 1200 रुपए में पचास किलो की कम से क़म दो बोरी पशु आहार, एक हजार रुपए की 30-35 किलो तीसी-सरसों की खली, 500 का आटा और 13 लीटर दूध प्राप्त करने के लिए सुबह से लेकर शाम तक किये जाने वाले श्रम को जोड़ दिया जाए तो हमें मुनाफा कहां है ?

खूंटे पर बंधे किसान रामविलास मौर्य के मवेशी

लागू हो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट

“हां, पशुपालन से सिर्फ एक लाभ है, वो है कि हमें दूध परिवार के लिए दोनों बखत के लिए 2-3 किलो दूध खरीदना नहीं पड़ता है। विकासखंड क्षेत्र में 90 फीसदी लोग किसान-खेतिहर आदमी हैं। गांव में कोई रोजगार नहीं है, लिहाजा, हमलोगों का रोजाना दूध खरीद कर पीना नहीं हो पाएगा।

इस वजह से पशुपालन में मुनाफा नहीं होने के बाद भी बैलों की तरह खटते और दूध बेचने से हुई आय अपने मवेशियों पर खर्च कर देते हैं। सरकार से मेरी मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को जल्द से जल्द लागू किया जाए, अन्यथा किसान-पशुपालकों का जीवन दिनों-दिन मुश्किल होता जाएगा।”

बेचनी पड़ी भैंस

चंदौली विकासखंड क्षेत्र स्थित जलालपुर के प्रगतिशील किसान राजनारायण सिंह की गाय को थनाइल रोग हुआ है। वह उसके इलाज में जुटे हैं। मंगलवार को वह “जनचौक” को बताते हैं “भूसे की किल्लत की वजह से कुछ दिनों पहले 60 हजार रुपए में एक भैंस बेचैनी पड़ी। एक स्वस्थ जानवर एक दिन में दोनों वक्त आठ से 10 किलो तक भूसा खा जाता है।

भूसे पर महंगाई इस वर्ष अधिक है। पिछले वर्ष रबी सीजन में काफी भाग-दौड़ के बाद भी मशीन से बनने वाला भूसा नहीं मिल पाया। क्षेत्र में गेहूं का भूसा मिल भी नहीं रहा, मजबूरी में किसान भूसा व्यापारियों से ऊंची कीमत पर भूसा खरीदकर खिलाना पड़ रहा है।”

अपने मवेशियों के साथ चंदौली विकासखंड क्षेत्र के किसान राजनारायण सिंह 

मशीनीकरण चारा कम होने का सबसे बड़ा कारण

वह आगे कहते हैं “मशीनीकरण चारा कम होने का सबसे बड़ा कारण है। कंबाइन से गेहूं कटाने पर भूसा कम बनता है। इसके अतिरिक्त कई बार किसान हार्वेस्टिंग के बाद धान और गेहूं की पराली खेत में जला देता है।

घटती जोत के चलते किसान अब अनाज या फल-सब्जी उगाने को प्राथमिकता देता है। साथ ही साथ वर्षा की कमी, गिरता भूगर्भ जलस्तर और बढ़ती कृषि लागत ने इस वर्ष भूसा की कीमत तीन गुने से भी अधिक बढ़ा दिया है, यह भी एक ठोस कारण है।”

भूसा ख़त्म होते ही जंगल में चराई

इलिया (चकिया) के निवासी पैंसठ वर्षीय रजिंदर चकरघट्टा पुलिस थाने क्षेत्र में समीप लौवारी खुद के समीप जंगल में अपनी 15 भैंस की झुंड से थोड़ी दूर मिले। वह बताते हैं कि “गर्मी और सर्दी भर मेरे मवेशियों के खाने भर का भूसा रहता है।

छह महीने घर पर यानि इलिया अपने गांव में मवेशियों को बांधकर खिलाते हैं, जैसे भूसे का स्टॉक ख़त्म हो जाता है, तो पहाड़ों की ओर मवेशी लेकर चल पड़ते हैं।

कम से कम छह महीने मेरे मवेशी जंगलों में घास चराते हैं और किनारे तिरपाल लगाकर गुजारा करते हैं। रोजाना 18-20 लीटर दूध होता है। इससे खोया बनाकर मुगलसराय ले जाते हैं।”

नौगढ़ के जंगल में भैंस चराने वाले इलिया के रजिंदर

“मेरे जैसे कम से कम जंगलों चराई करने वाले चरवाहों की तादात 500 से अधिक है। ये चरवाहे जमसोती से लेकर सोनभद्र-मिर्जापुर बार्डर तक रोड से लगे जंगलों में आसानी से देखे जा सकते हैं। हमें वॉचर या वन विभाग वाले भी मना नहीं करते हैं।

हां, जंगली जानवरों में भालू, लकड़बग्घा, तेंदुआ, जंगली सूअर आदि के हमले का भय बना रहता है। पशुपालन से बहुत फायदा नहीं है। पेट पालने की मजबूरी में जान जोखिम में डालकर यह करना पड़ रहा है।”

21वीं पशुगणना से समाधान की उम्मीद

उत्तर प्रदेश के पशुपालन एवं डेयरी विकास मंत्री धर्मपाल सिंह ने कहा कि “वर्ष 2019 की पशुगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 190.20 लाख गोवंश, 330.17 लाख भैंस, 9.85 लाख भेड़, 144.80 लाख बकरियां और 4.09 लाख सुअर हैं।

उन्होंने कहा कि पशुगणना हर पांच साल में होती है और इस साल 21वीं पशुगणना सितंबर से दिसंबर 2024 के बीच कराई जाएगी। पशुधन गणना से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण और तर्कसंगत उपयोग से पशुपालन-पशुधन की चुनौतियों के समाधान ढूढने, भविष्य की योजना और नीतियों को बनाने में मदद मिलेगी।”

(पवन कुमार मौर्य चंदौली\वाराणसी के पत्रकार हैं )

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