इस युद्धरत समय में शांति की आवाज बुलंद करना ही राष्ट्रभक्ति है!

7-8 मई की मध्यरात्रि को भारतीय वायुसेना ने पाक अधिकृत कश्मीर सहित पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में कुल 9 ठिकानों पर मिसाइल हमला किया। भारत सरकार का दावा है कि उसने पाक स्थित आतंकी प्रशिक्षण केंद्रों को निशाना बनाया है। इस हमले में 90 आतंकियों के मारे जाने का दावा किया जा रहा है, जिनमें जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर के परिवार के 10 लोग भी शामिल हैं।

इस लिहाज से यह हमला बालाकोट की तुलना में कहीं अधिक बड़ा जवाबी हमला है। दूसरी ओर, पाकिस्तानी सरकार का दावा है कि इस हमले में 3 साल की एक बच्ची सहित आम पाकिस्तानी नागरिकों की ही मौत हुई है और उसकी जवाबी कार्रवाई में भारतीय वायुसेना के 5 विमान भारतीय सीमा पर दुर्घटनाग्रस्त हुए हैं।

इस हमले के बाद से भारत-पाक सीमा पर, विशेषकर जम्मू के सीमावर्ती पुंछ में, दोनों ओर से भारी गोलाबारी जारी है, जिसके चलते एक भारतीय सैनिक और 4 बच्चों सहित 13 भारतीय नागरिकों के हताहत होने की खबर है और जान-माल का भारी नुकसान हुआ है। पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों के पाकिस्तान से सटे इलाकों में अफरा-तफरी का माहौल है और आम भारतीय नागरिक किसी संभावित बड़े हमले की चपेट में आने से बचने के लिए पलायन कर रहे हैं।

पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर भारतीय हमले को लेकर जश्न का माहौल है। हर तरफ “बदला-बदला” की ही चीख-पुकार मची हुई है और इसे इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे भारतीय सेना ने समूचे पाकिस्तान पर हमला करके विजय प्राप्त कर ली है। इस युद्धोन्मादी चीख ने उन पीड़ित नागरिकों की चीख को दबा दिया है, जो पूरी तरह निर्दोष होने के बावजूद इन हमलों का शिकार हो रहे हैं, फिर चाहे वे सीमा के इस पार हों या उस पार।

अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि पाकिस्तान की गोलाबारी से भारतीय नागरिक ही हताहत हों और भारतीय पक्ष के हमलों से पाकिस्तानी नागरिकों को कोई नुकसान न हो। सीमाओं के आर-पार का कुछ-कुछ सच बहुत देर बाद आम लोगों तक पहुंचता है, तब तक दोनों ओर काफी बर्बादी हो चुकी होती है। किसी भी युद्ध का यही सच है।

यह युद्धोन्माद दोनों ओर की सरकारों के लिए फायदेमंद है। पाकिस्तान की सरकार में वहां के नागरिकों का नहीं, सैन्य प्रतिष्ठान का कब्जा है और दिखावे की नागरिक सरकार पूरी तरह उसके अधीन है। पाकिस्तान में सेना की इच्छा के बिना कोई पत्ता नहीं हिलता। उसने भारत सरकार के इन हमलों का जोरदार जवाब देने की बात कहकर आम पाकिस्तानियों में युद्धोन्माद की भावना जगाने की कोशिश की है और इस तरह अपने प्रति पनप रहे आम जनता के असंतोष को भारत के खिलाफ मोड़कर वैधता प्राप्त करने की कोशिश कर रही है।

भारत में भी यही स्थिति है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार और पूरा संघी गिरोह इस मौके का उपयोग पाकिस्तान के खिलाफ आम भारतीयों में युद्धोन्माद जगाने, आम मुस्लिम नागरिकों के खिलाफ नफरत फैलाने और कुल मिलाकर देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों से निपटना तो एक अलग मामला है, फिलहाल उसकी नजर बिहार और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों पर टिकी है, ताकि ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर वोटों की फसल काटी जा सके।

जब कहने को कोई उपलब्धि न हो, आम जनता के असली मुद्दों पर कुछ करने का माद्दा न हो, तब यह ‘राष्ट्रवाद’ ही बड़ा काम आता है और राजनीति के अच्छे से अच्छे खिलाड़ी को धूल चटा देता है। संघी गिरोह इस काम में काफी पारंगत है और वह जानता है कि देश और देश से बाहर के आतंकियों को और उन्हें पालने-पोसने वालों को वह मिट्टी में भले न मिला पाए, विपक्ष के पहलवानों की इस मुद्दे के सहारे मिट्टी पलीद तो जरूर कर सकता है। सत्ता को साधने के लिए संघी गिरोह कुछ भी गुलाटियां खा सकता है। अभी हाल ही में हमने उसे जातिगत जनगणना के नाम पर अपने दशकों पुराने रुख से पलटी मारते देखा है।

जो लोग पाकिस्तान की सैन्य शक्ति की तुलना भारत की सैन्य ताकत से कर रहे हैं और बता रहे हैं कि भारत के सामने पाकिस्तान कहीं नहीं टिकता, वे यह भूल रहे हैं कि परमाणु समकक्षता इस असमानता को मिटा देती है। चीन और तुर्की आज पाकिस्तान के साथ खुलकर खड़े हैं और हथियारों की आपूर्ति करने के लिए तैयार हैं। किसी वास्तविक युद्ध की स्थिति में अमेरिका दोनों युद्धरत देशों को अपने हथियार बेचकर मुनाफा कमाएगा।

यूक्रेन से लड़ रहा रूस भारत के किसी काम आने वाला नहीं है। संयुक्त सुरक्षा परिषद से भी भारत को कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि 25 अप्रैल को सर्वसम्मति से पारित एक प्रस्ताव में उसने पहलगाम में आतंकवादी हमले की निंदा तो की है, लेकिन इस हमले में पाकिस्तान और लश्कर-ए-तैयबा के शामिल होने के लगभग पुष्ट प्रमाणों के बाद भी प्रस्ताव में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया है।

प्रस्ताव की भाषा को नरम रखने में चीन का प्रभाव बताया जा रहा है, जो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी है। गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेता होने की हैसियत से पूरी दुनिया में भारत की जो साख थी, वह अब नहीं रही और इसके लिए भाजपा की वे नीतियां ही जिम्मेदार हैं, जो भारत को विदेश नीति के मामले में अमेरिका का पिछलग्गू बनाती हैं।

शांति का कोई विकल्प नहीं है और युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। धर्म, जाति, राष्ट्रवाद जैसे नशीले मुद्दों से बाहर आकर उन इंसानी जिंदगियों के बारे में सोचने की जरूरत है, जो युद्ध का कोई पक्ष नहीं होते, लेकिन उन्हें जबरन इधर या उधर का पक्षधर बनाया जाता है, ताकि शासक वर्गों के स्वार्थ की भट्टी में उनकी बलि दी जा सके।

इस युद्धरत समय में शांति की आवाज बुलंद करना ही राष्ट्रभक्ति है, चाहे इस समय यह आवाज कितनी ही कमजोर क्यों न हो। इस विश्व और इस उपमहाद्वीप की सभ्यता को युद्ध नहीं, शांति ही आगे बढ़ाएगी। अतीत का सार्वकालिक सबक भी यही है। इस युद्ध के विस्तार को रोकना ही दोनों देशों की आम जनता के हित में है।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं)

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