महराजगंज, बहराइच। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के महराजगंज कस्बे और आसपास के गांवों के लोग भेड़िये के आतंक से अभी उबरे भी नहीं थे कि सांप्रदायिक हिंसा की भयावह घटनाएं हो गईं। इस दंगे में जहां लोगों के दिलों में एक गहरी दरार और अविश्वास को जन्म दिया है, तो दूसरी ओर पुलिस का रवैया भी पक्षपाती रहा।
नतीजा, महराजगंज और इसके आसपास के गांवों को पुलिस ने भय और खौफ में डुबो रखा है। ये स्थितियां एक दर्दनाक असमानता को उजागर करती हैं। लगता है कि बहराइच जिले के तमाम गांवों में सुरक्षा की कमी, डर का गहरा साया, और एक ऐसा अंधेरा जिसमें इंसानियत और भरोसा कहीं खो गया है।
13 अक्टूबर 2024 का दिन महराजगंज के लोगों के लिए एक स्याह रात का आगाज बन गया। दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान सांप्रदायिक तनाव भड़क उठा, जिसमें रामगोपाल मिश्रा की हत्या के बाद हालात बेकाबू हो गए।

पत्थरबाजी और आगजनी से महराजगंज का बाजार लहूलुहान हो गया। मुस्लिम समुदाय के प्रतिष्ठानों पर हमले हुए, कई दुकानें और गाड़ियां आग की लपटों में झुलस गईं। इस भयावह स्थिति में पुलिस और प्रशासन की नाकामी ने कस्बे के लोगों में गहरा असंतोष और दर्द भर दिया।
रामगोपाल मिश्रा की मौत का मातम तो अब भी उसके परिवार पर छाया हुआ है। रामगोपाल की पत्नी रोली का पहला करवाचौथ था, जो उसे हमेशा एक अभिशाप की तरह याद रहेगा।
करवाचौथ की उस रात में जहां औरतें अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए व्रत कर रही थीं, वहीं रोली अपने पति की याद में सिसकियां भर रही थी। रामगोपाल का परिवार आज भी इस दुःख के साये से बाहर नहीं निकल पाया है, और हर रोज़ बस एक ही सवाल उनके मन में गूंजता है, अगर समय पर एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड होती, तो क्या रामगोपाल की जान बच सकती थी?
महराजगंज की गलियों में अब भी एक अजीब सा सन्नाटा पसरा है। लोग एक अनकहे डर में जी रहे हैं, क्योंकि प्रशासन की ओर से 23 घरों पर बुलडोजर कार्रवाई की नोटिसें दी गई हैं, जिनमें अधिकतर घर मुस्लिम समुदाय के हैं। इस कार्रवाई को लेकर पक्षपात के आरोप भी लगाए जा रहे हैं, जिससे सांप्रदायिक दरार और गहरी होती जा रही है।
पुलिस पर पक्षपात का आरोप
बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा के ताजे मामले में जिला पुलिस पर मुसलमानों को निशाना बनाकर कार्रवाई करने के आरोप लग रहे हैं, जिससे स्थानीय मुस्लिम समुदाय में गहरा असुरक्षा और अविश्वास का माहौल बना हुआ है। लोगों का कहना है कि पुलिस की कार्रवाई एकतरफा नजर आ रही है, जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही आरोपी बनाकर गिरफ्तार किया जा रहा है।
इस भय और अविश्वास का एक बड़ा कारण पुलिस द्वारा बाजार में लगे सीसीटीवी कैमरों के डीवीआर को जब्त करना और सारा डाटा डिलीट कर देना है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि पुलिस ने ऐसा इसलिए किया ताकि बाजार में हुई हिंसा और उपद्रव की असली तस्वीरें सामने न आ सकें।
इससे पुलिस पर लगे आरोप और अधिक मजबूत हो गए हैं कि वह हिंसा में शामिल वास्तविक दंगाइयों को बचाने का प्रयास कर रही है और अपनी कार्यवाही को साफ-सुथरा दिखाने का प्रयास कर रही है।

