क्या पश्चिम की निगाह में इजराइल की उपयोगिता खत्म हो चुकी है? 

द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम चरण में जब सोवियत सेना बर्लिन पर कब्जा कर दुनिया से नाज़ीवाद के खात्मे का ऐलान कर रही थी, तब सोवियत सेना की कमान का नेतृत्व कर रहे मार्शल ज्योर्जी झुकोव ने जो कहा था, उसे एक कटु सत्य के रूप में देखा जा रहा है। बर्लिन पर कब्जे के फौरन बाद 1945 में मार्शल झुकोव द्वारा रोकोसोव्स्की से कहा गया वाक्यांश कुछ इस प्रकार था: “हमने उन्हें आज़ाद कराया, लेकिन वे इसके लिए हमें कभी माफ़ नहीं करेंगे।” 

जर्मनी के नाजीवाद में पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी भूमिका किस हद तक थी, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। हिटलर के कहर को सबसे अधिक रूस और नस्ल के रूप में यहूदियों ने भुगता था। आज वही पश्चिमी मुल्क अपने मुल्कों में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एंटी-सिमेटिस्म के नाम पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय सहित लाखों अप्रवासी छात्रों के ऊपर अमानवीय व्यवहार करने से गुरेज नहीं कर रहा। पश्चिम एशिया में उसने इस्लामिक देशों की नाक के सामने इसे फलने-फूलने से लेकर मनमानी करने की छूट प्रदान की हुई है। 

लेकिन आज जब हम देख रहे हैं कि पिछले 20 महीने से इजराइल की ज़ोयनिस्ट लॉबी उग्रवादी संगठन हमास के हमले के जवाब में न सिर्फ गाजा में सिमटा दिए जा चुके फिलिस्तीनियों का बेरहमी से कत्ल करती जा रही है, जिसकी मिसाल सिर्फ जर्मनी के नाजीवाद से ही की जा सकती है। यही नहीं, इस बीच इजराइल ने लेबनान सहित यमन और सीरिया तक में हवाई हमले किये, और आठ दिन पहले उसने ईरान पर हमला कर पूरे पश्चिम एशिया पर अपने क्रूर पंजे फैलाने का ऐलान कर दिया था।

हालांकि, बेहद भारी झटका सहने के बावजूद ईरान ने 24 घंटे के भीतर ही इजराइल के खिलाफ जवाबी हमले का जो आग़ाज किया, वह एक सप्ताह बाद भी खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ईरान की सामरिक क्षमता और ईरानी जनता की दृढ देशभक्ति के सामने यूरोप और अमेरिकी राष्ट्रपति को इजराइल के समर्थन में युद्ध में कूदने की हिम्मत नहीं हो रही। अब सुनने में आ रहा है कि, अमेरिकी राष्ट्रपति अगले दो सप्ताह में फैसला करेंगे कि अमेरिका को सैन्य हस्तक्षेप करना है या नहीं। अचानक से उन्हें लगने लगा है कि ईरान के साथ अभी बातचीत की गुंजाइश बची हुई है।

खैर, ये सब बातें तो लगभग सभी समाचारपत्रों और न्यूज़ बुलेटिन में साझा की जा रही हैं। असल सवाल यह है कि क्या पश्चिम ने अब इजराइल को पैदल करने का फैसला कर लिया है? वह इजराइल, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से पश्चिम एशिया में पश्चिमी देशों के हितों का सबसे बड़ा पहरुआ बना हुआ था, अब उसकी जरूरत खत्म हो चुकी है? 

अमेरिकी मीडिया में बताया जा रहा है कि ट्रंप के MAGA समर्थकों में इजराइल द्वारा शुरू किये गये युद्ध में कूदने को लेकर जबर्दस्त मतभेद है। खुद ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में इसे बड़ा मुद्दा बनाया था कि वे विश्व में जारी संघर्षों के पचड़े में नहीं पड़ेंगे और अमेरिका और अमेरिकावासियों को फिर से महान बनाने के अपने घोषित लक्ष्य पर फोकस रखेंगे। लेकिन जी-7 की बैठक बीच में ही छोड़कर जाने वाले भी ट्रंप ही थे, जिन्होंने कहा था कि ईरान तत्काल समर्पण कर दे। साउथ चाइना सी से अपने सबसे खूंखार लडाकू बेड़े को अमेरिका ने पश्चिमी एशिया पर बुला लिया था। यहां तक कहा जा रहा है कि इजराइल के हमले से दो महीने पहले से ही अमेरिका यूक्रेन से अपने हथियारों के जखीरे को पश्चिम एशिया में शिफ्ट कर रहा था। 

