अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: 34 साल बाद भी नहीं मिला रुचिका गिरहोत्रा को न्याय

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महिला दिवस की पूर्व संध्या से दो दिन पहले आए एक फ़ैसले ने रुचिका गिरहोत्रा की हौलनाक व दर्दनाक सच्ची कहानी/दास्तां को एकबारगी फिर मौंजू कर दिया है। यह कहानी चौंतीस साल लंबी है। कदम-कदम पर भारतीय राज्य व्यवस्था, न्यायपालिका, मीडिया और बेलगाम-बेरहम-निर्लल्ज अफ़सरशाही का वह असली चेहरा दिखती है जो हमें गुस्से और शर्म के सिवा कुछ नहीं देता। आज के दिन आपको रुचिका की सच्चाई से लाज़मी वाक़िफ होना चाहिए। नीचे जो आप पढ़ेंगे; वह मीडिया के एक छोटे से हिस्से की निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता पर आधारित है। यह पत्रकार भी उस हिस्से का एक अंग रहा है।

इस सच्ची कहानी में ग्यारह साल की एक किशोरी पीड़ित है और एक आईपीएस अधिकारी तथा इसकी हिफाज़त करने वाला प्रभावशाली तबका खलनायक! ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसी कहानी किसी भी किशोरी अथवा लड़की की हो सकती है लेकिन रुचिका की ज़रूर है जो टेनिस की बेहतरीन खिलाड़ी बनना चाहती थी लेकिन उसे राज्य व्यवस्था की विसंगतियां ने मौत को गले लगाने पर मजबूर कर दिया। ऐसी उम्र में, जो अपनी प्रतिभा को तराशने, भविष्य को पंख लगाने और ख़्वाबों को हकीक़त में बदलते देखने की उम्र होती है।

पंचकूला की रुचिका गिरहोत्रा चंडीगढ़ के सेक्टर 26 के सेक्रेट हार्ट में पढ़ाई करती थी। पिता एससी गिरहोत्रा यूको बैंक में कार्यरत थे। एक छोटा भाई आशु था। मां का देहांत काफी पहले हो चुका था। रुचिका प्रतिभावान छात्रा थी और टेनिस की होनहार खिलाड़ी। ग्यारह साल की उम्र में ही रुचिका ने अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से सबका ध्यान अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया था।

बात अगस्त 1990 की है। उन दिनों हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन के प्रधान आईपीएस, पुलिस निरीक्षक शंभू प्रताप सिंह राठौर (एसपीएस राठौर) थे। वह 1966 के हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी थे। राठौर की बेटी भी रुचिका की क्लास में पढ़ती थी। बेटी के ज़रिए राठौर ने कई बार रुचिका के खेल के बारे में सुना था। खेल की चर्चा जब ज़्यादा होने लगी तो 11 अगस्त 1990 को आईजी राठौर हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन के मुखिया होने के नाते रुचिका के घर गए और उसके पिता से कहा कि उनकी बेटी बहुत अच्छा खेलती है। एसोसिएशन उसे अच्छी ट्रेनिंग दिलाना चाहती है। आप रुचिका को ऑफिस भेज दीजिए।

हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन का दफ़्तर एसपीएस राठौर के बंगले के अंदर ही था। यहीं पर एक बड़ा-सा टेनिस कोर्ट भी था। 12 अगस्त 1990 को रुचिका अपनी दोस्त आराधना प्रकाश के साथ हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन के दफ़्तर गई। आराधना भी एक अच्छी टेनिस खिलाड़ी थी। जब दोनों लड़कियां दफ़्तर गईं तो आईपीएस राठौर वहां बैठे हुए थे। लड़कियों को देखकर उन्होंने अनुराधा से कहा कि वह बाहर जाकर टेनिस कोच थॉमस को बुला लाए, वह अपने कमरे में हैं।

