मकसद आतंकवाद मिटाना है, तो…

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पहलगाम स्थित बैसरण घाटी में हुए आतंकवादी हमले के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने चिर-परिचित अंदाज में प्रतिक्रिया दिखाई। उसने हमले के लिए सीधे पाकिस्तान को दोषी ठहराते हुए पांच “सख्त” कदम उठाए। इनके तहत

  • 1960 में हुई सिंधु जल संधि को लंबित अवस्था में डालने का एलान हुआ
  • सरहद पर स्थित अटारी चौकी को बंद करने का फैसला हुआ
  • कहा गया कि सार्क वीजा रियायत योजना के तहत पाकिस्तानी नागरिकों को भारत आने की इजाजत नहीं दी जाएगी
  • नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में तैनात रक्षा, सेना, नौ सेना और वायु सेना सलाहकारों को भारत से निकाल दिया गया। साथ ही इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायोग में तैनात अपने सलाहकारों को वापस बुला लेने की घोषणा की गई
  • और, दोनों स्थानों पर स्थित उच्चायोगों में कर्मचारियों की संख्या 55 से घटा कर 30 करने का निर्णय हुआ।

इन फैसलों पर गौर किया जाए, तो साफ होता है कि भारत के रुख में आई नई “सख्ती” का सबसे खराब असर पाकिस्तान के नागरिकों पर पड़ेगा। मुमकिन है कि इनसे पाकिस्तान सरकार को संदेश मिले कि आतंकवाद रोकने के मुद्दे पर भारत कोई नरमी दिखाने को तैयार नहीं है।

मगर क्या इनसे आतंकवाद की कमर तोड़ने में भी मदद मिलेगी?

दूर की कौड़ी फेंकी जाए, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत से जाने वाले पानी का बहाव रुकने से पाकिस्तानी आवाम और अर्थव्यवस्था पर जो बुरा असर पड़ेगा, उससे पाकिस्तान की राजसत्ता के लिए मुसीबतें खड़ी होंगी। साथ ही भारत के “सख्त” रुख को देख कर उसमें भय पैदा होगा। इनके परिणामस्वरूप पाकिस्तान सरकार वहां मौजूद आतंकवाद के ढांचे को तोड़ने की दिशा में कदम उठाएगी और इस तरह दहशतगर्दी कमजोर होगी।

मगर ये बात दूर की कौड़ी इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान में आतंकवाद के कई रूप हैं। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, बलूच लिबरेशन आर्मी और इस्लामिक स्टेट- खुरासान (आईएस-के) आदि जैसे आतंकवादी गुटों के निशाने पर खुद पाकिस्तान है। इन गुटों के लगातार जारी हमलों से अपना बचाव करने में पाकिस्तान का सुरक्षा तंत्र नाकाम साबित हुआ है। ऐसे में जिन भारत विरोधी गुटों को पाकिस्तान सरकार का समर्थन बताया जाता है, वे पूरी तरह पाकिस्तान सरकार के नियंत्रण में होंगे या बने रहेंगे, ये बात यकीन के साथ नहीं कही जा सकती।

अंततः भारत की सुरक्षा एवं संप्रभुता को चुनौती दे रहे आतंकवादी समूहों पर विजय तो खुद भारत को ही हासिल करनी होगी। मगर पहलगाम हमले के बाद जो अहम बात नहीं बताई गई है, वो यह है कि भारत सरकार की आतंकवाद विरोधी योजना में अब क्या चुस्ती या सख्ती लाने को सोचा गया है?

भारत जो कदम उठाए हैं, उनमें दूरगामी महत्त्व का फैसला सिर्फ सिंधु जल संधि को निलंबित करना है। बाकी भी घोषणाएं सख्ती संदेश देने वाली भर हैं। ऐसे संदेशों का आतंकवादी संगठनों या उनके संरक्षकों पर कोई असर होगा, यह उम्मीद करने का कोई ठोस आधार नहीं है।

वैसे सवाल तो यह भी बना हुआ है कि सिंधु जल संधि के निलंबन से पाकिस्तान पर तुरंत क्या असर होगा? इस बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई चर्चाओं में इस बात पर सहमति है कि फिलहाल पानी रोकने का इन्फ्रास्ट्रक्चर भारत के पास नहीं है। (https://www.bbc.com/news/articles/cd7vjyezypqo)

