पिछले एक दशक से चली आ रही स्वच्छ भारत अभियान योजना के बहुत सफल परिणाम सामने आने लगे हैं। सितंबर 2024 तक, भारत भर में 5.87 लाख से अधिक गांवों ने ओडीएफ प्लस का दर्जा हासिल कर लिया है, जिसमें 3.92 लाख से अधिक गांव ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली लागू कर रहे हैं और 4.95 लाख से अधिक गांव तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली स्थापित कर रहे हैं। वहीं अगर शहरी क्षेत्रों की बात करें तो इसी अवधि तक, 63 लाख से अधिक घरेलू शौचालयों और 6.3 लाख से अधिक सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण हुआ है। व्यापक सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से, स्वच्छता को भारत के शहरी विकास एजेंडे में सबसे आगे ला दिया है, जिससे शहर स्वच्छ और स्वस्थ बन गए हैं। लेकिन इन्हीं कुछ शहरों में आबाद स्लम बस्ती इस अभियान में कहीं पीछे छूटते नज़र आ रहे हैं।
ऐसी ही एक स्लम बस्ती राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित बाबा रामदेव नगर है। जहां के निवासियों को आज भी बुनियादी सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यहां रहने वाले 37 वर्षीय राजेश बताते हैं कि बस्ती में नाली निकासी की कोई सुविधा नहीं है। घरों से निकला गंदा पानी बस्ती के मुख्य मार्ग पर बहता रहता है। जिसमें मक्खी और मच्छर पलते रहते हैं। साफ़-सफाई का यहां कोई इंतज़ाम नहीं है।
वह बताते हैं कि दो वर्ष पूर्व जब जयपुर में मूसलाधार बारिश हुई थी तो नाली निकासी की व्यवस्था नहीं होने के कारण लोगों के घरों में नाली का पानी बह रहा था। आना जाना सब कुछ ठप हो गया था। बस्ती में बीमारियां फ़ैल गई थी। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने लोगों को खाना बांटा था, लेकिन वह भी बस्ती के बाहर से चले जाते थे। लोगों को खाने का पैकेट लेने के लिए उसी गंदे पानी से होकर गुज़रना पड़ रहा था। राजेश का कहना है कि सात साल पहले वह अच्छे रोज़गार की तलाश में राजसमंद से जयपुर इस बस्ती में आया था। लेकिन आधे से ज़्यादा कमाई बच्चों की दवाओं पर ही खर्च हो जाता है।
वहीं एक अन्य निवासी 65 वर्षीय हंसराज वाल्मीकि बताते हैं कि बाबा रामदेव स्लम बस्ती 20 से अधिक सालों से आबाद है। पहले यह शहर का बाहरी छोर हुआ करता था। लेकिन बढ़ती आबादी के कारण अब यह शहर के अंदर ही कहलाता है। वह बताते हैं कि इन दो दशकों में बस्ती के आसपास कई कॉलोनियां आबाद हो गई। जिनमें बड़ी बड़ी इमारतें बन गई है। जो हर सुविधाओं से लैस है लेकिन इन दशकों में बाबा रामदेव बस्ती विकास की दौड़ में काफी पीछे रह गया है। यहां आज भी लोगों को बुनियादी सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भी रोज़ संघर्ष करनी पड़ती है। न तो पीने का साफ़ पानी उपलब्ध है और न ही नाली निकासी है। जिससे लोगों को गंदगियों के बीच ही जीवन यापन करना पड़ता है।
हंसराज की पत्नी जशोदा बताती हैं कि कुछ वर्ष पूर्व तक बस्ती में महिलाओं के लिए शौचालय की सुविधा भी नहीं थी। लेकिन कुछ समाजसेवियों के प्रयास से बस्ती के बाहर एक सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हुआ है। लेकिन उसमें पानी की सुविधा नहीं है। जिससे अक्सर वह शौचालय गंदा रहता है। इसके कारण महिलाएं उस सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करने की जगह सुबह सवेरे बस्ती से कुछ दूर खुले में शौच को मजबूर हैं।
जशोदा कहती हैं कि इस बस्ती की महिलाओं का जीवन बहुत कष्टदायक है। सबसे अधिक समस्या गर्भवती महिलाओं को प्रसव के समय होती है। जब किसी प्रकार का आवासीय प्रमाण पत्र नहीं होने के कारण सरकारी अस्पताल वाले उनका इलाज करने से मना कर देते हैं। उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वह निजी अस्पताल जाएं, इसलिए अप्रशिक्षित दाइयों के माध्यम से उनका प्रसव कराया जाता है।