आज ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी जैसे देश भी अपना सुर बदलते दिख रहे हैं. उन्हें भी अब लगता है कि युद्ध के बजाय कूटनीतिक बातचीत के जरिये ईरान को परमाणु बम बनाने से रोका जा सकता है। लेकिन इसके लिए तो इजराइल ने अपनी कीमत चुका दी है। इजराइल के इतिहास में यह पहली बार है जब तेल अबीब और हैफा सहित पूरे देश में ईरानी मिसाइलों के हमलों से अब तक का उसका बनाया गुरुर चिंदी-चिंदी हो चुका है।

इजराइल के दसियों लाख लोगों को रोज रात को नियमपूर्वक अपने घर के बजाय खंदकों में रात गुजारनी पड़ रही है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। बड़ी संख्या में लोग अपने घरों में बने बंकरों के बजाय भूमिगत रेलवे स्टेशनों में रात गुजारना पसंद कर रहे हैं, क्योंकि रात भर मिसाइल दागे जाने और सायरनों के साए तले नींद आने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 

आखिर, बेंजामिन नेतन्याहू ने अपने दम पर तो ईरान को मटियामेट कर देने की जुर्रत तो कत्तई नहीं की होगी। ट्रंप और नेतान्याहू के बीच सबकुछ पहले से तय था, और नेतान्याहू ने वही किया जिसे वह आज तक करता आया था और पीछे से पश्चिमी देशों के समर्थन के बल पर वह अंजाम देने में सफल रहा था। क्योंकि उसे भी पता है कि 80 के दशक में ईरान-इराक युद्ध के 8 वर्षों के दौरान अमेरिका के इराक के पीछे खड़े होने के बावजूद जिस ईरान को पराजित नहीं किया जा सका, उसे भला इजराइल अकेले कैसे निपटा सकता है?

8 दिन पहले जब इजराइल ने ईरान के ऊपर जबर्दस्त हमला किया और ईरान के टॉप आर्मी कमांडर्स सहित परमाणु कार्यक्रम में शामिल चोटी के वैज्ञानिकों को मार डाला तब डोनाल्ड ट्रंप ने ख़ुशी जताते हुए कहा था कि इजराइल इसे आगे भी अंजाम देगा। लेकिन, अगले एक सप्ताह ईंट का जवाब पत्थर से मिलना शुरू हुआ और ईरान की ओर से जवाबी हमले हर दिन पहले की तुलना में तीक्ष्ण होने लगे तो आज पश्चिमी देश पुनर्विचार करने के मूड में आ चुके हैं, और इसे न्यायोचित ठहराने के लिए अब अमेरिकी लोकतंत्र, MAGA की कसम, कंजरवेटिव और टेक कॉर्पोरेट के बीच की बहसों का सहारा लेना पड़ रहा है।

पश्चिम ने यहूदियों को प्रॉमिस लैंड नहीं पश्चिम एशिया में भाड़े का टट्टू बनाकर इस्तेमाल किया 

एकबारगी यह बात सीधे-सीधे गले नहीं उतरती। लेकिन गहराई से विचार करें तो आप भी हैरत में पड़ सकते हैं। क्या यह सच नहीं है कि 20वीं सदी के पहले उत्तरार्ध में जर्मनी ही नहीं बल्कि समूचे यूरोप में यहूदियों के साथ भेदभाव किया जा रहा था? यहूदियों के बारे में कंजूस, मुनाफाखोर, सूदखोरी के जरिये तेजी से समाज में सबसे अमीर बन जाने वाले जोंक जैसे पूर्वाग्रह रखना आम बात थी। 

इंग्लैंड ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले ही फिलिस्तीन में अपने उपनिवेश में से एक हिस्से पर यहूदियों को स्थायी रूप से बसाने का वादा कर युद्ध में साथ देने का वादा कर लिया। इस एक कदम से यूरोप ने दो नहीं तीन तीर साधे। पहला, यहूदियों की बड़ी आबादी को येरुशलम और उसके आसपास के इलाकों में बसाकर उनसे मुक्ति पाने का उपाय ढूंढ लिया और साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध में उनकी हिस्सेदारी को सुनिश्चित किया। जो तीसरा फायदा था, वह दूरगामी था जिसकी शायद ही कोई चर्चा करता है।