महराजगंज में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद मुसलमानों के बीच डर और असुरक्षा का माहौल गहराता जा रहा है। पुलिस की एकतरफा कार्रवाई के चलते वे खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और प्रशासन पर उनका भरोसा टूटता जा रहा है।
पुलिस की निष्पक्षता पर उठ रहे ये सवाल समाज में अविश्वास की एक गहरी खाई को जन्म दे रहे हैं। साथ ही पुलिस नीति और नीयत पर भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई ऐसे बिंदु हैं जो पुलिस को कटघरे में खड़ा करते हैं।
1. भीड़ नियंत्रण की योजना का अभाव: क्या दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान संभावित भीड़ का सही आकलन किया गया था? पहले से जानकारी होने के बावजूद, पुलिस और प्रशासन ने पर्याप्त पुलिस बल की तैनाती क्यों नहीं की?
2. पुलिस की अपर्याप्त मौजूदगी: महाराजगंज बाजार में बवाल के दौरान केवल 10-15 पुलिसवाले क्यों थे? क्या स्थानीय पुलिस थाने से अतिरिक्त पुलिसकर्मी मंगाने की कोशिश की गई?
3. प्रोटोकॉल का पालन न होना: धार्मिक जुलूस के दौरान एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड क्यों नहीं तैनात की गई? क्या एंबुलेंस की कमी के कारण रामगोपाल की जान बचाने में देरी हुई?

4. बवाल का इतिहास और अपर्याप्त तैयारी: बहराइच के दंगों के पुराने इतिहास को देखते हुए, क्या बेहतर सुरक्षा इंतजाम किए जाने चाहिए थे? क्या पर्याप्त फोर्स की व्यवस्था के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से मंजूरी ली गई थी?
5. पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही: भीड़ नियंत्रण और हिंसा रोकने में क्या स्थानीय चौकी इंचार्ज और सीनियर पुलिस अधिकारी जिम्मेदार थे? क्या सीनियर अधिकारियों ने संवेदनशील इलाके में सुरक्षा को लेकर उचित कार्रवाई की?
6. समय पर फोर्स का सही आकलन न होना: क्या जुलूस की परमिशन और अपेक्षित भीड़ का सही अनुमान लगाया गया था? क्या पुलिस और आयोजकों के बीच सुरक्षा को लेकर समन्वय की कमी थी?
7. मुस्लिम आबादी वाले संवेदनशील इलाके से जुलूस गुजरने पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया गया? इस क्षेत्र के सेंसिटिव होने के बावजूद पर्याप्त पुलिस बल तैनात क्यों नहीं किया गया?
8. वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा उचित प्लानिंग का अभाव: क्या स्थिति का सही आकलन कर बाहर से अतिरिक्त फोर्स मंगाई गई थी? क्या जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा इलाके की संवेदनशीलता का ध्यान रखा गया?
पुलिस और एनकाउंटर पर सवाल
बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा के मामले में पुलिस के एनकाउंटर ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। नानपारा क्षेत्र में गुरुवार को हुई इस मुठभेड़ में दो आरोपियों, मोहम्मद सरफराज और मोहम्मद तालीम, के पैरों में गोली लगी। पुलिस का दावा है कि ये एनकाउंटर तब हुआ जब दोनों आरोपी नेपाल भागने की कोशिश कर रहे थे और पुलिस पर गोलियां चलाईं।
इस मुठभेड़ में पुलिस ने मुख्य आरोपी अब्दुल हमीद समेत पांच लोगों को गिरफ्तार किया है, जिन पर रामगोपाल मिश्रा की हत्या का आरोप है। पुलिस का कहना है कि रामगोपाल मिश्रा की हत्या अब्दुल हमीद के घर की छत से इस्लामिक झंडा हटाकर भगवा झंडा फहराने के कारण हुई।
पुलिस का दावा है कि अब्दुल हमीद, उसके बेटे मोहम्मद सरफराज और अन्य आरोपी इस घटना में शामिल थे। वहीं, अब्दुल हमीद की बेटी रुखसार का आरोप है कि स्पेशल टास्क फोर्स (STF) ने उनके पति और भाई को भी हिरासत में लिया है और अब STF उनके परिवार के सदस्यों की जान के लिए खतरा बना हुआ है।
पुलिस का दावा है कि महराजगंज से 53 किमी दूर नानपारा इलाके में मोहम्मद सरफराज और मोहम्मद तालीम ने असलहे छिपा रखे थे। वहां पुलिस से मुकाबला हुआ और प्रचलित एनकाउंटर की तरह पुलिस की गोलियों ने दोनों के पैरों को छेद कर दिया।
बड़ा सवाल यह है कि एनकाउंटर सिर्फ मुसलमानों का ही क्यों हुआ? दंगा भड़काने के लिए असली जिम्मेदार लोगों के पैर क्यों नहीं छेदे गए? क्या यह संभव है कि कोई 53 किमी दूर असलहा छिपाएगा? मजे की बात यह है कि 14 अक्टूबर 2024 को घटना के समय डिप्टी एसपी रुपेंद्र गौड़ दंगाइयों पर टीयर गन नहीं चला पाए, जबकि सरफराज व तालीम पर पुलिस ने ऐसा निशाना साधा कि दोनों के पैर छलनी हो गए। बहराइच जिला पुलिस की कहानी किसी के गले से नीचे नहीं उतर रही है।
इस एनकाउंटर पर कई विपक्षी नेताओं ने कड़ी आलोचना की है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि, “उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर का सहारा केवल सरकार की नाकामी छिपाने के लिए लिया जा रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि अगर एनकाउंटर से कानून व्यवस्था सुधरती, तो उत्तर प्रदेश में इतनी घटनाएं नहीं होतीं।”

