वाराणसी। “हमारे समाज के तथाकथित मुख्यधारा में आदिवासियों के प्रति हमेशा से एक गलत पहचान देने की साजिश की गई है।” यह बात बीएचयू के असिस्टेंट प्रोफेसर राजकुमार मीणा ने पिछले 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस के आलोक में भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा द्वारा 12 अगस्त को “आदिवासियों की विरासत, संघर्ष और वर्तमान स्थिति” विषय पर आयोजित एक सेमिनार को संबोधित करते हुए कहा।
उन्होंने आगे कहा कि “हमारा समाज आदिवासियों को असभ्य बताने में जुटा रहता है जबकि उनका जीवन तथाकथित मुख्यधारा के लोगों से सभ्य और सुंदर होता है। आदिवासियों की सहजता का लाभ उठाकर सरकार भी उन्हें लूटती है और उन्हें ही असभ्य बता दिया जाता है।”
राजकुमार मीणा ने अपनी बात रखते कहा कि “आदिवासियों का संघर्ष किसी सत्ता पाने या सरकार बनाने के लिए नहीं होता बल्कि उनका संघर्ष अपना अस्तित्व और संस्कृति बचाने के लिए होता है। हमेशा से विभिन्न इतिहासकारों ने आदिवासियों का आधा अधूरा चित्रण किया है और लोगों तक गलत धारणा पहुंचाने का काम किया है।”
उन्होंने अपनी बात रखते हुए कहा कि “1857 के क्रांति से पूर्व भारत में आदिवासियों का अनेको विद्रोह अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के खिलाफ हो चुका था जिसका विवरण हमारे इतिहास में भी न के बराबर देखने को मिलता है।”
कार्यक्रम के शुरुआत करते हुए इप्शिता ने अपनी बात रखते हुए आदिवासियों के विभिन्न आंदोलनों का जिक्र करते हुए उनके संघर्षों के बारे में बताया। उन्होंने हो, संथाल, मुंडा आदिवासियों द्वारा किए गए विद्रोह का जिक्र किया। उन्होंने वर्तमान सरकार द्वारा किए गए विकास को नकारते हुए कहा कि यह विकास चंद पूंजीपतियों का विकास है जिसमें आदिवासियों का जल, जंगल, जमीन एवं अन्य संसाधन लूटा जा रहा है।
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए महेंद्र ने कुछ कविताओं का पाठ किया जिसके माध्यम से उन्होंने वर्तमान सरकार द्वारा आदिवासियों पर हो रहे हमले और आदिवासियों की अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किए जा रहे संघर्षों का जिक्र किया। उन्होंने यह भी बताया कि आदिवासियों का समाज हर मामले में मुख्यधारा के समाज से बेहतर नैतिक जीवन जीता है। फिर उन्हे असभ्य कहना और अपने समझ को जहां नैतिकता बची नहीं है उसे सभ्य कहना आदिवासियों के साथ अन्याय करने जैसा है।
कार्यक्रम की अगली कड़ी में हिमांशु कुमार जो पिछले चालीस सालों से आदिवासियों के बीच बस्तर में काम करते आ रहे हैं एक वीडियो के माध्यम से अपना संदेश पहुंचाया। उन्होंने अपनी बात रखते हुए कहा कि “1991 के बाद जिस प्रकार से भारत के बाजार को निजी कंपनियों के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया, उसके बाद से आदिवासियों पर अत्याचार अधिक बढ़ गया। आदिवासियों को जल , जंगल, जमीन से हटाकर पूंजीपतियों को देने के लिए सरकारों ने सलवा जुडूम, ऑपरेशन ग्रीन हंट, ऑपरेशन समाधान, ऑपरेशन प्रहार आदि को बढ़ावा दिया ताकि आदिवासियों से बलपूर्वक जमीन को छीना जा सके।”
उन्होंने बस्तर की एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि “वहां सुरक्षा बलों द्वारा एक बार में 600 से अधिक गांवों को जला दिया गया, हजारों लोगों का कत्लेआम किया गया, सैकड़ों महिलाओं का यौन शोषण किया गया।”
उन्होंने अपनी बात रखते हुए भगत सिंह की बात की और कहा “जो बात भगत सिंह आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व कहा था वो आज भी सच होता दिख रहा है।”
कार्यक्रम की अगले कड़ी में संगठन के सांस्कृतिक टीम द्वारा “गांव छोड़ब नाही, जंगल छोड़ब नाही” नामक गीत प्रस्तुत किया गया।
कार्यक्रम के अगले वक्ता समाजिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता कैलाश मीना ने कहा कि “आजादी के बाद या आजादी से पूर्व जो संघर्ष आदिवासियों ने शिक्षा पाने के लिए किया था उसमें आज भी बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है।”
उन्होंने अपने जीवन के विभिन्न घटनाओं के माध्यम से भी राजस्थान में आदिवासियों के संघर्ष के बारे में बताया। उन्होंने अपने वक्तव्य में आदिवासियों के बेगारी नहीं देने के लिए जो संघर्ष है उसका भी विस्तारपूर्वक जिक्र किया। उन्होंने अपनी बातचीत में कहा कि “भारत सरकार हमेशा से अपने देश की जनता को आपस में लड़ाने का काम करती रही है। सुरक्षाबलों के लोग जो गरीब समाज से आते हैं उनको अपने ही गरीब आदिवासियों के खिलाफ लड़वाया जाता है।”
बीसीएम के सह सचिव सिद्धि ने अपनी बात रखते हुए वर्तमान समय में भारत के कोने कोने में चल रहे आदिवासियों के आंदोलन के बारे में बताया। उन्होंने झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, बिहार, मध्यप्रदेश के जंगलों में जो आदिवासी आंदोलन जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए एवं पूंजीपतियों को भगाने के लिए चल रहा है उसका भी जिक्र किया साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि कैसे भारतीय राज्य सुरक्षाबलों का सहारा लेकर आदिवासियों को दबाने की लगातार कोशिश कर रही है।
(जनचौक की रिपोर्ट)