न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से कुछ ही दूरी पर स्थित करीब 500 लोगों की आबादी वाले इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है। जिसमें लोहार, जोगी, कालबेलिया, मिरासी, रद्दी का काम करने वाले, फ़कीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों की संख्या अधिक है। यहां रहने वाले सभी परिवार बेहतर रोज़गार की तलाश में करीब 20 से 12 वर्ष पहले राजस्थान के विभिन्न दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास करके आये हैं। इनमें से कुछ परिवार स्थाई रूप से यहां आबाद हो गया है तो कुछ मौसम के अनुरूप पलायन करता रहता है। यहां शिक्षा के साथ साथ पीने का साफ पानी सहित कई बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। इसका सबसे अधिक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर होता है। बस्ती की अधिकतर किशोरियां कुपोषण से ग्रसित हैं। वहीं आर्थिक समस्या उनके समग्र विकास में बाधा बन रही है।
इस बस्ती में रहने वाली 15 वर्षीय किशोरी पूनम कहती है कि यहां 16 वर्ष की आयु तक लड़कियों की शादी हो जाना आम बात है। पौष्टिक आहार के अभाव में लगभग सभी किशोरियों में खून की कमी है। जिससे उनका शारीरिक विकास प्रभावित होता है। हालांकि बस्ती के बाहर संचालित आंगनबाड़ी सेंटर की दीदी समय समय पर यहां की किशोरियों से मिलकर उन्हें आयरन की गोलियां देती रहती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ एनजीओ की दीदी भी बस्ती की किशोरियों के बीच सेनेटरी नैपकिन वितरित करती हैं और माहवारी के दौरान उन्हें साफ़ सफाई के बारे में बताती रहती हैं।
वहीं 46 वर्षीय भागचंद बताते हैं कि चार साल पहले वह रोज़गार के सिलसिले में परिवार के साथ टोंक से जयपुर के इस बस्ती में रहने आये थे। वर्तमान में वह ई-रिक्शा चलाकर परिवार का गुज़ारा करते हैं। वह बताते हैं कि बस्ती में साफ़ सफाई का अभाव है। लोग खुले में घर का कचरा फेंक देते हैं। इसके अतिरिक्त आसपास की कॉलोनियों के लोग भी अपने घरों का कूड़ा बाबा रामदेव नगर बस्ती के बाहर ही फेंक देते हैं। जिससे उठने वाली बदबू से पूरे बस्ती का वातावरण दूषित होता रहता है। वह बताते हैं कि बुनियादी सुविधाओं के सिलसिले में प्रशासनिक स्तर पर बात की गई थी, लेकिन हमें यह बताया गया कि यह बस्ती अधिकृत भूमि पर नहीं बनी है। इसलिए यहां सभी सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जा सकती हैं।
दरअसल हमारे देश की एक बड़ी आबादी आज भी ऐसी है जो शहरों और महानगरों में आबाद तो है, लेकिन वहां पर शहर के अन्य इलाकों की तरह सभी प्रकार की की सुविधाओं का अभाव है। शहरी क्षेत्रों में ऐसे इलाके ही स्लम बस्ती कहलाते हैं। जहां अधिकतर आर्थिक रूप से बेहद कमजोर तबका निवास करता है। जो रोजी रोटी की तलाश में गांव से शहर की ओर पलायन करता है। इनमें रहने वाले ज्यादातर परिवार दैनिक मजदूरी के रूप में जीवन यापन करते हैं। हालांकि सरकार और स्थानीय प्रशासन इन क्षेत्रों के विकास के लिए कई योजनाएं संचालित है। लेकिन सरकार के साथ साथ गैर-सरकारी संगठन और आम जनता भी यहां की समस्याओं का समाधान करने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर ऐसी बस्तियों में समय समय पर लोगों के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मोबाइल हेल्थ क्लीनिक का संचालन किया जा सकता है। साथ ही पानी और स्वच्छता पर काम करने वाली संस्थाएं यहां के लोगों के लिए छोटे स्तर पर जल संयंत्र का निर्माण कर उनके पीने के साफ़ पानी की किल्लत को दूर कर सकती हैं। वहीं झुग्गी पुनर्वास परियोजना के तहत इस बस्ती के लोगों के जीवन में भी बदलाव लाया जा सकता है। यदि सही दिशा में प्रयास किए जाएं तो बाबा रामदेव नगर जैसी स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं।
(जयपुर से गुलाब सिंह गुर्जर की ग्राउंड रिपोर्ट)