सांप्रदायिक सोच की सीमाएं और संविधान का शासन

एक बयान जेरे बहस है। वह बयान है “देश बहुसंख्यकों की इच्छा से चलेगा”। मतलब देश कानून और संविधान से नहीं, बल्कि भीड़ की आवाज से चलेगा । खाता न बही, जो भीड़ कह दे वही सही।

क्या वाकई यह उचित है? बयान किसका है, वह तो एक अलग बात है, पर ऐसे बयान नए नहीं हैं। ये किसी न किसी रूप में प्रायः सुनने को मिलते रहते हैं। पर जज साहब के मुंह से सुनकर आश्चर्य हुआ। 

क्या अब न्यायिक फैसले भी न्याय के मूलभूत सिद्धांतों की जगह बहुसंख्यकवाद की अवधारणा से प्रभावित होंगे। क्या सांप्रदायिक सोच का संक्रमण यहां तक आ पहुंचा! 

ये लक्षण न सिर्फ हमारी सामाजिक सोच के सांप्रदायिक होते जाने के संकेत हैं, अपितु हमारी शिक्षा व्यवस्था की सीमाओं को भी बताते हैं। यह दृष्टि शैक्षिक संस्कारों के अवमूल्यन के रूप में देखी जानी चाहिए।  

ऐसे बयानों के मूल स्वर की पड़ताल करेंगे, तो पाएंगे कि ऐसे बयान उसी वैचारिकी से जन्मे हैं, जो समाज को नस्लीय दृष्टि से देखती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी समान धर्मी व्यक्तियों का अपनी सजातीय बहुसंख्या के कारण उस क्षेत्र विशेष पर अपना आधिपत्य जताने की इच्छा रखने वाली मांगे इसी दृष्टि का परिणाम थीं। 

इसी प्रवृत्ति के चलते लंबे समय से लोगों को एक जाति एक राष्ट्र के नाम पर गोलबंद करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं। हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद के रूप में ये शक्तियां अपने-अपने क्षेत्र में सहअस्तित्व को नकारती हैं। 

यह वर्चस्व स्थापन की इच्छा है। इसलिए यह समाज के अन्य वर्गों/संप्रदायों को अपने अधीनस्थ रखना चाहती है। तमाम वजहों के चलते सांप्रदायिक गोलबंदी को मजबूत बनाने के लिए सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा भय और घृणा का सहारा लिया गया।

दूसरे का भय दिखाकर आसानी से लोगों को एकजुट किया जा सकता है। यहां वर्चस्व स्थापन उद्देश्य है, तो कल्पित भय की धारणा उसकी रणनीति।

धर्म या जाति की श्रेष्ठता का भाव दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। यही पृथकतावाद है। नस्लभेद जातीय श्रेष्ठता से उपजता है।

यह बयान उस प्रवृत्ति का द्योतक है, जो देश की संवैधानिक संस्थाओं को अपने संख्या बल के आधार पर प्रभावित करना चाहती है। मौजूदा दौर गवाह है जहां हर संस्था अपनी जवाबदेही से स्वतंत्र है।

जिस तरह से एन डी टीवी के प्रणव राय को राह से हटाया गया, सब जानते हैं। उन पर लगाए गए कोई आरोप सिद्ध नहीं हुए, पर जिसको जिस काम के लिए लगाया गया था, वह पूरा हो गया।

ख़ैर.. ये बयान हमारी लोकतांत्रिक चेतना के बिलकुल विपरीत है। माना कि लोकतन्त्र में बहुमत के शासन की मान्यता है, पर इसका यह तो मतलब नहीं कि लोकतंत्र अल्पमत के विसर्जन पर पुष्पित-पल्लवित होगा। बहुमत का शासन इसलिए कि वह उपलब्ध शासन पद्धतियों में सर्वाधिक ग्राहृय पद्धति है।

पर इससे उसके सौ फीसदी निर्दोष होने की गारंटी नहीं दी जा सकती। हर बार बहुमत सही ही हो यह जरूरी नहीं। कई बार बहुमत उन्माद से प्रभावित होता है। कई बार न्यायपूर्ण मांगे बहुमत के समर्थन से वंचित रहती हैं। 

अगर बहुसंख्यकवाद से ही देश को चलाना होता तो फिर संसद में विपक्ष का क्या काम होता या फिर हर कानून के तीन तीन वाचनों में विमर्श की इतनी  लंबी प्रक्रिया न होती।

देश कानून से चलता है न कि बहुसंख्यकवाद या अल्पसंख्यकवाद से। 

अगर न्यायालय बहुसंख्यकवाद से चलने लगेंगे तो फिर तो सुकरात विष का प्याला पीने को बाध्य होंगे ही। 

अगर सौ लोग मिलकर कोर्ट में आम को पीपल कह दें, तो क्या यह मानने योग्य है? न्याय भीड़ की आवाज नहीं है, वह तो उचित के आदेश-निर्देश की अभिव्यक्ति है। 

न्याय संख्या से तय नहीं हो सकता। 

अगर यहां का बहुसंख्यकवाद उचित है, तो फिर बांग्लादेश और पाकिस्तान के बहुसंख्यकवाद के अत्याचार को कैसे गलत कह पाएंगे? उसको किस आधार पर ख़ारिज करेंगे? जहां आप अल्पसंख्यक हैं, क्या आप चाहेंगे कि आपका अस्तित्व बहुसंख्यकों की दया पर निर्भर हो।

जे एस मिल कहते हैं कि सफल लोकतंत्र वह है जिसमें एक अकेले व्यक्ति की आवाज को भी सुना जाय, उसके प्रति गहरी संवेदना रखी जाय।

सही बात है कम से कम उस एक आदमी को सुना तो जाय। वह गलत कहे, सही कहे, वह तो बाद की बात है। अगर बहुसंख्यकवाद के हिसाब से चलते तो  एक धार्मिक देश में नास्तिक चार्वाक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही न मिलनी चाहिए थी।

अगर बहुसंख्यकवाद के सिद्धांतों से चलते तो कौरवों के मुकाबले पांच पांडवों की पांच गांवों की मांग भी अन्यायपूर्ण होती। जनशक्ति के बल पर फैसला करना न्याय नहीं, बल्कि तानाशाही व्यवस्था है। यह सर्वाधिकारवादी व्यवस्था होगी। यह रामराज्य नहीं बल्कि गुंडाराज है। 

लोकतंत्र सबके अधिकार के सुनिश्चयन की व्यवस्था है। लोकतंत्र को आप सर्वाधिकारवाद में नहीं बदल सकते।

बहुसंख्यकवाद के बल पर ही हिटलर और मुसोलिनी ने नरसंहार की पटकथाएं लिखीं। इसलिए बहुसंख्यकवाद या अल्पसंख्यकवाद को किसी न्याय सिद्धांत के रूप में देखने से बचें। इसके परिणाम निश्चित ही दुखदाई होंगे। 

बहुसंख्यकवाद को स्वीकारने का मतलब है अपने पुरखों के बनाए संविधान और उसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र की हत्या करना।

 (संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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