आराधना के जाते ही राठौर ने रुचिका से अश्लील तथा यौन दुराग्राही छेड़छाड़ शुरू कर दी। रुचिका ने इसका विरोध किया और राठौर के शिकंजे से मुक्त होने की हर संभव कोशिश की। उसकी लंबी चीखें कोच को बुलाने गई आराधना के कानों तक पहुंचीं तो वह दौड़ते हुए वापिस आई। उसे देखकर हवस की वहशत में आए एसपीएस राठौर ने रुचिका को छोड़ दिया। दोनों लड़कियां किसी तरह वहां से भाग आईं। रुचिका ने आपबीती अनुराधा को बताई।

दोनों लड़कियों ने इस बाबत अपने घर वालों को कुछ नहीं बताने का फ़ैसला किया लेकिन इतने सदमे में चली गईं कि प्रैक्टिस के लिए टेनिस कोर्ट जाना छोड़ दिया। घर वालों ने प्रैक्टिस के लिए न जाने की वज़ह पूछी लेकिन लड़कियों की ख़ामोशी बरक़रार रही। घर वालों के दबाव के चलते रुचिका और आराधना ने फ़िर प्रैक्टिस के लिए जाना शुरू कर दिया। लेकिन जाने का वक्त वह चुना, जब राठौर पुलिस मुख्यालय होते थे। एक दिन आईजी के एक मुलाज़िम ने उन्हें रोक कर कहा कि राठौर ऑफिस में उन्हें बुला रहे हैं। भयभीत दोनों लड़कियां वहां से भाग आईं। इस बार घरवालों के आगे उनकी ख़ामोशी टूट गई।

रुचिका के पिता एससी गिल्होत्रा और आराधना के पिता आनंद प्रकाश ने फ़ैसला किया कि आईजी राठौर के खिलाफ शिक़ायत की जाए। दोनों बख़ूबी जानते थे कि आला अफसर के खिलाफ थाने में जाने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। वे मामले को लेकर हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह से मिलने की कोशिश करते हैं लेकिन नाकाम रहते हैं। अगली कोशिश तत्कालीन गृहमंत्री संपत सिंह से मिलने की होती है लेकिन वहां भी नाकामयाबी हाथ लगती है। आख़िरकार गृहसचिव जेके दुग्गल से उनकी मुलाक़ात हुई। तत्कालीन गृहसचिव ने इस घटना को गंभीरता से लिया और गृहमंत्री संपत सिंह को इससे वाकिफ करवाया। गृहमंत्री ने तत्कालीन डीजीपी को घटना की जांच के मौखिक आदेश दिए।

इधर डीजीपी ने जांच शुरू की और उधर आईजी राठौर ने अपना ‘खेल’ खेलना शुरू कर दिया। उन्होंने धन-बल के बलबूते कुछ लोगों को पहले पुलिस महानिदेशक के घर के बाहर (अपने पक्ष में) धरना-प्रदर्शन करवाया और फिर गृहमंत्री के खिलाफ नारेबाज़ी। मंतव्य साफ़ था-अपने ख़िलाफ़ हो रही जांच को प्रभावित करना। राठौर के जरखरीद लोगों ने रुचिका और आराधना के घरों के बाहर भी विरोध प्रदर्शन किए। यह सब बेशर्मी की हदों को पार करके किया गया।

बावजूद इसके डीजीपी ने जांच पूरी की और रिपोर्ट 3 सितंबर 1990 को गृहसचिव को सौंप दी। जांच रिपोर्ट में एसपीएस राठौर को रुचिका गिरहोत्रा से छेड़छाड़ का दोषी पाया गया तथा फ़ौरन एफआईआर दर्ज़ करने की सिफ़ारिश की गई।

