अविश्वास प्रस्ताव झेलना मंजूर, लेकिन अडानी पर चर्चा हर्गिज नहीं

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आखिर राज्यसभा सभापति, जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला कर ही लिया। वैसे ऐसी पहल के बारे में वे पिछले सत्र में भी विचार कर रहे थे, जब धनखड़ ने सपा सांसद, जया बच्चन के साथ भी काफी बुरा बर्ताव किया था।

अविश्वास प्रस्ताव कोई अनूठी चीज नहीं है, लेकिन यह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसकी जद में पहली बार देश की दूसरी सबसे बड़ी हस्ती, अर्थात देश का उप-राष्ट्रपति आने वाला है। चूंकि देश के उप-राष्ट्रपति के पास राज्यसभा के सभापतित्व की भी जिम्मेदारी होती है, लिहाजा इस पद का मान कहीं न कहीं लोकसभा की तुलना में बढ़ जाता है।

लेकिन ये सब तो वो सोचें जिन्हें पद की गरिमा का ख्याल हो। यहां तो सवाल यह खड़ा होता है कि यह पद भी आजकल किसी को उनके अनुभव और वरिष्ठता के आधार पर नहीं मिलता।

सिर्फ यही पद क्यों, क़ायदे से अब देश को खुलकर बात करनी होगी कि मोदी काल में राज्यपालों से लेकर नीति आयोग, सीबीआई, ईडी डायरेक्टर, आरबीआई चीफ, सीवीसी, सीएजी प्रमुख या मुख्य चुनाव आयुक्त से लेकर राष्ट्रपति पद तक की नियुक्ति का मापदंड एक ही है।

फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग ख़ामोशी के साथ अपने काम को अंजाम देने में लगे हुए हैं, तो वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो मोदी सरकार के समर्थन में उछल-उछल कर सबसे आगे दिखने की चाह में देश और विपक्ष के निशाने पर सबसे आगे आ जाते हैं।

आज चर्चा इस बात की हो रही है कि जिस टीएमसी के बल पर जगदीप धनखड़ साहब उप-राष्ट्रपति पद पर विराजमान हैं, असल में उसी ने अविश्वास प्रस्ताव के लिए सबसे पहले पहल की थी। लेकिन सत्र के आरंभ होने के समय सबसे बड़े दल कांग्रेस का फोकस पूरी तरह से अडानी के मसले पर लगा हुआ था।

ऐसा भी कहा जाता है कि जिस ममता बनर्जी ने एक समय धनखड़ साहब को अपने सोशल मीडिया पर ब्लॉक कर रखा था, क्योंकि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल वाले अपने कार्यकाल में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का जीना मुहाल कर रखा था।

इसलिए जब बीजेपी ने उन्हें ईनाम के तौर पर उप-राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित किया तो टीएमसी सहर्ष उनके समर्थन में खड़ी हो गई। जान बची तो लाखों पाए वाली तर्ज पर।

राज्यसभा की बहसों को सुनने वाले अब बहस नहीं सुनते। वे सुनते हैं सिर्फ जगदीप धनखड़ को। क्योंकि वे किसी को बोलने ही नहीं देते। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है कि वे लोकसभा में बीजेपी के पूर्ण बहुमत के अभाव को अपने दम पर भरने में लगे हुए हैं।

भले ही पीएम नरेंद्र मोदी ने पिछली लोकसभा में दावा किया हो कि ‘एक अकेला सबपे भारी,’ पर असल बात तो यह है कि यह जुमला सिर्फ जगदीप धनखड़ जी के ऊपर फिट बैठता है।

इस सत्र की खास बात यह रही कि दोनों सदन के सभापतियों, विशेषकर राज्य सभा में पहले से ही तय हो रखा था कि अमेरिकी अदालत में अडानी को अभियुक्त बनाये जाने की खबर को सदन के भीतर किसी भी कीमत पर किसी के मुंह से बाहर आने नहीं देना है।

Nothing will go in the record के साथ जगदीप धनखड़ ने लगभग हर रोज विपक्ष को खामोश कराकर सदन को बार-बार पूरे दिन के लिए स्थगित कर दिया। इसके लिए उन्हें सत्ता पक्ष के सांसदों से कोई मदद की जरूरत ही नहीं पड़ी।

कई लोग कह रहे हैं कि 72 वर्षों के संसदीय इतिहास में यह पहली बार हो रहा है। राज्यसभा के सभापति अर्थात किसी उप-राष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा रहा है। ये लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है। वगैरह-वगैरह…।

विपक्षी सांसद भी अफ़सोस जताते हुए यही बात कह रहे हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वे भी इस प्रस्ताव को दिल पर पत्थर रखकर ला रहे हैं।

उन्हें शायद आज भी यही भरोसा है कि सत्तापक्ष और सभापति महोदय को अपनी गलती का अहसास हो सकता है और एक बार फिर से पुराने दिनों वाली संसद और लोकतंत्र की लुकाछिपी वाला खेल चलता रह सकता है। लेकिन वे शायद भूल रहे हैं कि गुजरा हुआ जमाना कभी लौट कर नहीं आता।

भारत ही नहीं सारी दुनिया के पूंजीवादी लोकतंत्र में आज संकट गहरा गया है। लिबरल पूंजीवादी मूल्य अब शोषण और दमन को उस नजाकत के साथ संभाल पाने में नाकाफी साबित हो चुके हैं।

मोनोपली क्रोनी कैपिटल की ताकत इस कदर असीमित हो चुकी है कि प्रधानमंत्री के सम्मान में भले ही मुख्यमंत्री, राज्यपाल सहित तमाम गणमान्य व्यक्ति और उद्योगपति खड़े हो जायें, लेकिन क्रोनी पूंजी की ताकत अपनी ताकत का अहसास पूरे देश को करा देती है।

इसलिए, जिसके नाम पर कोई धब्बा न लगे, के लिए सत्ता पक्ष दिन-रात एक किये हुए हो, उसकी कृपा पर देश की महत्वपूर्ण संस्थाओं पर आसीन लोग भला वैसा ही कर गुजरने में पीछे कैसे हट सकते हैं? उल्टा ये तो सुनहरा अवसर है, जिसका पूरा-पूरा लाभ उठाकर शीर्षस्थ स्थान पर छलांग लगाई जा सकती है।

किसी के लिए यह बात कोरी गप लग सकती है, लेकिन जो लोग राजनीतिक घटनाक्रम पर लगातार बारीक निगाह जमाए हुए हैं, वे इस बात को आज से नहीं काफी अर्से से कह रहे हैं।

प्रधान मंत्री पद की रेस में भाजपा के भीतर कौन-कौन लोग लगे हुए हैं, और क्या दांवपेंच और उठापटक उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक चल रही है, यह किसी से छिपा नहीं है।

लेकिन इन सारी बातों से भी महत्वपूर्ण और बेहद चिंताजनक तथ्य यह है कि जिस क्रोनी पूंजी को कल तक राजनीतिक प्रश्रय देकर देश के राजनीतिक दल अपने लिए राजनीतिक चंदे का जुगाड़ करते थे, अब उसकी ताकत और पकड़ से कोई भी अछूता नहीं रहा।

आज उसके खिलाफ विदेशी अदालत में समन किया जा रहा है, लेकिन जिस देश में वह इस लूटपाट को अंजाम दे रहा है, उस देश की संसद में इस विषय पर चर्चा तक के लिए सरकार और सभापति राजी नहीं हैं।

यह सिर्फ दौलत का मसला नहीं रह गया है। ऐसा जान पड़ता है कि आज हम उस मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि लगभग सभी राजनीतिक दल और राज्य सरकारें तक इस दलदल में गहरे तक धंस चुकी हैं।

यह अनायास ही नहीं है कि इंडिया गठबंधन के अन्य सहयोगी दल, अडानी के मुद्दे पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के जोर देने को बचकाना करार देते हुए इंडिया गठबंधन के लिए नए नेतृत्व की बात भी साथ-साथ करने लगे हैं।

ये वही दल हैं जो एक-एक कर एक अन्य बिग कॉर्पोरेट, मुकेश अंबानी के बेटे की शादी में एक-एक कर हाजिरी देने पहुंचे थे। महाराष्ट्र विधानसभा में महायुती की बंपर जीत को भी कई लोग भारतीय बिग कॉर्पोरेट की मेहनत का नतीजा बताने से गुरेज नहीं कर रहे।

महाराष्ट्र के कई जिलों में अब आम लोग ईवीएम की अर्थी या मशाल जुलूस निकालते देखे जा सकते हैं, बशर्ते ये खबरें देश के अन्य हिस्सों तक कोई दिखा पाए।

एक बार फिर वापस अविश्वास प्रस्ताव पर लौटते हुए हमें इस बात पर जरुर सोचना चाहिए कि आखिर वो कौन सी संवैधानिक संस्था बची है, जिस पर देश भरोसा करे? क्या चुनाव आयोग पर यकीन करना चाहिए? क्या तीनों चुनाव आयुक्तों के खिलाफ महाभियोग आज की पहली जरूरत नहीं है?

उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाने की मुहिम शुरू भी हो गई है। लेकिन सही बात तो ये है कि इन महोदय ने तो जो चीज कई वर्षों से भारतीय न्याय व्यवस्था में दबे-छुपे तरीके से हो रही थी, उसे दुनिया के सामने बेपर्दा ही किया है।

तमाम हाई कोर्ट और स्वंय सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से तो यही जाहिर होता है कि कहीं न कहीं न्यायाधीश भी फैसला लिखते समय बहुसंख्यकवाद के तराजू से ही न्याय को तौल रहे होते हैं।

कार्यपालिका के बारे में कुछ भी कहना बेमानी है। इसमें से कुछ चुनिंदा लोगों ने यदि संविधान के मुताबिक कर्तव्यपरायणता का प्रदर्शन भी किया तो उन्हें या तो तत्काल ट्रांसफर का सामना करना पड़ा है या फिर उन्हें झूठे आरोपों में फंसाकर जेल के सींखचों के पीछे डालने से लेकर सेवामुक्त होने के बाद पूरे परिवार को इसका दंश झेलना पड़ा है।

इन चुनिंदा उदाहरणों से सबक लेते हुए नौकरशाही जो वैसे भी अपने ढांचागत स्वरूप में प्रतिगामी रही है, ने पूरी मजबूती से इसी एजेंडे के पीछे खुद को डाल दिया है।

ऐसे में सिर्फ एक अविश्वास प्रस्ताव वास्तव में बेहद नाकाफी है। जनता आज भी संसदीय लोकतंत्र पर भरोसा जमाये हुए थी, लेकिन पहले चुनाव में व्यापक धांधली और अब संसद को भी हाईजैक कर सत्ता पक्ष और देश का कॉर्पोरेट अपनी खरीदी हुई मीडिया के माध्यम से साफ संदेश दे रहा है कि अब ये आजादी का नाटक बहुत हो चुका, हम तो ऐसे ही देश को चलाएंगे और यह देश ऐसे ही चलेगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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