अपनी श्रेष्ठ शख्सियतों का भक्षण कर रहा भारत

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जेल। यह महज एक शब्द ही तो है। लेकिन जब आप इसका इस्तेमाल अपने आशंकित भविष्य के रूप में करते हैं तो यह मुंह में भारीपन और स्वाद कड़वा हो जाता है, पित्त की तरह।

कुछ वर्ष पहले तक, अपने काम या अपनी कही बातों के लिए खुद को किसी भारतीय जेल जाने की बात सोचना, अपनी मौत- जो एक दुखद लेकिन दूर की आशंका है- की कल्पना करने की तरह ही अकल्पनीय था। पहले जब मैं अपने साथी पत्रकारों से मिलती थी, तो हम किन खबरों पर काम कर रहे हैं के बारे में या ताज़ा राजनीतिक हलचल या गतिविधियों के बारे में बातें किया करते थे।

लेकिन आज बेतुके आरोपों में गिरफ़्तारी और मुकदमे की आशंका मेरे और कई भारतीय पत्रकारों, इतिहासकारों, लेखकों, अकादमिकों, बुद्धिजीवियों और अन्य के मन के किसी न किसी कोने में छिपी रहती है, उन सभी के मन में जो खुल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना करते हैं। अब जब हम मिलते हैं तो हम वकीलों के बारे में, हमारे ऊपर कौन से आरोप लगाए जाएंगे और उसकी सजा क्या होगी- उसके बारे में, कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए पैसे जुटाने के बारे में और यह सुनिश्चित करने के बारे में कि हमारे खुद के और वित्तीय मामले सही हैं या नहीं- जैसे विषयों पर बात करते हैं।

जब से श्री मोदी सत्ता में आए हैं, यानि 2014 से हिन्दू राष्ट्रवादियों की भीड़ ने एक के बाद एक कथित दुश्मनों- मुस्लिम, छात्र, कार्यकर्ता, विपक्षी नेता, दलित, समलैंगी पुरुष व महिलाओं- को निशाना बनाया है और हमारे अविश्वसनीय रूप से बहुलतावादी देश को हिन्दू एकाधिकारवाद का गढ़ बनाने के संकीर्ण प्रयास में झोंक दिया है।

दो सप्ताह पहले एक और रेखा लांघी गयी जब सरकार ने लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ आरोपों की घोषणा की। सुश्री रॉय, जिन्होंने “गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स” जैसा उपन्यास और “माइ सिडिशस हार्ट” जैसे निबंध संग्रह लिखा है, वह हमारे समय की महान लेखकों में से एक हैं। वह भारत में दशकों से सच, सहिष्णुता और विवेक की आवाज हैं।

श्री मोदी की दक्षिणपंथी राजनीति की अराजकता में धंसते भारत में उनकी किताबें और निबंध आजादी के बाद के सत्तारूढ़ वर्ग की उदासीनता को बयान करते हैं। सुश्री रॉय को जेल में डालने का मतलब अमेरिका में टोनी मॉरीशन या जेम्स बाल्डविन जैसे नैतिकवान लेखकों को कैद करने जैसा ही होगा।

उनके खिलाफ आरोप भारत के लिए एक निर्णायक पल है; यदि सुश्री रॉय को गिरफ्तार किया जाता है, वह देश की सबसे विख्यात अंतरात्मा की कैदी होगीं।

वह लेखकों, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की बढ़ती जमात में शामिल हो जाएंगी।

सुश्री रॉय पर आरोप लगने के बाद, 12 प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समूहों ने एक संयुक्त बयान जारी कर भारतीय अधिकारियों पर “पत्रकारों, मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वालों, कार्यकर्ताओं और सरकार के आलोचकों को चुप कराने के लिए” आतंकविरोधी कानून, वित्तीय अनियमितताओं और अन्य कानूनों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया।

यह वर्षों से चल रहा है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिवल लिबर्टीस के अनुसार श्री मोदी के सत्ता में आने से पहले के पांच वर्षों में केंद्र सरकार ने 69 लोगों के खिलाफ गैर-कानूनी गतिविधि कानून (यूएपीए) लगाया था। इस कानून के तहत बिना समुचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए लंबे समय तक लोगों को कैद रखा जा सकता है। श्री मोदी के शासन में सितंबर 2022 तक यह संख्या 288 हो चुकी थी।

सुश्री रॉय के खिलाफ आरोप बेतुके हैं। उन पर 2010 में की गई टिप्पणियों, जिसमें उन्होंने विवादास्पद, अशांत कश्मीर को लेकर भारत सरकार के दावों पर सवाल उठाया था, को लेकर भड़काऊ भाषण देने, विभिन्न समूहों में वैमनस्य फैलाने का आरोप है।

लेकिन उनके खिलाफ 13 साल बाद कार्रवाई करने का वास्तविक कारण उनका श्री मोदी के शासनकाल में फैलायी जा रही असहिष्णुता और हिंसा का बहादुरी से आलोचना करना है। वह व उनके जैसे लोग भारत की महान परिसंपदा हैं क्योंकि वह सच्चाई और शालीनता के पक्षधर हैं लेकिन सरकार उन्हें देश का शत्रु करार दे रही है। भारत अपने श्रेष्ठतम और प्रतिभाशाली विभूतियों को निगलता जा रहा है।  