यहीं से ताक़त और सियासत का एक और बेहद घिनौना खेल शुरू हुआ। गृहसचिव जेके दुग्गल ने जांच रिपोर्ट गृहमंत्री को भेज दी। रिपोर्ट आगे मुख्यमंत्री कार्यालय जानी थी। इसी बीच गृहसचिव को हटा दिया गया। नए गृहसचिव ने रिपोर्ट को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया। मामला वहीं का वहीं रुक गया। राठौर अपने समर्थन में रैलियों का सिलसिला ज़ारी रखते हैं। राठौर की बिरादरी के एक पूर्व विधायक के नेतृत्व में भी रुचिका के घर के बाहर नारेबाज़ी की गई।

बाकायदा साजिशों का दौर भी शुरू हो गया। इसी के तहत 20 सितंबर 1990 को रुचिका को स्कूल से निकाल दिया गया। वजह बताई गई समय से फ़ीस न देना। जबकि उस वक्त स्कूल में 140 बच्चे ऐसे थे जिनकी फ़ीस जमा नहीं हुई थी। और तो और आईजी राठौर की बेटी की फ़ीस भी लंबित थी लेकिन स्कूल प्रशासन ने सिर्फ रुचिका के ख़िलाफ़ कार्रवाई की। बगैर किसी नोटिस के। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जांच में दोषी पाए जाने के बाद राठौर की बेटी क्लास में रुचिका की उपस्थिति में असहज महसूस करती थी। स्कूल प्रशासन से सांठगांठ करके रुचिका को निकलवा कर उसका कैरियर बर्बाद कर दिया गया। यह उस स्कूल के इतिहास में पहली बार था कि जब समय से फ़ीस न देने के चलते किसी बच्चे को स्कूल से निकाला गया था।

एसपीएस राठौर के इशारे पर बड़ी तादाद में सादा वर्दी पुलिस कर्मचारियों को रुचिका के घर के बाहर तैनात कर दिया गया। घर के हर सदस्य की निगाहबानी की जाने लगी। अक़्सर पीछा भी किया जाता। जब रुचिका को स्कूल से निकाल दिया गया तो वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाई और गहरे अवसाद में चली गई। उसने खुद को घर में क़ैद कर लिया और वह बमुश्किल घर से बाहर निकलती थी। आराधना इस संकट की घड़ी में हमेशा उसके साथ रही। जब बाहर जाना होता तो वह घूरती निगाहों के बीच उसके साथ जाती थी।

लगातार रुचिका गिरहोत्रा पर दबाव बनाया जाता रहा कि वह आईपीएस राठौर के खिलाफ मामला वापिस ले ले। लेकिन वह और उसके पिता इंसाफ़ की इस लड़ाई को ज़ारी रखना चाहते थे। पुलिस और राठौर की गिद्ध दृष्टि रुचिका के दस साल के भाई आशु पर पड़ी। इस बच्चे पर चोरी के कई केस दर्ज किए गए। मनोबल तोड़ने के लिए रुचिका का साथ दे रही आराधना के परिवार वालों पर भी शिकंजा कसा गया। उसके पिता आनंद प्रकाश हरियाणा मार्केटिंग बोर्ड में चीफ इंजीनियर थे और बेहद क़ाबिल माने जाते थे। उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिसालें दी जाती थीं। जब वह रुचिका के लिए न्याय की लड़ाई में शामिल हुए, उनके खिलाफ एक के बाद एक भ्रष्टाचार के बीस मामले बना दिए गए। उन्हें निलंबित कर दिया गया। उन पर दबाव था कि आराधना अपनी गवाही से मुकर जाए। आनंद प्रकाश ने इससे इनकार किया तो उन्हें जबरन रिटायर कर दिया गया। वह अदालत से जीत गए। उन्हें झुकता न देखकर एसपीएस राठौर ने आराधना के ख़िलाफ़ दस सिविल केस दाखिल करवा दिए। अब आराधना का भी पीछा किया जाने लगा और गालियों तथा धमकियों का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया।

