क्रांतिसिंह नाना पाटिल को हम कितना कम जानते हैं?

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इतिहास में 6 दिसंबर को बाबासाहेब आंबेडकर के स्मृति दिवस के रूप में जाना जाता है। बाबा साहब को सब जानते हैं। और भी बहुत से प्रमुख लोगों का जन्म और मृत्यु इस दिन, इस तारीख में हुई होगी। भारत के इतिहास में धर्मनिरपेक्षता की पीठ में छुरा घोंपने की वारदात भी इसी दिन हुई थी।

लेकिन इसी दिन महाराष्ट्र की एक ऐसी शख्सियत की भी मृत्यु हुई थी, जिसे भारत के सभी लोगों को जानना और दूसरों तक उनके जीवन के संघर्ष, जीवटता, सिद्धांत और वीरता के संदेश को ले जाना एक जरूरी काम है। वो थे क्रांतिसिंह नाना पाटिल।

नाना पाटिल का जन्म 3 अगस्त 1900 को महाराष्ट्र के सांगली ज़िले में हुआ था। शुरुआत में उनका जुड़ाव प्रार्थना समाज और सत्यशोधक समाज के साथ था और इनके ज़रिये वे समाज में खर्चीली पारंपरिक शादियां न करने, शिक्षा के महत्त्व को समझाने और जातिगत भेदभाव दूर करने जैसे सामाजिक कार्य किया करते थे।

बाद में 1929 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) बनाने वालों में वो भी शामिल थे। ये वही एचआरए हैं जिसमें आगे चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह आदि क्रांतिकारी भी शामिल हुए और भगत सिंह ने जिसमें एस जोड़कर उसे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम दिया था।

सन 1929 से नाना पाटिल अंग्रेज़ों के खिलाफ सीधी लड़ाई में शरीक हो गए। सन 1942 तक वे अनेक बार पकड़े गए, जेल गए, वर्षों जेलों में रहे लेकिन क्रांतिकारी काम करते रहे।

नाना पाटिल के नाना पाटिल बनने के पीछे सतारा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी बहुत महत्त्व है। यहीं महात्मा ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले, गोपाल गणेश अगरकर जैसे समाज सुधारक भी हुए थे, यहां शिवाजी महाराज का न्याय का राज भी रहा था। यहां गांधी जी के आंदोलन का भी असर था और कॉमरेड चितले के नेतृत्व में लाल झंडे का कम्युनिस्ट आंदोलन भी फल-फूल रहा था।

पास के ही ज़िले शोलापुर के कपड़ा मिल मजदूरों ने भी 1930 में शहर को अंग्रेज़ों से कुछ दिनों के लिए आज़ाद करवाकर पेरिस कम्यून की यादें ताज़ा कर दी थीं। कुछ दिनों के लिए ही सही लेकिन शोलापुर आज़ाद था, जहां मजदूरों ने अपनी सरकार बनाई थी।

इसी वक़्त के आसपास तत्कालीन बंगाल में सूर्य सेन मास्टरदा के नेतृत्व में चटगांव में भी कुछ दिन के लिए क्रांतिकारियों ने आज़ादी हासिल कर ली थी, रेडियो स्टेशन, डाक-तार और आवागमन के साधनों के साथ हथियारों पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था।

इन सबका मिला-जुला असर नाना पाटिल पर पड़ा लेकिन बाद में वे भगत सिंह और बोल्शेविक क्रांति के विचारों के प्रभाव में आये और उन्होंने नौजवानों की एक तूफान सेना का गठन किया। इस तूफान सेना के माध्यम से उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की रीढ़ की हड्डी तोड़ने का काम किया।

वे खुद एक अच्छे पहलवान थे और विरोधी की कमज़ोर नसें पहचानना उन्हें अच्छे से आता था। उन्होंने उन कमज़ोर कड़ियों को तोड़ना शुरू किया जिसके मार्फत अंग्रेज इलाके में अपना राज चलाते थे। उन्होंने स्थानीय सामंतों, जो अंग्रेज़ सरकार के पिट्ठू थे, उन्हें अपनी तूफान सेना के माध्यम से कुचल दिया और स्थानीय पुलिस बल को भी खत्म कर दिया।