तीसरा फायदा पश्चिमी साम्राज्यवादियों के लिए यह था कि पश्चिम एशिया में तेल के कुओं पर उनके घटते कब्जे को बरकरार रखने के लिए अब उन्होंने एक ऐसे देश का गठन कर लिया था, जो तमाम इस्लामी मुल्कों को चैन की सांस नहीं लेने देगा। यह तरकीब इतनी कारगर होगी, शायद ही इसकी किसी ने पूर्वकल्पना की होगी। यहां पर इजराइल में मौजूद जियोनिस्ट लॉबी इसके लिए जिम्मेदार है, जिसने इसे अभी तक बखूबी अंजाम दिया। 

अभी तक की स्थिति यह है कि पश्चिम एशिया के लगभग सभी देश पश्चिम की चाकरी करते हैं। इनमें से लगभग सभी देश कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं हैं, लेकिन चूँकि इनके शेखों का पैसा अमेरिकी कॉर्पोरेट या यूरोपीय बैंकों में जमा होकर उनके काम आता है, इसलिए लोकतंत्र के चौधरी अमेरिका की निगाह में ये देश बेहद प्यारे हैं, सिवाय ईरान के। ईरान भले ही इस्लामिक क्रांति के चलते पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को अपने देश में पसंद नहीं करता, लेकिन पुरुषों और महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और रिसर्च के क्षेत्र में वह बाकी के देशों से मीलों आगे है।

ईरान एक खुदमुख्तार मुल्क है, जिसकी 9.2 करोड़ आबादी भले ही खाड़ी के देशों की तरह ऐशोआराम की जिंदगी बसर नहीं करती, लेकिन उसने हजारों वर्षों की संस्कृति, सभ्यता और आधुनिक तकनीक के साथ खुद को जोड़े रखा है। यही कारण है कि ईरान ने कभी खुद को पश्चिमी देशों के रहमोकरम पर रखना गंवारा नहीं किया, और 1979 से ही वह पश्चिम की नजरों में खटकता रहा। आज जब अंततः इजराइल ने ईरान में तख्तापलट की कोशिश भी की तो उसे उसका ऐसा अंजाम भुगतना पड़ रहा है, जो संभवतः उसके ही नहीं बल्कि पश्चिमी एशिया में पश्चिमी साम्राज्यवाद के पाँव  उखाड़ने की शुरुआत भी हो सकती है।

इजराइल को जब अंततः अपने पापों की सजा मिलेगी, तब शायद वह पुनर्विचार कर सके कि यहूदियों को उनके प्रोमिस्ड लैंड के वादे के साथ पश्चिम ने उसे क्या करने पर मजबूर किया। क्या वे बेहतर थे जिन्होंने सैकड़ों वर्षों से यूरोप में बसे और स्थापित हो चुके यहूदियों को पश्चिम एशिया में आबाद किया या वे फिलिस्तीनी नागरिक, जिन्होंने शुरू-शुरू में उनका स्वागत-सत्कार किया और अपने साथ रहने का पुरजोर विरोध नहीं किया।

जियोनिस्ट सोच ने आज उन फिलिस्तीनियों का वही हाल कर दिया है, जैसा हाल पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने अपने फासिस्ट स्वरुप में किया था। भले ही आज भी अमेरिका में जियोनिस्ट लॉबी बेहद ताकतवर है, लेकिन यह भी सच है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के पराभव की शुरुआत हो चुकी है, जिससे अमेरिका के भीतर ही मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स, निओकॉन, टेक कॉर्पोरेट लॉबी के बीच संघर्ष और लूटपाट में जियोनिस्ट लॉबी की सूरत भी छिन्न-भिन्न हो सकती है। 

मार्शल झुकोव ने जो बात आज से 80 वर्ष पूर्व कही थी, वह इसी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के लिए कही थी, जिसने पूंजीवादी संकटकाल में फासीवाद की शक्ल लेकर पूरी दुनिया को रौंदना शुरू कर दिया था। आज यूरोप के विभिन्न मुल्कों सहित अमेरिका में नियो-फासिस्ट प्रवृत्तियों वाली सरकारें बनने लगी हैं, इसलिए मार्शल झुकोव और यहूदियों के प्रॉमिस्ड लैंड को याद करना और भी जरुरी हो जाता है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

More From Author

ग्राउंड रिपोर्ट: झारखंड के मनिका में शिक्षा की स्थिति बदतर, 40 प्राथमिक विद्यालयों में केवल 40 शिक्षक

माफ़ी मांगते ईरान से इजराइली!

Leave a Reply