रुचिका प्रकरण जब शुरू हुआ तो मुख्यमंत्री हुकम सिंह थे। बाद में ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने। भजनलाल और बंसीलाल भी रहे लेकिन राठौर की अंधी पुलिसिया ताक़त बेख़ौफ़ दनदनाती रही। जबकि इंसाफ़ की जंग लड़ रहे लोगों की मुश्किलों में इज़ाफ़ा होता रहा। भजनलाल मुख्यमंत्री बने तो राठौर के ख़िलाफ़ जांच पर ‘पुनर्विचार’ किया गया। उसके बाद जांच रिपोर्ट ‘गुम’ हो गई! तब सरगोशियां थीं कि भ्रष्टाचार और शीर्ष नौकरशाही के नापाक मेल के चलते ऐसा हुआ। जांच रिपोर्ट अटकने और तरक्की लेने के बावजूद राठौर का कहर और बदलाखोरी कम नहीं हुई।

साल 1993 का सूरज रुचिका गिरोहोत्रा के लिए घना अंधेरा लेकर आया। रुचिका के मासूम भाई आशु के ख़िलाफ़ पहले से ही चोरी के झूठे मुक़दमे दर्ज थे। तेरह साल की छोटी-सी उम्र में उसके ख़िलाफ़ चोरी के ग्यारह मामले दर्ज़ थे। यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। इसी बीच 23 सितंबर 1993 को सिविल कपड़ों में कुछ पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों ने आशु को घर के क़रीब से जबरन उठा लिया। तब की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ उसे सीआईए स्टाफ मनसा देवी ले जाया गया। आशु के दावे के मुताबिक़ सीआईए स्टाफ में उसे अमानवीय यातनाएं दी गईं। कई हफ़्तों तक अवैध हिरासत में रखा गया।

इस दौरान कई बार राठौर सीआईए स्टाफ आए और उनके सामने आशु पर जमकर पुलिसिया कहर ढाया गया। तक़रीबन एक महीने की अवैध हिरासत के बाद; बेहद बुरी हालत में पुलिसकर्मी उसे उसके घर लेकर गए। रुचिका के आगे उसके तेरह साल के भाई की पिटाई की गई और कहा गया कि अगर शिक़ायत वापिस नहीं ली गई तो पिता तथा रुचिका के साथ भी ऐसा ही सुलूक किया जाएगा। उसके बाद आशु को हाथ में हथकड़ी डालकर (बेहद बुरी हालत में) आसपास की गलियों में घुमाया गया। यह मानवाधिकारों के जनाजे का भी दिन था! पुलिस का दबाव था कि वह अपनी बहन से कहें कि शिकायत वापिस ले ले। टॉर्चर के दौरान आशु से खाली कागज़ों पर हस्ताक्षर करवाए गए और बाद में उन पर लिखा गया कि वह ग्यारह कारों की चोरियों का जुर्म कबूल करता है। (तेरह साल का बच्चा और ग्यारह कारों की चोरी!)

मासूम बच्ची रुचिका भाई पर हो रहे बेइंतहा खाकी ज़ुल्म को बर्दाश्त नहीं कर पाई और अंततः टूट गई। 28 दिसंबर 1993 को इस पूरे सिस्टम ने उसे निगल लिया। रुचिका ने ज़हर खाकर खुदकुशी कर ली। तब उसकी उम्र चौदह साल थी। ज्यादतियों का सिलसिला मौत के बाद भी नहीं थमा। अस्पताल में उसके शव को रोक लिया गया और तब सुपुर्द किया गया, जब उसके पिता ने पुलिस अधिकारियों को खाली कागज़ों पर दस्तख़त करके दिए। रुचिका की देह की फर्ज़ी पोस्टमार्टम रिपोर्ट तैयार की गई ताकि मौत की वज़ह कोई और बताई जा सके। जेल में बंद उसका भाई आशु अपनी बहन के अंतिम संस्कार के मौके पर भी नहीं आ सका। बाद में जब वह घर आया तो बेहोशी के आलम में था।

