ऑपरेशन सिंदूर ने उठते सवालों पर विराम लगाने के बदले सरकार को ही बड़ी मुश्किल में डाल दिया है 

इसे समय का फेर ही कहा जा सकता है, क्योंकि मोदी सरकार जिन चीजों को अभी तक आगे बढ़ाती थी, उनसे काम बन जाता था, और 2014 के बाद व्यापक हिंदू समर्थक जो असल में खुद को मोदी के साथ जोड़कर देखना पसंद करता था, वापस फोल्ड में आ जाया करता था। पुलवामा कांड इसका चरमोत्कर्ष था, जिसका 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा को अभूतपूर्व लाभ भी मिला। 

लेकिन पिछली बार के बालकोट एयरस्ट्राइक की तुलना में इस बार पाकिस्तान में 9 आतंकी ठिकानों पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अभियान के बावजूद वैसा जन-समर्थन देखने को नहीं मिला, जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। इस विषय को लेकर तमाम व्याख्याएं की जा रही हैं, जिसमें भू-राजनैतिक बदलाव की भूमिका सबसे अहम मानी जा रही है।

भारतीय थिंक टैंक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हर्ष वी पंत ने भी ‘भारत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी’ शीर्षक के साथ एक लेख जारी किया है, जिसमें उनका मानना है कि ऑपरेशन सिंदूर के जरिये भारत सामरिक बढ़त हासिल करने के बावजूद नैरेटिव के मामले में पाकिस्तान से पिछड़ गया है। पंत लिखते हैं, “पाकिस्तानी प्रतिक्रिया के जवाब में ही भारत ने पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों पर हमले किए। यहां तक कि पाकिस्तान ने अपना एयरस्पेस खोले रखकर भी अपने नागरिकों की जान दांव पर लगा दी, पर भारत ने उस स्थिति में भी संयम का परिचय दिया। इसके बावजूद चीन और तुर्किये जैसे देशों ने खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया, जबकि भारत के पक्ष में कोई देश इस प्रकार सामने नहीं आया। इस प्रकरण के सबक एकदम स्पष्ट हैं कि यह भारत की लड़ाई है जो उसे खुद ही लड़नी होगी।”

यहां पर ध्यान में रखना होगा कि ओआरऍफ़ जैसे थिंक टैंक एक प्रकार से भारतीय राज्य की सोच और दशा-दिशा को ही भू-राजनैतिक परिदृश्य में आगे बढ़ाते हैं। पंत आगे लिखते हैं, “राजनीतिक, आर्थिक, कूटनीतिक एवं सामरिक सभी स्तरों पर भारत को अपना पक्ष मजबूत रखना होगा, जिसकी राह आत्मनिर्भरता से खुलेगी। आत्मनिर्भरता के साथ ही दृढ़ता भी आवश्यक होगी।

हमें विचार करना होगा कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद एक कंगाल-तंगहाल एवं नाकाम देश जो तमाम मोर्चों पर संघर्षरत है, वह वैश्विक स्तर पर अपने पक्ष में नैरेटिव खड़ा करने में कैसे सफल हुआ। भविष्य में ऐसे किसी संघर्ष की स्थिति में हम उसकी काट कैसे करेंगे।”

उनकी आत्म-स्वीकारोक्ति इस बात की तस्दीक कर रही है कि कहीं न कहीं अमेरिका पर जरूरत से अधिक निर्भरता और शेष विश्व से बढ़ती दूरी ने सत्ता-प्रतिष्ठान को गहरी नींद से उठा दिया है। याद कीजिये, अभी कुछ महीने पहले ही हम फाइव आईज देशों में से एक कनाडा के साथ कितने खराब तरीके से उलझे थे। यहां तक कि उसी तरह के मामले में हम अमेरिकी अदालत और एफबीआई की जांच के दायरे में हैं। 

यूरोप तक को हमारे विदेश मंत्री के चुभते प्रश्नों से दो-चार होना पड़ा। भाजपा सरकार देश के भीतर मन-मुताबिक नैरेटिव बनाने में तो कामयाब हो ही चुकी थी, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि उसने भी अपने गढ़े नैरेटिव को सच मानकर अमेरिका को छोड़ बाकी मुल्कों पर आजमाना शुरू कर दिया था। 

ऑपरेशन सिंदूर के बारे में मीडिया से बात करते हुए विदेश मंत्री, एस जयशंकर का विवादित बयान मौजूदा सरकार की वास्तविक मनःस्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है, जिसे लगता था कि पाकिस्तान पिछली बार की तरह इस बार भी बालाकोट की पुनरावृत्ति होने देगा, जबकि उसने इस बार पुख्ता तैयारी कर रखी थी।

नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी ने इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया, क्योंकि यह सेना के मनोबल और भारत के ऑपरेशन सिंदूर से वास्तविक रणनीतिक लक्ष्य से जुड़ा है। ऐसा जान पड़ता है कि मोदी सरकार को पहली बार एक बड़ा झटका लगा है, क्योंकि वह अभी तक यही मानकर चल रही थी कि मीडिया पर पकड़ और विश्व-भ्रमण के दौरान विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के साथ गर्मजोशी भरा व्यवहार भारत की पोजीशन को लगातार नई ऊंचाइयों पर ले जा चुका है।

डोनाल्ड ट्रंप जैसे मित्र ने एक झटके में इन सारी गलतफहमियों को दूर कर दिया है। आज भारत के पक्ष में कौन खड़ा है? मौजूदा टैरिफ वॉर में विश्व मुख्यतया तीन हिस्सों में बंटा नजर आता है। अमेरिका, चीन+रूस और यूरोपीय संघ के देश। विश्व में भू-राजनैतिक मामलों में रूस के विदेश मंत्री लावरोव को काफी ऊंचा दर्जा प्राप्त है। पिछले दिनों एक इंटरव्यू में उनका कहना था कि अमेरिका चीन के खिलाफ भारत को इस्तेमाल करना चाहता है।

क्या चीन इस तथ्य से बेखबर है? कत्तई नहीं, क्योंकि चीन लंबे अर्से से विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका है,और पिछले दस वर्षों से वह लगातार अमेरिकी नाकेबंदी से डटकर जूझते हुए आगे बढ़ रहा है। क्या चीन ने भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की कोई सच्ची कोशिश की? इसका कोई सरल जवाब शायद ही किसी के पास उपलब्ध हो, लेकिन ब्रिक्स देशों के संगठन के संस्थापकों में भारत भी एक देश रहा है। शंघाई सहयोग संगठन के भीतर भी भारत एक प्रमुख देश है।आर्थिक सहयोग संगठन आरसीईपी के गठन के वक्त भी भारत उसमें शामिल था, लेकिन ऐन समझौते के वक्त भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समझौते की मेज से वापस आ गये। 

यह सही है कि RCEP जैसे मुक्त व्यापार संगठन से भारतीय किसानों और दुग्ध उत्पादकों के हितों को नुकसान पहुंच सकता था, लेकिन भारत के लिए पूर्वी एशियाई मुल्कों के साथ संबंधों को बढ़ाने की अपार संभावनाओं के द्वार भी खुलते। आज हम एक-एक देश के साथ अलग-अलग FTA के लिए जी तोड़ कोशिश कर ही तो रहे हैं, जबकि विश्व में वास्तविक ग्रोथ और नई तकनीक पर काम पूर्वी एशिया के मुल्कों में हो रहा है। बाकी ब्रिक्स और एससीओ में हाल के दिनों में भारत की भूमिका को उत्साहवर्धक बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता। 

हर्ष पंत ने भी अपने लेख के अंत में सारी उम्मीद 25 देशों की यात्रा पर गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल से लगा रखी है, जिसके बारे में हम खबरों में पढ़ रहे हैं। दरअसल थिंक टैंक और भारतीय विदेश नीति को समग्रता के साथ देश की आंतरिक जरूरतों के मुताबिक अपनी विदेश नीति के सुर को लगातार ट्यून करते रहना होता है। भारत की वैश्विक नीति की जो आधारशिला पूर्व प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी, कमोबेश देश अभी तक उसी पर चल रहा था। 

ये तो 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी का उभार और उसके बाद एक के बाद एक विदेशी यात्राओं का सिलसिला था, जिसने आम भारतीय के दिलो-दिमाग में इस बात को पूरी तरह से बिठा दिया कि भारत और भारतीय पासपोर्ट की दुनिया में काफी मान-सम्मान है। डोनाल्ड ट्रंप ने दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद इसे ही ध्वस्त किया, और अब पोस्ट ‘ऑपरेशन सिंदूर” के बाद यह हमारे कानों में भांय-भांय कर रहा है।

देशहित में क्या ही अच्छा होता कि सरकार विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर अब तक की भूल-चूक-लेनी-देनी को स्वीकार कर गंभीरतापूर्वक एकसाथ मिलकर आंतरिक एकता (सांप्रदायिक विभाजन पर पूर्ण रोक) के साथ-साथ विदेश नीति को पुनर्गठित करने के लिए आगे बढ़ने का साहस दिखाए। 

आज जब कनाडा और यूरोपीय संघ जैसे अमेरिका से नाभिनालबद्ध देशों को अपने देशहित में रिश्तों पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है, तो भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्क, जिसे चारे के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए QUAD जैसे संगठनों का सदस्य बनाया जाता है, को तो तत्काल करना चाहिए। सवाल है कि क्या हमारे नीति-निर्माता वास्तव में पार्टी हित से ऊपर देशहित को रखते हैं?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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