इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीसी) ने बेंजामिन नेतन्याहू और गैलेंट के खिलाफ गिरफ़्तारी का वारंट जारी किया है। आईसीसी ने वारंट जारी करते हुए इस बात को स्पष्ट किया है कि दोनों ही राजनेताओं को युद्ध अपराध के कारण गिरफ़्तारी का वारंट जारी किया गया है। इनके खिलाफ फिलिस्तीन के क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने, सिविलियन जनता के खिलाफ युद्ध की घोषणा करना जो मुख्यतः ग़ज़ा की जनता है और दो देशों के बीच आर्म्ड कनफ्लिक्ट विशेषतः एक ‘कब्ज़ा करने वाला देश” और “कब्जे में देश” के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए यह गिरफ़्तारी को जरूरी बता रहे हैं।
आईसीसी ने यह माना है कि ऐसे पर्याप्त आधार मौजूद हैं जो यह विश्वास दिलाते हैं कि दोनों व्यक्तियों ने जानबूझकर गज़ा की नागरिक आबादी को उनकी जीविका के लिए आवश्यक वस्तुओं जैसे भोजन, पानी, दवाइयां और चिकित्सा आपूर्ति, साथ ही ईंधन और बिजली से वंचित किया। यह अवधि कम से कम 8 अक्टूबर 2023 से 20 मई 2024 तक रही। यह निष्कर्ष श्री नेतन्याहू और श्री गैलेंट की भूमिका पर आधारित है, उन्होंने मानवीय सहायता को बाधित किया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून का उल्लंघन हुआ, और उन्होंने सभी उपलब्ध साधनों से राहत प्रदान करने में विफलता दिखाई।
आईसीसी ने पाया कि उनके आचरण के कारण मानवीय संगठनों की जरूरतमंद आबादी को भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुएं प्रदान करने की क्षमता बाधित हुई। इन प्रतिबंधों के साथ-साथ बिजली काटने और ईंधन की आपूर्ति घटाने से गज़ा में पानी की उपलब्धता और अस्पतालों की चिकित्सा देखभाल प्रदान करने की क्षमता पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा। चेम्बर ने इससे आगे बढ़ते हुए एक महत्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान आकृष्ट कराया जहाँ पर इन्होंने यह माना है कि ग़ज़ा और फिलिस्तीन के नागरिक जनता को उनके जीने के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से भी वंचित रखा गया है जिसे किसी भी आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता है।
अधिकारक्षेत्र का सवाल
वारंट के जारी होने के बाद इजरािली सरकार ने जूरिस्डिक्शन के आधार पर इस वारंट को गलत बताया है और यह कहा कि यह आईसीसी के क्षेत्राधिकार में नहीं आता क्योंकि इजराइल ने इसकी घोषणापत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। परन्तु चेम्बर ने इस बात को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया कि फिलिस्तीन 2015 से ही कोर्ट का सदस्य राष्ट्र है और यदि आक्रमण फिलिस्तीन की सीमा का उल्लंघन करते हुए उनकी जनता के ऊपर किया गया है। अतः कोर्ट ने यह कहा कि क्षेत्राधिकार का सवाल इस आधार पर ख़ारिज होता है। सदस्य राष्ट्र न होने के आधार पर ही इजराइल ने किसी भी प्रकार के जाँच को भी ख़ारिज करने के लिए एक अलग पेटिशन दायर किया था जिसका आधार जूरिस्डिक्शन था।
इससे पहले लेकिन आईसीसी की स्थापना और उद्देश्यों पर बात करना बेहद जरूरी हो जाता है। कोर्ट की स्थापना का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति को वॉर क्राइम, नरसंहार आदि के लिए दोषी ठहराया था। परमानेंट कोर्ट की स्थापना रोम अधिनियम के तहत 2002 में करते समय इसराइल इसके संस्थापक और हस्ताक्षर कर्ता राष्ट्रों में से एक था परन्तु उसने कभी भी इस अधिनियम को आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इजराइल को इसके स्थापना से सहमति थी पर इसके निर्णय बाध्यकारी नहीं होंगे।