1994 का आगाज़ हुआ। लोग खुशियां मना रहे थे और रुचिका तथा आराधना का परिवार मातम। तभी पुलिस विभाग के भीतर से एसपीएस राठौर के ख़िलाफ़ रुचिका की खुदकुशी के मद्देनज़र जांच शुरू हुई। यह जांच तेज़ रफ़्तार से हुई और चंद हफ़्तों में इसकी रिपोर्ट फ़ाइल कर दी गई। उक्त रिपोर्ट में राठौर को बेगुनाह बताया गया। कुछ महीनो के बाद उन्हें तरक्की देकर हरियाणा का एडीजीपी बना दिया गया। तब मुख्यमंत्री भजनलाल थे।

उधर, रुचिका के पिता एससी गिरहोत्रा को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित कर दिया गया। चंद महीनों के भीतर उन पर भ्रष्टाचार के दर्जनों मामले बनाए गए। उनके पंचकूला वाले एक और घर को राठौर के लिए काम करने वाले एक वकील ने हड़प लिया। एससी गिरहोत्रा को इतना ज़्यादा तंग किया गया कि वह पंचकूला छोड़कर शिमला चले गए। जमा-पूंजी ख़त्म हो गई और इंतहा देखिए कि बाप-बेटे को मजबूरन मज़दूरी करनी पड़ी। बतौर श्रमिक मिट्टी भरने का काम किया। बचा वक्त कोर्ट-कचहरियों के चक्कर में बीत रहा था और उनकी ज़िंदगी बर्बाद करने वाले आईपीएस राठौर शान से विचर रहे थे। तमाम नागरिक अधिकारों को कुचलते हुए!

रुचिका मामलों में पैरवी करने वाले वकीलों के खिलाफ भी राठौर ने कई मामले दर्ज़ करवा दिए थे और इसलिए ज़्यादातर वकील केस लड़ने से किनारा कर लेते थे। आख़िरकार रुचिका की सखी आराधना की एडवोकेट मां मधु प्रकाश ने यह केस लड़ने का फ़ैसला किया। आराधना के पिता आनंद प्रकाश ने इसमें उनका साथ दिया। 1990 में जो जांच रिपोर्ट तत्कालीन डीजीपी ने बनवाई थी, उसकी कॉपी विभागीय गलिरियों से निकलवाने में आनंद प्रकाश तीन साल बाद जैसे तैसे कामयाब हुए। इस रिपोर्ट के आधार पर पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट में नए सिरे से अपील दायर की गई। रुचिका प्रकरण की सुनवाई नए सिरे से शुरू हुई। 21 अगस्त 1998 को हाईकोर्ट ने जांच सीबीआई के हवाले कर दी। 1999 में पहली बार एसपीएस राठौर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज हुई। इसी साल के अक्टूबर में ओमप्रकाश चौटाला सरकार ने राठौर को एक और तरक्की देते हुए सीधे डीजीपी बना दिया। चौटाला सरकार ने अपने इस अधिकारी को बेहद क़ाबिल बताते हुए इसका नाम राष्ट्रपति मेडल के लिए भेजा।

सीबीआई जांच में खुदकुशी के लिए उकसाने वाली धारा नहीं जोड़ी गई। केवल धारा-354 के तहत जांच शुरू की गई। आगे जाकर सीबीआई विशेष कोर्ट के जज ने आदेश दिए कि इस मामले में खुदकुशी के लिए मजबूर करने की धारा भी जोड़ी जाए। सो धारा-306 के तहत भी मामला दर्ज़ किया हुआ। बाद में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने इस धारा को हटा दिया। इत्तफ़ाक है कि यह आदेश देने वाले न्यायाधीश कभी रुचिका गिरहोत्रा के पड़ोसी थे और उनका रुचिका के पिता के साथ ज़मीनी विवाद था। यह केस सीबीआई के पास चला तो गया लेकिन इसकी रफ़्तार बेहद सुस्त रही। कई साल गवाहों के बयान ही होते रहे। 16 नवंबर 2000 को चार्जशीट फ़ाइल हुई। 5 दिसंबर को राठौर को डीजीपी पद से हटा दिया गया और वह लंबी छुट्टी पर चले गए। मार्च 2002 को वह सेवानिवृत हो गए।