दरअसल 9 अगस्त 1942 को “अंग्रेज़ों, भारत छोड़ो” के आह्वान को सतारा ज़िले में काफ़ी गंभीरता से लिया गया और अहिंसक आंदोलन शुरू हो गया। पुलिस ने अहिंसक आंदोलन कर रही भीड़ पर सतारा ज़िले में पांच जगह गोली चलाई जिसमें 11 आंदोलनकारी शहीद हुए थे।

नाना पाटिल ने लोगों को इस ज़ुल्म के खिलाफ़ गोलबंद किया और सतारा ज़िले के सैकड़ों गांवों में तीन साल तक अगस्त 1943 से मे 1946 तक “प्रति सरकार” यानि वैकल्पिक सरकार चलायी।

इन तीन वर्षों तक उन सभी गांवों में नाना पाटिल ने जो व्यवस्थाएं कीं, उनका आधार था शोषण मुक्त समाज की स्थापना। इन तीन वर्षों में ही इन आज़ाद इलाक़ों में वर्ग, जाति, लिंग और धर्म के आधार पर होने वाला भेदभाव काफ़ी हद तक समाप्त हो गया था।

तब तक 1936 में किसान सभा का गठन हो चुका था और किसान सभा की मांग थी कि किसानों पर जमींदारों और साहूकारों का क़र्ज़ माफ किया जाए।

नाना पाटिल ने प्रति सरकार बनाते ही इलाके से किसानों का क़र्ज़ माफ कर दिया। किसी जमींदार या सामंत में नाना पाटिल की सरकार का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं थी। संसाधनों के लिए नाना पाटिल और उनके साथी सरकारी खजाने और ट्रेनें लूटा करते थे और कभी पकड़े नहीं जाते थे क्योंकि उन्हें व्यापक जन समर्थन हासिल था।

वे लूट का माल भी ग़रीब ग्रामीणों और किसानों के साथ बांटते थे और साथ ही सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में भी उनके “प्रति सरकार” आंदोलन की बड़ी भूमिका थी। उस ज़माने में उन्होंने “प्रति सरकार” के इलाके में स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह और यहां तक कि अन्तर्जातीय विवाह भी बड़े पैमाने पर करवाए।

आज़ादी के बाद वे सीपीआई की किसान-सभा के अध्यक्ष भी हुए और जब 1946 में भारत की आज़ादी सुनिश्चित हो गई तब नाना पाटिल ने अपना भूमिगत दौर समाप्त किया और 1400 गांवों में प्रति सरकार को भूमि के ऊपर दिखने के लिए तैयार किया।

भारत की अपनी सरकार बनने के बाद नाना पाटिल ने प्रति सरकार आंदोलन भले ही वापस ले लिया हो, लेकिन उनके बनाये नियम-कानून वैसे ही चलते रहे।

वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई से 1957 के लोकसभा चुनाव में सतारा से और 1967 में बीड से चुनकर सांसद बने। एक समाजवादी समाज स्थापित करने के लिए उनकी प्रतिबद्धता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जब तेलंगाना में आम लोग कम्युनिस्टों के नेतृत्व में रजाकारों और निजाम की फौज के खिलाफ़ सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे, तब नाना पाटिल ने क्रांतिकारियों को हथियार भेज कर मदद की, उन्होंने गोवा मुक्ति संघर्ष और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलनों में भी नेतृत्व की भूमिका अदा की।

डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का योगदान निश्चित ही स्मरणीय है लेकिन क्रांतिसिंह नाना पाटिल और उनके साथियों जैसे दूरदर्शी क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की याद लोगों को दिलाना जरूरी है जो देश के लोगों को मंदिर-मस्जिद और जाति के नाम पर नहीं, बल्कि बेहतर मानवीय मूल्यों के लिए इकट्ठा करते थे और शोषण विहीन समाज की रचना के सपने को जीते थे।
क्रांतिवीर नाना पाटिल को लाल सलाम।

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