कांग्रेस नेता कुंवर दानिश अली ने भी कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा, “उत्तर प्रदेश सरकार फर्जी एनकाउंटर करने में माहिर है, और यह देश कानून व्यवस्था और संविधान से चलता है। उन्होंने आरोपियों को संविधान के तहत सजा मिलने पर जोर दिया।”
AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी ने इसे “ठोक देंगे” नीति का हिस्सा बताया और कहा, “इस एनकाउंटर का सच सामने आना चाहिए। ओवैसी ने इस प्रकार की मुठभेड़ों का महिमामंडन न करने का आग्रह किया।
इस मुठभेड़ के मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा है कि ऐसे अपराधियों को बीच चौराहे पर खत्म कर देना चाहिए, पर उनका जीवित बचना ही बहुत है। उनके इस बयान से एनकाउंटर के प्रति सरकार के कड़े रुख का संकेत मिलता है।”
एनकाउंटर पर बढ़ रहा विवाद
सरफराज व तालीम की गिरफ्तारी से पहले हुए कथित मुठभेड़ के बाद पुलिस की कार्रवाई पर सवाल दर सवाल उठाए जा रहे हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि क्या ये एनकाउंटर जरूरी था, या केवल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया गया था? क्या इस मुठभेड़ को साम्प्रदायिक रंग देकर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है? बहराइच जिला पुलिस क्या इस एनकाउंटर के जरिए निष्पक्षता का परिचय दे रही है या ये एकतरफा कार्रवाई है? पुलिस पर लगे इन सवालों के बीच राज्य में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर भी गंभीर बहस छिड़ गई है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय कहते हैं, “बहराइच में दो मुस्लिम युवकों का एनकाउंटर और पुलिस की गढ़ी हुई कहानी पूरी तरह फर्जी है। वह कहते हैं, “बहराइच हिंसा में पुलिस की एकतरफा कार्रवाई अब केवल स्थानीय घटना नहीं रह गया है, बल्कि इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर देखा जा रहा है। एनकाउंटर के जरिए न्याय प्रणाली को दरकिनार कर त्वरित न्याय का प्रयास किया जा रहा है, जो लोकतंत्र और कानून व्यवस्था के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। पुलिस ने जिन लोगों पर शिकंजा कसा है, उनमें ज्यादातर मुसलमान हैं। दूसरे पक्ष को लगभग पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है।”
“महराजगंज बाजार में लगे सीसीटीवी फुटेज को हटा लेने की घटना से लोग यह मान रहे हैं कि पुलिस इस मामले को पारदर्शी तरीके से सुलझाने के बजाय अपने तरीके से परिणाम तय करने की कोशिश कर रही है। पुलिस पर लगे इस पक्षपात के आरोप से सांप्रदायिक तनाव और बढ़ गया है, जिससे प्रभावित परिवारों का भरोसा प्रशासन से पूरी तरह उठता हुआ नजर आ रहा है।”