इस बीच जज बदले, मुक़दमे की जगहें बदलीं लेकिन नहीं बदली तो रुचिका के लिए इंसाफ़ की लड़ाई और मासूम लड़की की और खड़े गवाह। सबसे मजबूत गवाह थीं-आराधना और उसकी मां मधु प्रकाश। दोनों ने तक़रीबन 400 बार गवाही दी। मिलती तारीख़ पर तारीख़ के बाद अंततः फ़ैसला आया। 22 दिसंबर 2009 को यानी सोलह साल बाद सीबीआई जज जेएस सिद्धू ने फ़ैसले में एसपीएस राठौर को छेड़छाड़ को दोषी क़रार देते हुए छह महीने की कैद और एक हज़ार रुपए जुर्माने की सज़ा सुनाई। अवाम ने इस सज़ा को नाकाफ़ी बताया। रुचिका के समर्थन में मोमबत्ती मार्च निकाले गए। सीबीआई की अपील पर हाईकोर्ट ने राठौर की सजा बढ़ाकर 18 महीने कर दी।

राठौर को छेड़खानी के मामले में सज़ा हुई लेकिन खुदकुशी के के लिए उकसाने के मामले में 5 मार्च 2024 को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने सीबीआई को क्लोज़र रिपोर्ट दाख़िल करने की अनुमति दे दी। चौदह साल पहले हाईकोर्ट ने क्लोज़र रिपोर्ट दाख़िल करने पर रोक लगाई थी। खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में 2010 को एसपीएस राठौर के खिलाफ नई एफ़आईआर दर्ज़ की गई थी। राठौर ने उसे रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने तब सीबीआई को जांच ज़ारी रखने, लेकिन अंतिम रिपोर्ट दाख़िल नहीं करने का आदेश दिया था।

पिछले साल सीबीआई ने इस मामले में स्थगन रिपोर्ट दाखिल करने की छूट मांगी थी। सीबीआई ने कोर्ट को बताया कि उसकी जांच में राठौर के ख़िलाफ़ खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप की पुष्टि नहीं हुई। हाईकोर्ट ने कहा कि राठौर ने इस मामले में दर्ज एफ़आईआर रद्द करने के लिए याचिका दाख़िल की थी। अब सीबीआई भी क्लोज़र रिपोर्ट दाख़िल करना चाहती है तो याचिका का कोई और औचित्य नहीं बचा। ऐसे में हाईकोर्ट ने याचिका का निपटारा कर दिया और क्लोज़र रिपोर्ट के लिए अनुमति दे दी। यानी एसपीएस राठौर रुचिका गिरहोत्रा को खुदकुशी के लिए उकसाने के मामले में क़ानूनी रूप से बरी हैं! लेकिन सामाजिक तौर पर? क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि उन्हीं के बनाए हालात मासूम रुचिका की बेवक्त मौत का कारण बने? उसके पूरे परिवार के उजड़ने का भी? इन सवालों के जवाब कहां से लाएं? तो (एक तरह से देखा जाए तो) चौंतीस साल बात भी रुचिका को पूरा इंसाफ़ नहीं मिला। ‘अधूरे न्याय’ को भी राठौर का करूण-सा लगने वाला चेहरा हंसते हुए चिढ़ता है! हर अदालती पेशी के दौरान की एसपीएस की हंसती हुई तस्वीरों को गौर से देखिए। एकबारगी लगेगा कि यह शख़्स मासूम रुचिका और न्याय व्यवस्था की लाचारी पर मुस्कुरा रहा है!

प्रसंगवश, इतनी बड़ी घटना को मीडिया क़ायदे से कवर नहीं कर पाया तो इसलिए कि कुछ पत्रकारों पर झूठे मुक़दमे बनाए गए और कुछ की क़लम को ख़रीदा गया। खैर… तो यह थी रुचिका की सच्ची कहानी।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)

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