जीत की जगह हार और हार की जगह जीत कैसे हुआ संभव?

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हरियाणा में सुपर कॉंफिडेंट कांग्रेस को मिली करारी हार और जम्मू-कश्मीर में मंथर लेकिन निरंतर आगे बढ़ने की चुनावी रणनीति के चलते नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व में मिली जीत से इंडिया गठबंधन क्या सबक लेने जा रहा है, यह आज के दिन सबसे अहम प्रश्न बन गया है।

चुनावी लोकतंत्र में हार-जीत एक विशेष समय में मतदाताओं के मूड, चुनावी प्रचार के असर और सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रभावों को ही परिलक्षित करता है, जिसका फायदा/खामियाज़ा राजनीतिक दलों से कहीं ज्यादा आम मतदाताओं को ही वहन करना पड़ता है। दोनों राज्यों की 90-90 विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव एनडीए और इंडिया गठबंधन के लिए मिले-जुले रहे, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि यह मुकाबला 50-50 पर छूटा। लेकिन दोनों राज्यों के नतीजों ने स्थापित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और गोदी मीडिया, दोनों को ही अचंभे में डाल दिया है।

जम्मू-कश्मीर की जीत भी कम ऐतिहासिक नहीं

ऐसा आमतौर पर माना जा रहा था कि कश्मीर में भले ही नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरेगी, लेकिन घाटी के भीतर इतने बड़े पैमाने पर वैकल्पिक गठबंधन, जिनमें से अधिकांश को सत्तारूढ़ भाजपा का बरदहस्त प्राप्त है, से कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा, और नतीजतन जम्मू में अपनी परंपरागत हिंदू बहुल आबादी और एलजी के माध्यम से केंद्रीय गृह मंत्रालय के डिक्टेट पर भाजपा के लिए चुनावी नतीजे आने के बाद अपने मनमाफिक राज्य की बागडोर संभालने का सुअवसर पहली बार मिल सकता है।

लेकिन घाटी के मतदाताओं की प्रतिक्रिया लोकसभा की तुलना में बेहद सटीक रही, और उसने केंद्र के राज्य पुनर्गठन आयोग, विभिन्न छिटपुट ग्रुपों और अलगाववादी चेहरों की ओर भटकने के बजाय एक बार फिर से नेशनल कांफ्रेंस पर भरोसा जताया, जिसका नतीजा यह हुआ कि जम्मू में कांग्रेस की बुरी गत बनने के बावजूद इंडिया गठबंधन अपने बल पर जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने जा रही है।

बताया तो यहां तक जा रहा है कि अधिकांश निर्दलीय उम्मीदवार, जिन्होंने जीत दर्ज की है का संबंध नेशनल कांफ्रेंस से रहा है। ऐसे में एनसी (42) और कांग्रेस (6) के पास पूर्ण बहुमत के बाद भी 7 निर्दलीय विधायकों में से अधिकांश के साथ अपनी सरकार चलाने में कोई खास दिक्कत नहीं होने जा रही है। पीडीपी के हाथ सिर्फ 3 सीटें आई हैं, जबकि जम्मू में 29 सीट और सबसे अधिक मत प्रतिशत हासिल करने के बावजूद भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर अभी भी सपना बना रहने वाला है।

कैसे शत-प्रतिशत जीत के प्रति आश्वस्त कांग्रेस के नीचे से जीत खिसक गई

लेकिन शेष देश की टकटकी तो हरियाणा पर लगी हुई थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि हरियाणा के जवान, किसान, महिला पहलवान और बेरोजगार युवाओं का मुद्दा पूरे उत्तर भारत की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता था, बल्कि इसलिए भी कि भाजपा के भीतर की अंदरूनी कलह और आरएसएस-बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के बीच में अधिकारों के पुनर्वितरण की लड़ाई हरियाणा के चुनावी नतीजे पर निर्भर थी।

यह पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में नव-उदारवादी अर्थनीति के तहत क्रोनी कैपिटल के लिए भारत सरकार की ओर से दी जाने वाली अबाध मदद पर भी ब्रेक लगा सकती थी। इतना बड़ा जोखिम असल में जून 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद एक बेहद मुखर हिंदी भाषी प्रदेश के जनादेश के बाद फूट पड़ना तय था।