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राय का यह भी आरोप है कि सीसीटीवी फुटेज से छेड़छाड़ करके पुलिस ने साक्ष्य मिटाने का काम किया है। वह कहते हैं, “अगर सभी पक्षों को सही तरीके से जांचा जाता और वीडियो फुटेज की पारदर्शी तरीके से जांच होती, तो असली दोषियों का पता चलता और पुलिस की निष्पक्षता भी बनी रहती। इसके बजाय, सीसीटीवी का डाटा हटाना पुलिस की नीयत पर सवाल खड़े करता है और यह संदेश देता है कि पुलिस अपने दाग को छिपाने का प्रयास कर रही है।”
आंचलिक पत्रकार लवकुश वर्मा कहते हैं, “महराजगंज में सांप्रदायिक हिंसा के मामले में पुलिस की निष्क्रियता ने आग में घी डालने का काम किया है। यह घटना कहीं न कहीं यह संकेत देती है कि पुलिस ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा है और शायद अपनी वर्दी पर लगे दाग को छिपाने की कोशिश की है।इस मामले ने पुलिस की निष्पक्षता और उनकी भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।”
“बहराइच की हालिया सांप्रदायिक हिंसा ने पूरे इलाके में खौफ और अविश्वास का माहौल बना दिया है। महराजगंज कस्बे में हुई इस हिंसा की जड़ें गहरी बताई जा रही हैं, और जब इस मामले की तह में जाते हैं तो आरोप लगते हैं कि यह हिंसा किसी अचानक हुए विवाद का परिणाम नहीं, बल्कि पहले से सोची-समझी साजिश का नतीजा थी।”

लवकुश कहते हैं, “मुस्लिम आबादी के बहुल क्षेत्र महराजगंज कस्बे में सांप्रदायिक सौहार्द की एक लंबी परंपरा रही है। यहां के माहौल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां के विद्यालय का नाम “राम-रहीम” रखा गया है और कस्बे का मुख्य द्वार राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर बनाया गया है।

इस इलाके में हिंदू और मुसलमान त्योहारों में साथ-साथ भाग लेते आए हैं। यहां तक कि मुहर्रम के ताजिया जुलूस में हिंदू भी शामिल होते रहे हैं।”
दंगे के खेल के पीछे कौन?
महराजगंज में हालात की गहन पड़ताल करने आए लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर ने इस हिंसा की पृष्ठभूमि पर कई गंभीर सवाल उठाए हैं। वे कहते हैं, “दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के समय ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि बारावफात के दौरान घरों पर लगाए गए इस्लामिक झंडों को हटाकर भगवा झंडा फहराने के लिए रामगोपाल मिश्रा मुस्लिमों के घरों की छत पर चढ़ गया? और इस साल महराजगंज कस्बे में जरूरत से ज्यादा भगवा झंडे क्यों लगाए गए?”
पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कुमार सौवीर कहते हैं, “इस बार की घटनाओं में कई असामान्य बातें हैं जो इशारा करती हैं कि हिंसा की पटकथा पहले से तैयार थी। वे पूछते हैं, “महराजगंज के सरकारी जमीनों पर मंदिरों का निर्माण किसकी अनुमति से हो रहा है? कुछ मंदिर बन गए हैं, तो कुछ निर्माणाधीन हैं।
क्या प्रशासन को इस पर नजर नहीं रखनी चाहिए थी? अगर सांप्रदायिक हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, तो दूसरे दिन पर्याप्त पुलिस बल का इंतजाम क्यों नहीं किया गया? अगर स्थानीय थानेदार ने संवेदनशील स्थिति को भांपते हुए अधिक पुलिस बल की मांग की थी, तो फिर उच्च अधिकारियों ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया?”
“जिस समय मृतक का शव लाया गया, उस वक्त महराजगंज में इतनी भीड़ जुटी, जितनी कस्बे की पूरी आबादी भी नहीं थी। ऐसे में पर्याप्त फोर्स क्यों नहीं लगाई गई? क्या पुलिस को इस घटना की गंभीरता का अंदाजा नहीं था? यह घटना केवल सांप्रदायिक हिंसा का मामला नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित प्रयास के तहत इलाके के शांतिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की गई।
मुस्लिम समुदाय के बीच इस घटना के बाद से भय और असुरक्षा का माहौल गहरा गया है। उन्हें लगता है कि प्रशासनिक और पुलिस स्तर पर उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है।