खुद पाकिस्तान में भी यही माना गया है कि अल्प अवधि में इस फैसले का शून्य असर होगा। (https://www.dawn.com/news/1906274)

मध्य से दीर्घ अवधि में इसका व्यापक असर हो सकता है, अगर भारत पानी रोकने लिए बांध या कोई अन्य ढांचा बनाने की तरफ बढ़ाए। मगर उस रास्ते में एक रुकावट संधि में मौजूद आर्टिबिट्रेशन यानी पंच निर्णय का प्रावधान है। इसके तहत अगर किसी पक्ष को लगता है कि दूसरा पक्ष संधि की शर्तों का पालन नहीं कर रहा है, तो अंतरराष्ट्रीय पंचाट का सहारा ले सकता है। पाकिस्तान अगर इस प्रावधान का सहारा लेता है, तो भारत के लिए पानी का बहाव रोकने का ढांचा बनाना आसान नहीं रह जाएगा।

इस पृष्ठभूमि में देखें, तो कहा जा सकता है कि भारत ने ‘सख्ती’ का पैगाम जरूर दिया है, लेकिन आतंकवाद की कमर तोड़ने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बताई है। अतीत में मोदी सरकार ने आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हमले का सहारा लिया था। लेकिन उन कार्रवाइयों के क्रमशः नौ और छह साल बाद आज शायद ही कोई यह कहने की स्थिति में होगा कि उनसे आतंकवाद की क्षमता कमजोर हुई।

अगस्त 2019 के पहले तक कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए को दोषी ठहराया जाता था। पांच अगस्त 2019 को इन दोनों को निरस्त कर दिया गया। मगर उससे भी आतंकवाद के खात्मे में कोई मदद नहीं मिली। हां, केंद्र सरकार, उसके समर्थक जमातों और मेनस्ट्रीम मीडिया ने जम्मू-कश्मीर में “सामान्य हालात बहाल” होने का नैरेटिव जरूर फैलाया। मगर पहलगाम हमले के साथ आतंकवादियों ने उस कथानक पर गहरी चोट की है। अब अनेक विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि उस नैरेटिव के कारण ही कश्मीर में सैलानियों की कतार लगी, जिसका लाभ उठा कर बैरिसन घाटी में आतंकवादियों ने इतना बड़ा कत्ल-ए-आम कर दिया। (https://frontline.thehindu.com/the-nation/pahalgam-terror-attack-kashmir-tourism-crisis-baisaran-massacre-security-lapse/article69486148.ece?s=03)

(https://youtu.be/Jrfsi32Hkho?si=YxoyZ_4MyqIN-_CH)

वैसे, जिन लोगों की जम्मू-कश्मीर पर लगातार निगाह रही है, उनके लिए कभी भी यह मानना संभव नहीं हुआ कि जम्मू-कश्मीर में आम हालत बहाल हो गई है। सिर्फ 2024 के आंकड़ों पर गौर करें, तो यह दावा खोखला साबित हो जाता है। अगर जून 2024 के बाद- नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल- के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो औसतन हर महीने एक ना एक ऐसा आतंकवादी हमला होता रहा है, जिसमें सुरक्षा कर्मियों या आम नागरिकों की जान गई है। (https://grok.com/share/bGVnYWN5_95982edb-324d-40ca-b6b7-4a40d60d5880)

इसलिए अब स्थिति सामान्य होने का नैरेटिव भंग हो चुका है, जिससे भारत के सामने मौजूद चुनौतियां अधिक गहरी मालूम पड़ने लगी हैं। इन पर उतनी ही गहराई से विचार-विमर्श की जरूरत है, ताकि चुस्त सुरक्षा व्यवस्था के जरिए नागरिकों के जान-माल को महफूज बनाया जा सके और क्रमिक रूप से आतंकवाद का ढांचा तोड़ने के कदम उठाए जाएं। वे कदम क्या होंगे, इस पर खुले दिमाग से विस्तृत चर्चा की जरूरत है। देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना और उग्र बातों के जरिए लोगों में भावावेश पैदा करना इस दिशा में सहायक नहीं होगा। बल्कि उलटे इससे आतंकवादियों का मकसद ही सधेगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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