यह बताना भी उल्लेखनीय है कि आरोप लगने से पहले सितंबर में सुश्री रॉय को प्रतिष्ठित यूरोपियन निबंध पुरस्कार मिला था जिसके बारे में जूरी ने कहा था कि उनके “निबंध का इस्तेमाल फासीवाद से लड़ने, उसका विश्लेषण और उसका प्रतिरोध कैसे खड़ा किया जा रहा है, यह बताने’’ के लिए दिया गया है। यह पहली बार नहीं है कि “फासीवाद” मोदी शासन और उनके तरीकों के संदर्भ में इस्तेमाल किया गया है।

दूसरे लोग जो भारत में अन्यायपूर्ण आरोपों को झेल रहे हैं, उनमें आतंकवाद संबंधित आरोप झेल रहे कश्मीरी मानवाधिकार रक्षक खुर्रम परवेज़, जिन्होंने कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों और उग्रवादियों के अत्याचारों का दस्तावेजीकरण किया और छात्र-कार्यकर्ता उमर खालिद भी शामिल हैं, जिन पर मोदी सरकार की तरफ से लाए गए भेदभावपूर्ण नागरिक कानूनों के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के बाद हिंसा उकसाने का आरोप है।

इसके अलावा 16 लोग, जिनमें कार्यकर्ता, पत्रकार, कवि, एक प्रोफेसर और एक बूढ़ा पादरी भी शामिल है, जिन्हें सरकार के दमनकारी तरीकों के खिलाफ बोलने को लेकर श्री मोदी के खिलाफ गड़बड़ी फैलाने और बगावत भड़काने के आरोप में जेल में डाला गया था। पादरी, जिन्हें पार्किंसन बीमारी थी, को हिरासत में ही कोविड हो गया और 2021 में उनकी मौत हो गई।

श्री मोदी से भी पहले, भारत में राजनीतिक हिंसा आम थी, निचली जातियों के लोग समाज के हाशिये पर जी रहे थे और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा रोजमर्रा की बात थी। लेकिन पिछली सरकारें कम से कम कानून के राज की बातें तो करती थीं, श्री मोदी की पार्टी में पदाधिकारियों ने खुले आम भीड़ की हिंसा को प्रोत्साहित किया है। पिछले साल, सामूहिक बलात्कार के कुख्यात मामले में 11 कैदियों को रिहा किया गया और पार्टी पदाधिकारियों ने माल्यार्पण कर उनका स्वागत किया।

यह ताकतवर और उसका प्रतिरोध करने वालों के बीच उसी पुराने संघर्ष का आधुनिक संस्करण है। लेकिन, डिजिटल युग में, भारत में ताकतवरों को सरकार समर्थित मीडिया घरानों, ऑनलाइन कुत्सा अभियानों और ट्रोल सेनाओं का साथ मिल रहा है जिनके झूठ सच और नैतिकता को मिटा रहे हैं और अधिक हिंसा को बढ़ा रहे हैं। प्रतिरोध करने वालों के पास सिर्फ और सिर्फ अपनी नैतिक स्पष्टता की ही ताकत है।

पत्रकारों, लेखकों और अन्य आलोचकों की आवाज दबाकर या जेल में डालकर भारत न केवल अपनी लोकतान्त्रिक साख खो रहा है, बल्कि ऐसी शख्सियतों के दिमाग को भी खो रहा है जिन्होंने संस्कृति को अद्भुत कला, समृद्ध साहित्य और दर्शन, प्राचीन मंदिर, शतरंज और कामसूत्र दिए हैं।

भारत को बेजुबान बनाया जा रहा है, और बच्चे झूठ, दुष्प्रचार, भ्रामक सूचनाओं के माहौल में बड़े हो रहे हैं। विज्ञान संदिग्ध होता जा रहा है, इसी साल सरकार ने शायद कुछ स्कूली पाठ्यक्रमों से विकासवाद और आवधिक सारणी (इवोलूशन और पीरियोडिक टेबल) जैसी बुनियादी चीजें हटा दीं हैं (हालांकि कुछ अधिकारियों ने इसका खंडन किया है)। उल्लेखनीय है कि 2018 में श्री मोदी के उच्च शिक्षा मंत्री ने कहा था, “विकासवाद वैज्ञानिक रूप से गलत है क्योंकि किसी ने वानर को मनुष्य में बदलते नहीं देखा था।”

सुश्री रॉय जैसी लेखक हमारे समय की प्रत्यक्षदर्शी हैं जिसमें हम जी रहे हैं। यदि सरकार उन्हें या स्वतंत्र सोच रखने वाले हर एक व्यक्ति को भी जेल में डाल देती है, तो मोदी शासन के वर्षों की कहानी बदल नहीं जाएगी। इसका केवल इतना ही अर्थ होगा कि तब वह कहानी राजनीतिक बंदियों की आंखों के जरिए बताई जाएगी।

इतिहास उन लोगों को नायक के रूप में याद करेगा। उन्हें जेलों में ठूंसने वालों की तानाशाह के रूप में आलोचना की जाएगी।

(विद्या कृष्णन का लेख, न्यूयॉर्क टाइम्स से साभार।)

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