2024 के चुनावी समर में भारत जोड़ो यात्रा और बीबीसी डॉक्यूमेंटरी का असर?

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आज राहुल गांधी की 7 सितम्बर को कन्याकुमारी से शुरू हुई भारत जोड़ो यात्रा श्रीनगर समाप्त हो गयी है। यात्रा राहुल गांधी ने अपने दिवंगत पिता राजीव गांधी, स्वामी विवेकानंद और तमिल कवि त्रिवल्लुवर को श्रद्धांजलि देने के बाद शुरू की थी। यात्रा के शुरू होने के साथ ही प्रथम आक्रमण उनकी अमेठी की प्रतिद्वंदी स्मृति ईरानी के आक्रमण के साथ हुआ था। जो बाद में हमेशा की तरह स्मृति ईरानी का बड़बोलापन ही निकला। उसके बाद तो वे सारे आक्रमण हुए, जिनका उल्लेख करना यहाँ मेरा मकसद कतई नहीं है।

आज जब यह यात्रा समाप्त हो रही है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी की जो छवि, जैसे भी, निर्मित की गयी थी अथवा बन गयी थी, उसमें एक जबरदस्त सकारात्मक परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। सफ़ेद टीशर्ट में यात्रा कर रहे राहुल गांधी, उस राहुल गांधी से नितांत अलग दिख रहे हैं, जिनके बारे में सुना जाता था कि वे कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए भी या लोकसभा का सत्र चलने के दौरान भी अचानक छुट्टियां मनाने बीच बीच में जाने कहाँ विदेश चले जाते हैं।

भारत जोड़ो यात्रा का समापन एक ऐसे समय हो रहा है जो प्रधानमंत्री मोदी के लिये सहज नहीं है। बीबीसी के उस वृत्त चित्र का दूसरा भाग भी यूनाइटेड किंगडम में रिलीज हो चुका है जो भारत सरकार ने देश में बैन कर रखी है और जिसका प्रदर्शन अनेक जगह करने के जुर्म में पुलिस विश्वविद्यालयों सहित अनेक जगह छात्रों तथा नागरिकों की धरपकड़ में जुटी है।

हालांकि, जैसा कि मीडिया या जानकारों से पता चल रहा है कि दोनों वृतचित्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में नहीं था। जब भी 2002 के गुजरात के दंगों की बात होती है तो बीजेपी 1984 के दिल्ली दंगों की याद दिलाती है। इससे 2002 के दंगे न्यायपूर्ण नहीं हो जाते यह एक अलग बात है, पर, क्या बीजेपी स्वयं उन दंगों को कभी भुलाने के लिये तत्पर हुई है, इस पर हमेशा प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा है।

वस्तुत: जब भी मौक़ा लगा, बीजेपी के बड़े नेताओं ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही उन दंगों की याद लोगों को दिलाई है, फिर चाहे वह समाज के एक वर्ग को धमकाने और बहुसंख्यक से वोट बटोरने के लिये ही क्यों न हो। वास्तव में 2002 की यादों को दोहराना बीजेपी को कभी भी राजनीतिक रूप से हानिकारक लगा ही नहीं। फिर बीजेपी को बीबीसी के उन दो वृतचित्रों से डर क्यों लगा?

दोनों वृतचित्रों के खिलाफ बीजेपी सरकार की भारी-भरकम प्रतिक्रिया से, जेएनयू में की गयी बिजली कट से, जामिया में पुलिस भेजने के कार्य से और अजमेर में राजस्थान के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 10 छात्रों को निलंबित करने की प्रतिक्रिया से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वृतचित्र के प्रदर्शन से केंद्र सरकार न केवल तिलमिलाई हुई है बल्कि स्वयं को घिरा भी महसूस कर रही है।

समझा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री सहित बीजेपी का हर छोटा-बड़ा नेता भारत के जी-20 के अध्यक्ष बन जाने के गुणगान करने में लगा हो तथा इस हर वर्ष किसी अन्य देश के बारी बारी से मिल जाने वाली अध्यक्षता को देश के लोगों को भारत के विश्वगुरु बन जाने के रास्ते पर पड़ने वाले कदम के रूप में देखने के लिये प्रेरित कर रहे हों तब आवश्यकता ऐसी बातों को होती है जो इन सब की चापलूसी में कही जाये, उस समय बीबीसी के वृत्त चित्र, राहुल की यात्रा का पूर्ण होना, लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज लहराना कतई दिल खुश करने वाली या बीजेपी के मनोबल को बढ़ाने वाली बातें तो नहीं हैं।

संपूर्ण यात्रा के दौरान और अब उसके समापन पर राहुल गांधी के व्यक्तित्व में आये परिवर्तन उन सबने महसूस तो किये ही हैं जो यात्रा पर थोड़ी भी नजर रख रहे थे। उनके अंदर की विनम्रता बाहर आई है, उन्हें अपने वक्तव्यों पर और अधिक नियंत्रण हासिल हुआ है और वे एक मोहब्बत से भरे ऐसे इंसान के रूप में खुद को पेश कर सके हैं जो हंसता है, गले मिलता है और जन से जुड़ने की इच्छा रखता है। यह उस छवि के ठीक विपरीत है जो राहुल से ज्यादा समय देकर और मेहनत करके प्रधानमंत्री ने बनाई है। वे एक अधिनायकवादी व्यक्ति के रूप में दिखते हैं। जिनका सिर केवल अपने आदेश के पालन के लिये इशारा करते ही दिखता है।

यहाँ मेरा उद्देश्य भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को कितना लाभ होगा या बीजेपी को कितना नुकसान होगा,उस पर चर्चा करना नहीं है। मैं केवल यह बताना चाहता हूँ कि राहुल गांधी के लिये चुनौती तो अभी शुरू हुई है। ये चुनौतियां दो हैं। प्रथम, आज मोदी जी की जो कसी हुई पकड़ देश की संस्थाओं तथा देश के एक वर्ग में है, उसमें किसी भी मोदी विरोधी संदेश अथवा लहर को गढ़ने का मतलब उन संस्थाओं और उनके समर्थकों की नाराजगी को आमंत्रित करना है।

दूसरी, चुनौती यह है कि बीबीसी के दोनों वृतचित्र केवल यह नहीं बताते कि वर्ष 2002 में क्या हुआ था। वे यह भी बताते हैं कि मोदी जी ने अपने राजनीतिक जीवन की गुजरात में कहाँ से शुरुआत की थी और उसे किस तरह उसका पुनर्निर्माण किया और उसे किस तरह पुन: ढाला है। कहने का तात्पर्य है कि 2024 के चुनावी समर में एक बदले हुए राहुल गांधी का मुकाबला उस विरोधी से होगा जिसे 2002 से अपने व्यक्तित्व को परिस्थिति अनुसार बदलते रहने में महारत हासिल है।

(अरुण कान्त शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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