लेकिन इसे भाजपा नेतृत्व का सफलतम चुनावी रणकौशल मानना होगा कि वह न सिर्फ राज्य में ऐतिहासिक रूप से तीसरी बार जीतने में सफल रही, बल्कि शीर्ष सत्ता पर छाए संकट के बादलों को भी वह काफी हद तक दूर कर पाने में सफल साबित हुई है। अब उसके पितृ संगठन की ओर से महाराष्ट्र जैसे बेहद अहम राज्य में भाजपा की अवश्यंभावी हार की आशंका को विराम लगेगा और वह भी मन ही मन मान चुका होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी ही उसकी नैया पार लगा सकती है।

हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के हैरतअंगेज कारनामे की अब तमाम हलकों में समीक्षा की जा रही है। इसमें कांग्रेस की हार के पीछे दो बार के पूर्व मुख्यमंत्री, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की भूमिका को सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है, जिनके बारे में कल तक कहा जा रहा था कि यदि 2019 में उन्हें 6 माह पूर्व ही कमान सौंप दी गई होती तो कांग्रेस 5 वर्ष पहले ही सरकार बना चुकी होती। कांग्रेस की तयशुदा जीत के मद्देनजर हुड्डा ने 90 में से 70 प्रत्याशी अपनी पसंद के तय कर दिए और पूर्व केंद्रीय मंत्री, कुमारी शैलजा के कई समर्थकों के टिकट काट दिए थे।

भाजपा को एक बार फिर से जाट बनाम शेष जातियों के बीच ध्रुवीकरण का मौका मिला, विशेषकर दलित वर्ग से एक छोटा हिस्सा कांग्रेस से खिसका। इसके अलावा, आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करने की जिस पहल को राहुल गांधी ने आगे बढ़ाया, उसे हुड्डा ग्रुप ने सिरे चढ़ने ही नहीं दिया। नतीजतन आप पार्टी ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और 1.79% वोट पाकर उसने हरियाणा में कांग्रेस को कम से कम 7 सीटों पर जीत की बजाय हराने और बीजेपी की जीत में अहम भूमिका अदा की।

कांग्रेस-आप गठबंधन की सूरत में भाजपा (48) और कांग्रेस (37) की स्थिति एकदम उलट हो सकती थी। इसे भाजपा और कांग्रेस को हासिल मत प्रतिशत से भी समझा जा सकता है।

10 वर्षों की एंटी-इनकंबेंसी के बावजूद हरियाणा में रिकॉर्ड वोट प्रतिशत

यहां पर हार-जीत से भी ज्यादा हैरतअंगेज पहलू यदि कुछ है तो वह है भाजपा को हासिल मत प्रतिशत में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी। यही वह सबसे महत्वपूर्ण चौंकाने वाला पहलू है, जिसपर कोई खास चर्चा नहीं की जा रही है। हरियाणा में पहली बार भाजपा अपने दम पर 2014 में आने में सफल रही थी, जो कि मई 2014 आम चुनाव की लहर के साये में लड़ा गया था। इस चुनाव में भी भाजपा को 33.20% वोट ही प्राप्त हो सके थे, लेकिन 47 सीट पाकर राज्य में भाजपा पहली बार मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में सरकार बनाने में सफल रही।

5 साल बाद 2019 में भाजपा लगातार दूसरी बार राज्य विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, हालाँकि इस बार उसका मत-प्रतिशत बढ़कर 36.49% हो चुका था, जिसमें पुलवामा की घटना और केंद्र में भाजपा की बंपर जीत के बाद धारा 370 के खात्मे के चलते अंधराष्ट्रवादी भावनाओं का आवेग मुख्यतया जिम्मेदार रहा। हालाँकि, इस बार 40 सीटों पर सिमट जाने के कारण भाजपा को दुष्यंत चौटाला की जजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा था।

लेकिन, 2024 में तो न ही केंद्र में भाजपा को भारी बहुमत हासिल हुआ था, और न ही हरियाणा में ग्रामीण या शहरी क्षेत्र में पिछले 5 वर्षों के दौरान कोई भारी विकास की लहर देखने को मिली। जो देखने को मिला, वो था अग्निवीर योजना, भारी बेरोजगारी एक साथ देश में सबसे ज्यादा बेरोजगार और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन में दमन जो अभी तक जारी है और साथ ही महिला खिलाड़ियों के साथ यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं और उसके खिलाफ हरियाणा का गुस्सा। लेकिन अब जब चुनाव परिणाम सामने आ रहे हैं तो भाजपा को पिछले दो विधानसभा चुनावों से कहीं अधिक वोट और सीटें प्राप्त हुई हैं।

इस चुनाव में हरियाणा के मतदाताओं ने भाजपा को रिकॉर्ड 39.94% प्रतिशत वोट देकर पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। हालांकि कांग्रेस को भी 39.09% वोट हासिल हुए हैं, और वह बेहद कम वोट मार्जिन, लेकिन सीटों में बड़े अंतर से चुनाव हार चुकी है, लेकिन यह चमत्कार कैसे संभव हुआ, इसके गहन विश्लेषण की आवश्यकता न सिर्फ हरियाणा बल्कि समूचे देश को करनी चाहिए। इसका अर्थ तो ये हुआ कि एंटी इनकंबेंसी जितना ज्यादा होगी, जनता उस पार्टी की सरकार बनाने के लिए उतना ही उद्यत होगी? क्या ये हरियाणा में ही संभव है या इसके आधार पर यह मान लिया जाये कि अगले माह महाराष्ट्र में भी यही करिश्मा महाराष्ट्र की जनता दोहराने जा रही है?

आखिर ये कैसा तिलिस्म है, जिसके बारे में अभी तक किसी भी चुनावी विश्लेषक को कोई हवा नहीं है? सबसे विचित्र मामला तो उचाना कलां विधानसभा क्षेत्र में देखने को मिला, जहां से जजपा के अध्यक्ष और पूर्व उप-मुख्यमंत्री, दुष्यंत चौटाला को क्षेत्र की जनता ने धूल में मिला दिया है। पिछली बार 10 सीटें जीतकर जाट बिरादरी के साथ धोखा करने का आरोप झेल रहे दुष्यंत चौटाला को अपने पारिवारिक सीट पर इस बार मात्र 7,950 वोट ही प्राप्त हो सके, और उन्हें क्षेत्र की जनता ने पांचवें स्थान पर धकेल दिया।

भारतीय चुनावी लोकतंत्र की अजीबोगरीब विडंबना: उचाना कलां

लेकिन उससे भी बड़ा कमाल देखिये कि इस जाट बहुल क्षेत्र में जीत किस पार्टी को हासिल हुई। जी हाँ, भाजपा उचाना कलां की सीट को जीतने में कामयाब रही। भाजपा के उम्मीदवार देवेंदर चतर्भुज अत्री ने 48,968 मत पाकर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी, कांग्रेस के ब्रिजेन्द्र सिंह को सिर्फ 32 वोटों से परास्त कर यह सीट जीती है। बता दें कि चौधरी ब्रिजेंद्र सिंह, 17वीं लोकसभा में भाजपा की ओर से हिसार लोकसभा के सांसद थे, जिन्होंने किसानों, जवानों और महिला पहलवानों के मुद्दे पर लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़ कांग्रेस का दामन थामा था। लेकिन हरियाणा के मतदाताओं ने न ब्रिजेंद्र सिंह और न ही दुष्यंत चौटाला को वोट देने के बजाय भाजपा के उम्मीदवार को जिता दिया।

इंडिया गठबंधन की चुनौती में अब महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली

ऐसे कई चमत्कार इस बार के चुनाव में देखने को मिले हैं, जिन्हें देखते हुए भारत में चुनावी लोकतंत्र को लेकर अब समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं आम लोगों में भी गहरे प्रश्न खड़े होने शुरू हो चुके हैं। इसका सबसे पहला असर अगर स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है तो वह है कल शाम ही महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और शिवसेना (ठाकरे) गुट के नेता और महाविकास अघाड़ी गुट के मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल उम्मीदवार, उद्धव ठाकरे के बयान में देखने को मिला।

कल उन्होंने मुंबई में एक एक आयोजन में घोषणा की कि, “मेरी पार्टी महाराष्ट्र की रक्षा के लिए कांग्रेस या एनसीपी (शरद पवार) गुट के द्वारा किसी भी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा का समर्थन करेगी।” उद्धव ठाकरे का यह बयान इस संदर्भ में बेहद अहम है कि महा विकास अघाड़ी गठबंधन में वे मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में आये नतीजों में शिवसेना (ठाकरे) की सफलता का प्रतिशत कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी से काफी कमजोर रहा था, जिसे ध्यान में रखते हुए अभी तक किसी एक चेहरे पर गठबंधन एकमत नहीं हो सका है।

जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में राज्य विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन के लिए सबसे कमजोर कड़ी के रूप में झारखंड को माना जा रहा है, और हरियाणा और महाराष्ट्र को लेकर जीत के दावे काफी अर्से से चल रहे थे। इसमें हरियाणा का किला ढह गया, जिसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी कांग्रेस के ऊपर है।

उधर झारखंड में पहले से ही भाजपा के दिग्गज नेताओं और मुख्यमंत्रियों का डेरा लगा हुआ है, जो झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को आदिवासी विरोधी और कथित बंगलादेशी, रोहिंग्या घुसपैठियों का दुष्प्रचार कर काफी हद तक रक्षात्मक मुद्रा में लाने में सफल रहा है। इंडिया गठबंधन के लिए झारखंड को बचाने की जिम्मेदारी सबसे अहम होनी चाहिए, जिस पर अभी तक कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है।

इसी तरह, फरवरी 2025 में दिल्ली प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी आप पार्टी के लिए चौथी बार चुनाव जीतना शायद सबसे कठिन होने जा रहा है। कांग्रेस के परंपरागत जनाधार पर काबिज होकर आप पार्टी अभी तक जैसा ऐतिहासिक प्रदर्शन दिखा पाने में कामयाब रही थी, अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच उसकी कमजोर होती पकड़ और कांग्रेस के प्रति बढ़ती हमदर्दी, कहीं हरियाणा के हालिया इतिहास की पुनरावृत्ति न करा दे।

दिल्ली में कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा पहले की तरह ध्वस्त है, लेकिन जन-आकांक्षा के मामले में उसे पहले से बढ़त हासिल है। पार्टी के भीतर मौजूद पुराने घाघ कांग्रेसियों और भाजपा दोनों के लिए आप पार्टी को दिल्ली की गद्दी से अपदस्थ करना अभी भी पहला और आखिरी लक्ष्य बना हुआ है। इंडिया गठबंधन भविष्य में मजबूत होगा या छिन्न-भिन्न हो सकता है, इसका दारोमदार बहुत कुछ दिल्ली और झारखंड जैसे छोटे किंतु महत्वपूर्ण राज्यों में उसके रुख, विशेषकर कांग्रेस के दूरगामी लक्ष्यों की विश्वसनीयता पर निर्भर करता है।

इसका दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव और घातक असर इंडिया गठबंधन और विशेषकर कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता को लगने वाला है। जून 2024 के बाद से राहुल गांधी की पहलकदमियों और संसद के भीतर हमलों ने भाजपा-आरएसएस नेतृत्व को हत्थे से उखाड़ दिया था।

जातिगत जनगणना, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक असमानता के साथ-साथ देश में क्रोनी कैपिटल की अंधाधुंध लूट और सरकार के साथ साठगांठ पर आम लोगों के सामने खुलकर बोलने वाले राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था, और पीएम मोदी का उसी अनुपात में गिर रहा था। इस हौसले की उड़ान को एक झटके में काट देना, और वो भी लो प्रोफाइल रहते हुए, हरियाणा चुनाव में पीएम मोदी की यूएसपी समझी जानी चाहिए।

कांग्रेस पार्टी की ओर से हरियाणा चुनाव में धांधली और ईवीएम से छेड़छाड़ को लेकर औपचारिक विरोध की खबरें हैं, लेकिन राहुल गांधी ने कल से चुप्पी ओढ़ ली है। 145 करोड़ के देश में, 100 करोड़ मतदाताओं को अपनी पार्टी की नीतियों, चुनावी गठबंधन, व्यक्तिगत इमेज सहित सटीक ढंग से अपने साथ जोड़ने के लिए चुनावी रैलियों से कहीं अधिक आज व्यक्तिगत लोकप्रियता और उसके बढ़ते-घटते ग्राफ से मापकर अंदाजा लगाना पड़ता है, जिसे 2014 के बाद भारतीय चुनावी लोकतंत्र में एक अनिवार्य शर्त बना दिया गया है।

देखना होगा, महाराष्ट्र, झारखंड और इसके बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन कितना एकजुट रहकर भाजपा के दिग्गज नेतृत्व के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमलों के बारे में सचेत रहते हुए अपने कुनबे को जोड़कर रख पाने में सफल रहते हैं, जिसके बाद ही वह भारतीय मतदाता का भरोसा जीत पाने में कामयाब रह सकती है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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