कुमार सौवीर कहते हैं, “विधायक सुरेश्वर सिंह एक ऐसा बयान देते हैं जो अचरज में डालने वाला है। वे कहते हैं कि प्रतिमा विसर्जन के दौरान मुसलमानों के खिलाफ नहीं, बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाए जा रहे थे। किसी धार्मिक जुलूस में पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाने की क्या जरूरत थी? यह बयान समझ से परे है।
धार्मिक आयोजनों का मकसद साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखना होना चाहिए, न कि किसी देश के खिलाफ नारेबाजी कर भावनाओं को भड़काना। विधायक का यह बयान सांप्रदायिक भावना को भड़काने का प्रयास है। विधायक सुरेश्वर सिंह ने आज तक अपने इस बयान पर सफाई नहीं दी कि आखिर पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी क्यों की गई, जबकि मुद्दा धार्मिक आयोजन का था।”
साजिश गहरी थी, पुलिस भांप नहीं पाई
कुमार सौवीर का मानना है कि यह सांप्रदायिक हिंसा कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि इसके पीछे गहरी साजिश थी। वे कहते हैं, “यह बात हर किसी को पता है कि सांप्रदायिक दंगा किस राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाता है।” उनका इशारा स्पष्ट रूप से उन राजनीतिक दलों की ओर है जो सांप्रदायिक हिंसा से राजनीतिक लाभ उठाते हैं, खासकर तब जब विकास के मुद्दों पर सरकार असफल साबित हो जाती है। महराजगंज जैसे इलाके में, जहां हिंदू और मुसलमान मिल-जुलकर त्योहार मनाते आए हैं, वहां धार्मिक आयोजनों में सांप्रदायिक मुद्दों को जोड़ना कहीं न कहीं एक गहरी साजिश की ओर इशारा करता है।”

महराजगंज में हुई हिंसा का असली उद्देश्य धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर एक खास वर्ग को निशाना बनाना था, और इसके लिए क्षेत्रीय नेताओं ने अपने बयानों से लोगों की भावनाओं को भड़काया। उनका कहना है कि अगर विधायक अपने बयान को लेकर स्पष्ट होते और धार्मिक आयोजनों को लेकर संतुलित सोच रखते, तो शायद यह हिंसा टाली जा सकती थी। जब किसी सरकार के पास जनता को दिखाने के लिए कोई ठोस विकास कार्य नहीं होता, तब वह जनता का ध्यान भटकाने के लिए सांप्रदायिक मुद्दों का सहारा लेती है। यह दंगा भी एक ऐसी ही सोची-समझी साजिश का हिस्सा था, जिसमें जनता का ध्यान मूल मुद्दों से हटाकर सांप्रदायिक भावनाओं की ओर मोड़ दिया गया। यह घटना केवल एक साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं थी, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक लाभ की भावना थी।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। बहराइच से उनकी ग्राउंड जीरो रिपोर्ट)
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