कोर्ट ने इन्वेस्टीगेशन के सवाल को बिलकुल अलग तरीके से देखते हुए तकनीकी सवाल पर भरोसा दिखाया और यह स्पष्ट किया कि जब पहली बार जाँच की प्रक्रिया 2021 में शुरू हुई थी तब इसराइल को उस जाँच से कोई आपत्ति नहीं थी। अतः जब इस बार भी जब जाँच के आधार में या मूल भाव में कोई फर्क नहीं है तब सरकार को जाँच पूरा करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। इस बात को दोबारा रेखांकित करने की जरूरत है कि इजराइल भले ही इस कोर्ट की स्थापना को आधिकारिक स्वीकृति न दी हो परन्तु वह इसका हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र हमेशा से रहा है। अतः इस आधार पर यह स्वीकार करना आसान है कि कोर्ट के हस्तक्षेप को तकनीकी आधार पर भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है।
हालाँकि यह एक राजनीतिक सवाल है कि न केवल इजराइल अपितु अमेरिका, भारत समेत चीन, रूस ने भी इसे स्वीकार नहीं किया है। परन्तु इजराइल के आक्रमण में अभी तक 44000 से ज्यादा फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं और लाखों से ज्यादा लोग इस आक्रमण में घायल हुए है। इसके अलावा कई बार इजराइली सेना ने अस्पतालों और शिविरों पर भी बम गिराए जहाँ पर मरीजों और बच्चों का इलाज चल रहा था। अस्पतालों, राहत शिविरों पर बम गिराना वॉर क्राइम के श्रेणी में आता है और नेतन्याहू ने तमाम अंतर्राष्ट्रीय अपील और दबाव के बावजूद भी लगातार दूसरे राष्ट्र के अंदर मानवाधिकार का उल्लंघन करते रहे। कोर्ट ने अपने वारंट जारी करने के दौरान मानवाधिकार के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर करने का प्रयास किया जहां उन्होंने इजराइल के द्वारा फिलिस्तीन के लोगों के जीने के अधिकार को तथा स्वस्थ वातावरण में जीवन के अधिकार से वंचित करने का आरोप भी लगाया है।
अमेरिकी राजनेताओं ने कुछ एक आध अपवाद को छोड़ कर एक सिरे से कोर्ट के इस फैसले की निंदा की है। एक मत होकर उन्होंने कोर्ट के क्षेत्राधिकार पर सवाल खड़े करते हुए अपने लम्बे समय से बने एक स्थायी स्थिति को दोहराते हुए फिलिस्तीन के अस्तित्व पर सवाल तक खड़े किये। बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि लिबरल्स की चहेती पार्टी डेमोक्रेट्स ने भी वही स्थिति को दुहराया और दोनों ही पार्टियां एक सुर में नजर आयीं। अर्थात जियो पॉलिटिक्स के साथ आंतरिक नीतियों में भी कोई ज्यादा फर्क नहीं है। जिससे एक बात तो बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि किसी भी बुर्जुआ पार्टी के मूल में अंतर्विरोध नहीं होता अंतर्विरोध होते हैं वह महज एक सतही और उथली प्रवृत्ति के हैं।
ऐसी स्थिति में यह निर्णय कितना फर्क डाल सकता है यह तो भविष्य ही बताएगा परन्तु यह महज कुछ रिसर्च पेपर लिखने के लिए एक निर्णय भर नहीं रहना चाहिए जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के बेंजामिन नेतन्याहू की गिरफ़्तारी वारंट की घोषणा का कानूनी मूल्यांकन संगठनों के साथ है। जहाँ बड़े-बड़े क़ानूनी दर्शन की व्याख्याएं की गयी हैं वहीं उसके दूसरे तरफ उसके अनुपालन की भयानक सीमाएं हमें देखने को मिलती है जहाँ एक बड़ा राष्ट्र एक छोटे और काम ताकतवर राष्ट्रों को, एक शक्तिशाली कार्यपालिका वहां की जनता को कुचलते हुए रोज उन महान दर्शनों का मजाक उड़ाती है।
(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं)