मनुस्मृति दहन दिवस: “सीमन्तनी उपदेश-एक सवर्ण विधवा द्वारा हिंदू समाज की ज्ञानमीमांसीय और नैतिक आलोचना

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भारतीय ज्ञान परंपरा की एक बेहद महत्त्वपूर्ण किताब है “सीमन्तनी उपदेश”। इसकी लेखिका “एक अज्ञात हिंदू औरत” है। इस किताब में आपको हिंदू समाज का ज्ञानमीमंसीय और नैतिक क्रिटीक मिलेगा।

वह भी उस समय जब भारत में फेमिनिज्म के बारे में शायद ही कोई जानता हो! इस किताब को पढ़ते हुए आप पाएंगी या पाएंगे कि लेखिका का अवलोकन बेहद पैना और विस्तृत है। उन्होंने हिंदू समाज में महिलाओं के शोषण की कई परतों को रेखांकित किया, चुनौती दी, और विकल्प भी पेश किये।

यह किताब आज से 142 साल पहले, 1882 में लाहौर से प्रकाशित हुई। करीब 100 साल के बाद 1988 में डॉ. धर्मवीर इसकी खो सी गयी पांडुलिपि को फिर से खोजकर लाये और प्रकाशित करवाया। डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि मूल रूप से शायद यह पुस्तक फारसी लिपि में लिखी गई होगी। देवनागरी में इस पुस्तक को लुधियाना के किन्हीं ऋषि राम नाम के गौड़ ब्राह्मण ने तैयार किया। (p. 30)।

डॉ. धर्मवीर के अनुसार सीमन्तनी उपदेश की लेखिका कोई विधवा थी। (p. 17)। वह जाति से कायस्थ थी। लेखिका के अनुसार यह जाति “अपनी विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार करने के में बेहद कठोर” थी। (p. 16-17, 89)। उनका परिवार मूल रूप से पश्चिमोत्तर प्रांत का था जो पंजाब में बस गया था। (p. 17)। लेखिका के अनुसार पंजाब के लोग अपनी विधवाओं के साथ उतनी सख्ती से पेश नहीं आते थे।

मनुस्मृति दहन-दिवस, 25 दिसंबर 1927 के दिन शुरू हुआ। “सीमन्तनी उपदेश” के प्रकाशन के 45 साल बाद 25 दिसंबर 1927 को महाड़ सत्याग्रह के मौके पर डॉ. अंबेडकर के एक ब्राह्मण सहयोगी गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे द्वारा मनुस्मृति को जलाने का प्रस्ताव पेश किया गया था और एक अछूत नेता पीएन राजाभोज ने इसका समर्थन किया था।

इसके बाद, मनुस्मृति पुस्तक को एक चिता पर रखा गया और जला दिया गया। अंबेडकर के ब्राह्मण सहयोगी गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे और पांच-छह अन्य दलित साधुओं ने मनुस्मृति के अंतिम संस्कार का काम पूरा किया।

कार्यक्रम के पंडाल में रखी गई एकमात्र तस्वीर मोहनदास करमचंद गांधी की थी। इसका अर्थ यह लगाया गया है कि उस समय तक डॉ. अंबेडकर सहित दलित नेतृत्व का गांधी से मोहभंग नहीं हुआ था।

तो हमने देखा कि मनुस्मृति को जलाने का ख्याल एक ब्राह्मण के मन में आया। इस देश में अनेक हिन्दू स्त्रियों ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, और विशेषकर मनुस्मृति की तीखी आलोचना की है। उनमें से एक हैं पंडिता रमाबाई जिनकी किताब- A high caste Hindu women-1888 प्रकाशित हुई। तारा बाई शिंदे की किताब ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ 1882 में प्रकाशित हुई।

1885 में महात्मा ज्योतिबा फुले की ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने हिंदू मिथकों की क्रिटिकल रीडिंग की है। 1872 में एक और किताब ‘वाम शिक्षक’ का प्रकाशन हुआ और इससे पहले ही 1869 में ‘मिरातुल उरूस’ नाम की किताब का प्रकाशन हो चुका था।

‘वाम शिक्षक’ और ‘मिरातुल उरूस’ उपन्यास के रूप में लिखी गई किताबें हैं जिनमें स्त्री-शिक्षा और उनकी आजादी के सवालों पर विचार किया गया है। ‘मिरातुल उरूस’ मुस्लिम महिलाओं और ‘वाम शिक्षक’ हिन्दू महिलाओं के लिए लिखी गयी।

1884 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिन्दू लड़कियों को “पालतू” बनाने के उद्देश्य से “बाला बोधिनी” का प्रकाशन शुरू किया।

खुदमतलबी धर्म

‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका हिंदू धर्म का भला चाहने वाले सभी लोगों का आह्वान करते हुए लिख रही है कि अगर “हिंदुस्तान को नेक राह पर लाना चाहते हो तो पहले उन किताबों को आग में फूंक दो, जिनमें स्त्रियों के वास्ते इस धर्म की (पतिव्रता धर्म की) हिदायत है और मर्दों के वास्ते कुछ नहीं है”। (p. 112)।

इस किताब में औरतों के जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों पर विमर्श मिलेगा। लेखिका ने व्यभिचार, तलाक, बाल विवाह, विधवा विवाह, घरेलू हिंसा, स्त्री मुक्ति,आर्थिक निर्भरता, मनु और तुलसीदास जैसे लोगों के मतलबी विचारों, कपड़ों, गहनों आदि अनेक मुद्दों को इस किताब में समेटा है।

सीमन्तनी का अर्थ होता है- स्त्री, नारी, औरत। ‘सीमन्तनी उपदेश’ के दो अर्थ लगाये जा सकते हैं। एक तो यह है कि स्त्रियों को उपदेश और दूसरा स्त्री का उपदेश। आप दोनों में से कोई भी अर्थ लें, लेकिन दोनों ही अर्थों में यह किताब ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के साथ कठोरता से टकराती है।

इस किताब में आपको ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के चूरे बिखरे मिलेंगे। क्योंकि “सीमन्तनी उपदेश” ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की चट्टानों पर कस- कसकर चोट की है।

इस किताब में आपको अनेक जगह पर मनु पिटकर घायल पड़ा दिखेगा। जैसे- मनुस्मृति के अनुसार संसार में 10 दोष हैं और ब्रह्मा ने वे सारे दोष स्त्रियों के लिए बनाए हैं।

ब्रह्मा की गुण-दोषों की रचना के समानांतर, सीमन्तनी उपदेश की लेखिका ने लिखा है कि- “जो पुरुष व्यभिचारी होते हैं उनका मन कुत्ते की माफिक हमेशा मैले ही में लगा रहता है। फिर ये 10 दोष उनमें झटपट आ जाते हैं- चोरी, हिंसा, व्यभिचार, निंदा, दुर्वचन, झूठ, क्रोध, इर्ष्या, अहंकार, और छल।” (p. 5)।

लेखिका ने माना है कि पुरुषों की तरह “औरत भी हत्यारी हो सकती है”। वे मानती हैं कि औरतें भी व्यभिचारी होती हैं। वे लिखती हैं कि “बेशक, जो औरत अपनी पसंद कर शादी करे, और फिर उस खाविंद को धोखा दे, दूसरे के पास जाए” तो उसके वास्ते दंड की व्यवस्था हो।” (p. 5)।

इस किताब के 23वें अध्याय में लेखिका ने एक अच्छी-खासी पटखनी तुलसीदास को भी दी है। रामचरित मानस के अरण्य कांड में तुलसीदास ने स्त्रियों के चार दर्जे बताए हैं। लेखिका उनमें एक पांचवा दर्जा और जोड़ देती है। वह दर्जा है- स्त्रियों से हिंसा के बल पर पतिव्रता धर्म का पालन करवाना।

विधवा-विवाह के मामले में भी “सीमन्तनी उपदेश”, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का वैकल्पिक विचार सामने रखती है। विधवाओं को पुनर्विवाह के संदर्भ में उपदेश देते हुए यह किताब अनेक विकल्प सामने रखती है। हिंदुओं में पुनर्विवाह के खिलाफ रचे गये आख्यानों की झूठी परतों को खुरचकर “सीमन्तनी उपदेश” ने असली मकसद को उजागर किया है।

उनके अनुसार परिवार में एक विधवा स्त्री सबके लिए मुफ्त का भोजन होती है। उसका शारीरिक शोषण करने और उससे बेगार करवाने, दोनों ही मामलों में। (P. 6)।

विधवाओं को उपदेश

विधवाओं के लिए उस सीमन्तनी का पहला उपदेश तो यह है कि हिंदूस्तान के परिवारों में औरतों की बेकदरी का आलम एक बार देख लेने के बाद उन्हें दूसरी बार विवाह नहीं करना चाहिए। क्योंकि हिंदुओं में भले मर्दों का मिलना आसान नहीं है।

इसलिए वे विधवाओं को उपदेश देती हैं कि- “बेसब्री से काम न लो”। इस बात को गांठ में बांध लो कि “बुरे खाविंद से, बगैर खाविंद रहना अच्छा है।” (P. 74)।

वे लिखती हैं कि छोटी उम्र में तुम्हारी शादी किसी भी ऐसे-वैसे के साथ कर देने के लिए तुम मां-बाप को दोष दे सकती हो, लेकिन दूसरी बार की शादी में ये लोग साथ नहीं देंगे। इस काम में पुरोहित भी तुम्हारे साथ नहीं होगा।

इसलिए दूसरी शादी के लिए अपनी अक्ल को अच्छी तरह से इस्तेमाल करके किसी भले आदमी को चुनो और अगर कोई भला आदमी नहीं मिलता है तो अकेले रहना ही तुम्हारे भले में है।

“सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका विधवाओं को किसी धर्म का डर नहीं दिखा रही है। बल्कि वह ठोस एम्पेरिकल कारण सामने रख रही हैं। उसका जोर किन्हीं मनगढंत कारणों पर न होकर एम्पेरिकल कारणों पर है। वे रीजंस को आधार बनाकर निर्णय लेने का उपदेश दे रही हैं।

उनके अनुसार अंधविश्वास और पितृसत्ता की कैद में जीने वाली औरतें कहती हैं कि जो दूसरी बार शादी के फेरे लेती है, भगवान उसे नरक में डालता है। “सीमन्तनी उपदेश” के अनुसार “यह बिल्कुल झूठ है” और “जाहिलों को धोखा देने की यह बात पंडित जी ने बनाई है।” लेखिका हिंदू औरतों के लिए नियम बनाने वालों के दोहरे चरित्र को अंडरलाइन कर रही हैं और साथ ही उनके द्वारा रचे गये भय के जाल को अपनी ज्ञानमीमांसा से काट भी रही है। (P.74)।

लेखिका के अनुसार यह अन्धविश्वास, पंडितों ने फैलाया है कि हिंदू विधवा जिसके साथ दूसरा विवाह करती है, मरने के बाद यमराज वैसे ही मर्द को लोहे का बनाकर, उसे आग में तपाकर उस विधवा के गले लगवाता है। (P.74) । वे पलटकर कहती है कि ऐसा किसी पंडित द्वारा दूसरा विवाह करने पर भी तो होगा।

और अगर पंडित जी शान से दूसरा विवाह कर लेते हैं, तो फिर मान लो कि औरतों के बारे में उन्होंने झूठ फैलाकर धोखा दिया है। यही कारण है ‘सीमन्तनी उपदेश’ ने पतिव्रता धर्म को “खुद मतलबी धर्म” कहा है। (P.112)।

जब लेखिका यह कहती है कि “पतिव्रता धर्म” दरअसल चालक हिंदू पुरुषों द्वारा अपना मतलब सिद्ध करने के लिये बनाया गया धर्म है, तब वह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ज्ञानमीमांसा की मंशा के केंद्र को उजागर कर रही होती हैं। जिसने धर्म के नाम पर अपना मतलब सिद्ध करने को पतिव्रता धर्म कह दिया है।

विधवा विवाह के पक्ष में एक वैज्ञानिक तर्क देते हुए “सीमन्तनी उपदेश” में लिखा गया है कि यौनिक सुख की ख्वाहिश इंसानी न होकर कुदरती है। वे लिखती हैं कि- “अगर परमेश्वर की मर्जी होती कि एक खाविंद के मरने से औरत दूसरी शादी न करे तो उसके साथ ही उसकी ख्वाहिश भी मर जाती।

नहीं, बराबर देखने में आता है- खाविंद के मरे पीछे यह ख्वाहिश आ सताती है। बस, इसमें परमेश्वर की मर्जी साफ पाई जाती है कि औरतें दूसरी शादी कर लें। एक-दो खाविंद के मरने से नहीं बल्कि जब-तक ख्वाहिश बाकी रहे चाहे पचास खाविंद मरें, बेशक शादी कर लो।” ( P. 78)।

विधवा विवाह के पक्ष में “सीमन्तनी उपदेश” का एक अन्य मजबूत तर्क भी है और वे तर्क किसी घटिया धार्मिक ग्रंथ की तरह का मनमाना न होकर, वैज्ञानिक ज्ञान से उपजा हुआ है। वे लिखती हैं कि जब किसी का खाविंद मर जाता है, तब भी स्त्री को महीने के महीने मासिक होता है।

यह भी परमेश्वर का हुक्म है कि वह मां बन सकती है और इसके लिए फिर से शादी कर सकती है। (P. 78) । अगर कुदरत चाहती कि हिंदू विधवा का फिर से विवाह न हो, तो वह विधवा का मासिक चक्र, उसके पति के मरते ही बंद कर देती।

साफ दिख रहा है कि “सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका को बायोलॉजीकल रुल पर भरोसा है, ब्राह्मनिकल रूल पर नहीं।

इस सीमन्तनी के उपदेश में मनु के बनाये नियमों को, मनु की खुदगर्जी कहा गया है। (P. 76)। मनु ने मनुस्मृति के अध्याय पांच के श्लोक 154 और 156 में मर्दों की खुदगर्जी के पक्ष में नियम बनाये हैं। मनुस्मृति के अध्याय पांच के श्लोक 154 में लिखा है कि स्त्री को घटिया से घटिया, बदतमीज से बदतमीज, मूर्ख से मूर्ख, और धोखेबाज से धोखेबाज पति की भी देवता के समान पूजा करनी चाहिए।

लेखिका मनु से सीधे-सीधे टकराते हुए सवाल पूछती है कि जब मर्द अपनी स्त्री को किसी गैर मर्द से बात करते हुए देखते ही गला काटने को तैयार हो जाते हैं, तब स्त्री क्यों कर किसी लंपट मर्द को देवता के समान पुजेगी? (P. 76)। पर लेखिका यह भी जानती है कि घटिया से घटिया पति की पूजा हिंसा के बल पर तो करवाई जा सकती है, अन्यथा नहीं। (P. 76)।

यह सीमन्तनी इस बात को अच्छी तरह से जानती और समझती है कि हिंदू पतिव्रता धर्म का पालन करवाने में हिंसा का उपयोग एक प्रमुख रणनीति है। वरना किसी लंपट को आदर देने का मन किस औरत का करेगा।

हिंदुओं में बहुपत्नी विवाह की आलोचना करते हुए लेखिका पूछती है की जब खाविंद अपनी पत्नी के रहते हुए भी, पत्नी की छाती पर दस-दस सोतों को बिठा देता है, तब तो परिवार और समाज की बदनामी नहीं होती! फिर किसी विधवा के दूसरी शादी करने से बदनामी कैसे हो जाती है? (P. 77) । अगर मर्द हजारों स्त्री वाले कहला सकते हैं, तो स्त्री के दो पति वाली कहलाने में क्या हर्ज है? (P. 77) ।

वे लिखती हैं कि पतिव्रता धर्म एक खुद मतलबी धर्म है। जो पुरुषों ने अपने मतलब के लिए बनाया है। ये धर्म इसलिए बनाया गया है ताकि पुरुष तमाम तरह के गलत रास्तों पर चलते रहें। इस धर्म की जड़ में पुरुषों द्वारा अपनी इंद्रियों के खुल्लम-खुल्ला दुरुपयोग करने की चाहत है।

इतना सब जानते हुए भी वे लिखती हैं कि-हे हिंद की बहनों! बेशक बिना पति के रह लो, लेकिन ऐसी शादी मत करो, जिसमें सम्मान न हो और मुसीबतें-ही-मुसीबतें हों।

लेखिका लिखती हैं कि- “ऐ नेक गरीब भोली हिन्दनियो, इन खुदमतलबियों के कहने को हरगिज ना मानो”। (p. 112)। आखिर ये खुद मतलबी लोग कौन हैं? ये वे लोग हैं जो हिंदू स्त्रियों को अतार्किक और अनैतिक पतिव्रता धर्म सिखा रहे हैं। इनमें तुलसी, मनु, और कई अन्य लोग शामिल हैं।

लेखिका हिंदू धर्म का भला चाहने वाले सभी लोगों का आह्वान करते हुए लिख रही है कि अगर “हिंदुस्तान को नेक राह पर लाना चाहते हो तो पहले उन किताबों को आग में फूंक दो जिनमें स्त्रियों के वास्ते इस धर्म की (पतिव्रता धर्म की) हिदायत है और मर्दों के वास्ते कुछ नहीं है”। (p. 112)।

लेखिका का आशय यह है कि सेक्सुअलिटीके संदर्भ में डबल स्टैंडर्ड को बनाने, प्रोपागेट करने, और प्रेक्टिस करने के नियम देने वाली किताबों का खात्मा होना चाहिए। लेखिका का यह क्रोध हमें मनुस्मृति दहन दिवस संदर्भ में भी याद करनी चाहिए। मनुस्मृति दहन दिवस, लेखिका द्वारा 1882 में इस बात को प्रकाशित करवाने के 45 साल के बाद 1927 में शुरू हुआ।

लेखिका, अपनी हिंदू बहनों को सेक्सुअलिटी से संबंधित डबल स्टैंडर्ड के खिलाफ एक कठोर कदम उठाने का तरीका भी बता रही हैं। लेखिका बता रही हैं कि जब आपका पति किसी अन्य औरत के पास जाए तो तुम कहो कि मैं भी दूसरे मर्द के पास जाऊंगी।

फिर जो-जो सदमे उनकी जनाकारी से तुम पर गुजरते हैं, वे-वे सदमे इनके दिल पर भी गुजरेंगे। (p. 113)। जनाकारी अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है व्याभिचार।

बे-औलाद

आइए आप देखते हैं कि सीमन्तनी उपदेश की लेखिका ने बे-औलाद महिलाओं को क्या उपदेश दिया है? वे लिखती हैं कि- हे! बे-औलाद हिंदूवियों। ऐसा मत समझो की औलाद हो जाने से ही जीवन का मकसद पूरा हो जाता है। बल्कि जीवन के मकसद तो अनेक हैं।

हे! बे-औलाद हिंदवियों ऐसा मत सोचो की औलाद न होने पर तुम किसे प्यार करोगी? ऐसा मत समझो की कुदरत ने तुम्हारा जिस्म सिर्फ अपनी औलाद की ही परवरिश के लिए बनाया है। बल्कि ये सबकी खिदमत करने के लिए बना है। इसलिए अपनी औलाद न होने पर उदास मत होओ। वैसे बे-औलाद औरतों को एक तरह की खुशी मनानी चाहिए की परमेश्वर ने उनको बच्चों के झंझट से माफ किया। (P.101)

वैसे भी अगर तुम सोचो कि औलाद के सहारे अपना परलोक सुधार लोगी तो सुनो कि परलोक जैसी कोई जगह है ही नहीं। सबको अपना भला-बुरा इसी दुनिया में चुकाना होता है। अगर तुम्हें इस दुनिया में अपना कुछ नहीं मिला तो उस दुनिया की कौन जाने? जिस दुनिया के बारे में आज तक तो कोई खबर है नहीं और अगर होगी भी तो वहां भी तुमको यही पुरोहित मिलेंगे जिन्होंने इस दुनिया में तुम्हारा नाम निशान मिटाया है। (P.101)।

और अगर औलाद हो भी जायेगी तो उसे तुम्हारा नाम तो न मिलेगा। फिर किसी और की औलाद के लिए क्यों परेशान हो? वैसे मैं यह भी नहीं कहती कि औलाद की ख्वाहिश ही छोड़ दो।

अगर किसी बीमारी के कारण तुम्हारी औलाद नहीं हो रही है तो डॉक्टर से इलाज कराओ। लेकिन समझ लो कि इन मुर्दा पीरों से कभी औलाद नहीं हो सकती। (p.100)। इसलिए पीरों, फकीरों, बाबाओं के फेरे में पड़कर अपनी जिंदगी को हैरान मत करो।

वे लिखती हैं कि मर्द और औरत के मिलने से औलाद होती है। (p.101)। इसलिए दोनों में से किसी को भी अपना नाम ज्यादा समझने की ख्वाहिश नहीं होनी चाहिए। लेकिन नहीं, औलाद तो मर्द ले उड़ता है और औरत खड़ी-खड़ी देखती रह जाती है।

राजाओं, महाराजाओं से लेकर आम आदमी तक में ऐसा देखा जाता है। इसलिए औलाद की तुम्हारी ख्वाहिश बे-फायदा है। क्योंकि जब से दुनिया पैदा हुई है, तभी से लड़के का नाम बाप के नाम के साथ लिया जाता है। (p.101) औरतों को तो उस नाम को कमाने की कोशिश करनी चाहिए, जो उनके मरने के बाद भी कायम रहे।

देखो मीराबाई की कोई औलाद नहीं थी। उनको मरे हुए जमाना बीत गया है, लेकिन आज तक उनका नाम बहुत इज्जत के साथ लिया जाता है। (P.100)।

कालिदास की पत्नी विद्योत्मा की भी कोई औलाद नहीं थी, मगर विद्या के सूरज की तरह आज तक उसका नाम रोशन है। लीलावती, दमयंती और शकुन्तला की कोई औलाद नहीं थी। एलिजाबेथ जैसी इंग्लिशतान की बहुत सारी औरतों का नाम अपनी वजह से आज तक कायम है। (P.100)।

इसलिए अगर औलाद नहीं होती है तो इसे बहुत परेशानी की बात मत मानो। तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारे पास भी कोई होना चाहिए, जिसकी तुम सेवा कर सको। दुनिया में सेवा करने के लिए बहुत कुछ है। दुनिया में बहुत से हैं, जिन्हें सेवा की जरुरत है।

हे औरतों! तुम्हें लगता होगा कि औलाद तुम्हें स्वर्ग में सुख देगी। पहली बात तो यह है कि तुम इतना भी नहीं जानती हो कि स्वर्ग नाम की कोई जगह है ही नहीं। दूसरी बात ये है कि जब औलाद तुम्हें इस दुनिया के दुखों से छुटकारा नहीं दिला सकती है, तब वे उस दुनिया के दुखों से छुटकारा कैसे दिला देगी? इंसान को अपना भला-बुरा खुद ही भुगतना होता है।

तीसरी बात ये है कि मान लो कि तुम स्वर्ग पहुंच भी गईं, तो वहां भी तुम्हें यही पंडे-पुरोहित मिलेंगे, जिन्होंने इस दुनिया में तुम्हें जीने नहीं दिया, तो क्या वे तुम्हें वहां जीने देंगे? इसलिए स्वर्ग के बारे में बिलकुल मत सोचो। इस दुनिया में अपनी ख़ुशी के बारे में सोचो।

सीमन्तनी उपदेश की लेखिका ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सेक्सुअल पॉलिटिक्स को समझ रही हैं और कोशिश कर रही हैं कि हिन्दू औरतें उस पॉलिटिक्स के शिकंजे से मुक्त हो जाएं। वे सेक्सुअल पॉलिटिक्स, जिसके तहत हिन्दू औरतों की सेक्सुअलिटी और सेक्सुअल डिजायर से संबंधित निर्णय पुरुष और धर्म के ठेकेदार बन गये पुरुष लेते हैं।

विधवा-विवाह

हिंदू औरतों के पुनर्विवाह के बारे में लेखिका लिखती हैं कि-“आजकल के जमाने में जिसका एक खाविंद मर जावे, मेरी राय में उसको दूसरी शादी नहीं करनी चाहिए। मगर बदमाशी करने से दूसरी शादी करनी बेहतर है। शादी से बड़ी-बड़ी तकलीफें उठानी पड़ती हैं।

फिर शादी करने से अपने अखत्यारात दूसरे के अख्तयार में देने पड़ते हैं। जब आपने जिस्मी अख्तयार दूसरे को दिये, तब दुनिया में अपनी क्या चीज बाकी रही?

वे लिखती हैं कि हिंदुस्तानी औरतों को तो आज़ादी किसी हालात में नहीं मिल सकती। बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार, सभी हुकूमत रखते हैं। मगर जिस कदर खाविंद जुल्म करता है, उतना कोई नहीं करता। … लोंडी तो यह सारी उम्र सब ही की रहती है, पर शादी करने से तो बिलकुल ज़रखरीद हो जाती है”। (P. 84-85) ।

मनु ने मनुस्मृति में लिखा है कि जो स्त्री दो पति वाली होती है, उसे परलोक में पति लोक की प्राप्ति नहीं होती। मनु की इस बात का करारा जवाब देते हुए “सीमान्तनी उपदेश” की लेखका व्यंग्य करते हुए लिखती है कि पति लोक की तो खबर नहीं कि वे कहां है? किस विलायत में है? कितनी दूर है? मनु का मजाक उड़ाने के बाद वह औरतों को सलाह देती है कि जो औरत एक खाविंद के मरने के बाद दूसरा नहीं करती, वह बेशक आराम में रहती है। क्योंकि दूसरी शादी करने वाली मारपीट सहती है और बाद में अनेक बातों पर बहुत पछताती है। (P. 77) ।

वे वैज्ञानिक और व्यावहारिक कारणों से पुनर्विवाह का पुरजोर समर्थन करती हैं। उनका मत है कि अगर विधवा को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है तो, उसे दुनिया के दस्तूरों को तोड़कर भी फिर से शादी कर लेनी चाहिए। पर क्योंकि वह भारत के परिवारों में औरतों की हालत को खूब समझती है, इसलिए उनकी सलाह है कि आदमी को चाहिए कि वह एक इंद्री के पीछे, सभी इंद्रियों को तकलीफ में ना डाले। (पृष्ठ 87)।

वे लिखती हैं कि मान लीजिए की अपनी इंद्री के वश में होकर आपने फिर से शादी कर ली और आपके पति को हुक्का पीने की आदत है। अब वे रात के तीन बजे भी कहेगा तो हुक्का भरना पड़ेगा। चाहे बर्फीली ठंड पड़ रही हो, लेकिन मालिक का हुक्का भरना पड़ेगा !

वे लिखती हैं कि अगर कोई सोचता है कि ऐसी हालत सिर्फ गरीबों के घर में है, अमीरों के नहीं तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि हिंदुस्तान में चाहे बादशाह हो या हो अमीर या गरीब, औरतों को दासी समझने के मामले में सब एक जैसे हैं।

यहां पर लेखिका का एक ऑब्जरवेशन देखने के लायक है। वह लिखती है कि- ये खूब देखा गया है कि जब किसी औरत का खाविंद मर जाता है तो गम के दो-चार महीने बाद उसके चेहरे पर एक किस्म की आजादी की चमक जाहिर होने लगती है, जोकि खाविंद वालियों के चेहरे पर नहीं होती। (p. 88)। इसलिए वह विधवाओं को एक मंत्र दे रही है कि जब भी तुम्हारे मन में फिर से शादी करने का ख्याल आए तो शादी से मिलने वाले दुखों को याद कर लेना। (p. 88) ।

हालांकि वे यह भी जानती हैं कि “खाविंद के बिना दुनिया में गुजारा करना बड़ा कठिन है”, लेकिन खाविंद वो होना चाहिए जिसको अपना दिल प्यार करता हो। वे नहीं जिसे जबरदस्ती खाविंद बना दिया गया है। जबरदस्ती के खाविंद से इस दुनिया में ही नरक है। (p. 110)। लेखिका जीवन साथी चुनने के अधिकार का मुद्दा उठा रही हैं।

विधवा विवाह के संदर्भ में लेखिका लिखती है कि अब तुम मर्दों की खुदगर्जी के बारे में जान गई हो। इनकी खुदगर्जी कयामत तक भी तुम्हें मुक्त नहीं होने देगी। इसलिए “बस, अपनी ही हिम्मत की कमर बांधों और इन हिम्मतहारों के भरोसे न रहो”। (p. 74)।

वे लिखती हैं कि पुरोहितों के बताए हुए धर्म पर मत चलो। तुम उस रास्ते पर चलो, जो कुदरत की जरूरत का रास्ता है। अपनी शादी के लिए पहले तो मां-बाप से कहो। उन्हें राजी करने की कोशिश करो। अगर वे न माने, मार-पिटाई करें तो फौरन सरकार के पास रिपोर्ट करो। (p. 74)।

लेखिका आज से 142 साल पहले महिलाओं को उपदेश दे रही हैं कि अपने हक में कानून की मदद लो। यूं ही हाथ-पर-हाथ धरकर मत बैठो। महिलाओं के द्वारा उठाई जा सकने वाली एक आशंका को सामने रखते हुए वे पूछती है कि अगर तुम्हें लगता है कि सरकार के पास शिकायत करने कैसे जाएं?

तो उनकी आशंका का समाधान करते हुए वे औरतों से पूछती हैं कि जब विधवा होने के बाद तुम में से अनेक चकलाघर में पहुंच जाती हो, तो बताओ कि तुम्हें चकले का पता कैसे चल जाता है? यहां पर वे अमृतसर के चकलाघरों का जिक्र करती हैं।

इसलिए वे विधवाओं को संबोधित करते हुए लिखती हैं कि अगर तुम विधवापन के दुख से मुक्ति चाहती हो, तो तुम्हें प्रयास करना होगा और कानून के उपलब्ध ढांचों का अपने हक में उपयोग करना होगा। (p. 74)।

फिर भी वे बार-बार लिखती हैं कि अगर विधवाओं को अपनी इंद्रियों पर काबू नहीं है और अगर उन्हें अपने बहक जाने का डर है तो उन्हें दूसरी शादी कर लेनी चाहिए। ऐसा करके वे एक ओर जहां खुश रहेंगी, वहीं दूसरी ओर बुराई के रास्ते पर चलने से भी बची रहेंगी।

मनुस्मृति में लिखा है कि अगर विधवा पतिव्रता धर्म का पालन करती है तो मरने के बाद वह पति लोक में जाती है। लेखिका मनु से एक तीखा सवाल पूछती है कि जब विधवा पति लोक में पति से मिलेगी तो क्या वे इस बेचारी पर शक नहीं करेगा? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए उस विधवा को चाहिए कि वे शिफारिश के वास्ते पुरोहित को भी अपने साथ ही पति लोक में ले जाए।

वे समझ रही हैं कि जब पूरा खेल ही स्त्री की सेक्सुअलिटी पर शक करने पर टिका हुआ है, तो ऐसे में स्वर्ग में बैठे पति के दिमाग में शक की तस्वीरें नहीं उभर रही होंगी? जरुर उभर रही होंगी। लेखिका लिखती हैं कि- वैसे भी इनमें से एक-एक आदमी दस-दस शादियां करता है।

एक मरता है तो दस विधवा हो जाती हैं। और एक मरती है तो ये दस कुंवारियों से ब्याह करते हैं। (p. 97)। ऐसे मर्दों का शक स्वर्ग में भी तुम्हें चैन नहीं लेने देता होगा। ऐसे में पति लोक में जाकर पति से मिलना एक खतरनाक प्रस्ताव है।

हिंदू परिवारों में संपत्ति की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए “सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका लिखती हैं कि- “बाप के माल में लड़कियों को कौड़ी भी नहीं मिलती। … खाविंद की दौलत पर उसका कोई अख्तियार नहीं होता। बेटे पर उसका दावा चल ही नहीं सकता।

क्या दुनिया में इनसे ज्यादा बेवकूफ और कमबख्त कोई और भी होगा जिसे ख्वाब में अख्तियार ना मिला हो…”। (p. 96)। दरअसल वे कहना चाह रही हैं कि हिंदू परिवारों में संपत्ति के बंटवारे की राजनीति, उनकी सेक्सुअल पॉलिटिक्स का ही हिस्सा है।

ना तो महिलाओं के पास प्रॉपर्टी होगी और ना ही उनकी सेक्सुअलिटी उनके अपने अधिकार में होगी । जिनका अधिकार प्रॉपर्टी पर होगा, उन्हीं का अधिकार औरतों की सेक्सुअलिटी पर भी होगा।

जिस तरह जमीदार संपत्ति विहीन मजदूरों के शरीर पर अधिकार रखते हैं, उसी तरह मर्द, औरतों को संपत्तिविहीन करके उनके शरीर और उनकी सेक्सुअलिटी पर अधिकार करते हैं। बाप का बेटियों को संपत्ति से अलग रखना, पितृसत्ता की सेक्सुअल पॉलिटिक्स का ही हिस्सा है।

किताब के अध्याय 17 में लेखिका ने पार्वती नाम की एक विधवा लड़की की उसके पिता द्वारा हत्या करने की दर्दनाक घटना को दर्ज किया है। (p.80)। पार्वती जब 5 साल की थी, तब उसकी मां की मौत हो गई थी। उसकी मां के मरने के 2 महीने के भीतर ही उसके बाप ने दूसरी शादी कर ली।

जब पार्वती सात साल की हुई तब उसका ब्याह कर दिया गया था। शादी के 2 महीने में ही चेचक से उसके पति की मौत हो गई। उस बेचारी को तो यह भी नहीं पता था कि उस पर मुसीबत का पहाड़ आ गिरा है।

कुछ समय बाद उसकी सौतेली मां भी मर गई तो बाप ने तीसरी शादी कर ली। जब उसके बाप ने तीसरी शादी की तब पार्वती की उम्र 13 साल की थी। कहां उसका बुड्ढा बाप और कहां वे 13 साल की बच्ची।

18 साल की उम्र तक तो पार्वती ने अपनी इंद्रियों को संभाल कर रखा, लेकिन आखिरकार लाचार होकर किसी के प्यार में पड़ गयी । जब उसके बाप को इसकी खबर लगी तो उसने इसे खूब सुनाया, खूब बेइज्जत किया। पार्वती पर परिवार का नाम डुबोने का आरोप लगाया गया।

आरोप लगाने वाला उसका बाप वही आदमी था जो एक के बाद एक तीन शादियां कर चुका था। वह आदमी औरत के बिना 2 महीने से ज्यादा नहीं रह पा रहा था। उसकी बेटी को विधवा हुए 11 साल हो गए थे और उससे उम्मीद कर रहा है कि उसे अपनी इन्द्रियों पर काबू रखना चाहिए था।

उसके बाप ने पार्वती को दूध में जहर मिलाकर दिया और पीने के लिए कहा । इस तरह पार्वती का अंत कर दिया गया। यह हत्या उस खुदमतलबी धर्म की वजह से हुई जिस धर्म की किताबों को जला देने की बात “सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका ने लिखी है।

गहने

“सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका ने हिन्दू महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाले गहनों के पीछे की मान्यताओं पर गहरे आलोचनात्मक सवाल उठाए हैं। पहली टिप्पणी तो उन्होंने यह कहकर की है कि हिंदू समाज ने लड़कियों को भले ही पढ़ना-लिखना न सिखाया हो लेकिन उनमें जेवर के प्रति लालसा बचपन से ही पैदा कर दी है।

उन्होंने लिखा है कि हिंदुस्तानी औरतें कांच की बिंदी माथे पर लगाना सुहाग में गिनती हैं। ऐसी औरतों की समझ पर अफसोस जाहिर करते हुए वे पूछती हैं कि तुमने एक कौड़ी की बिंदी में सुहाग को कैसे दाखिल किया?

जेवर के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा उसका आशय यह पूछना भी है कि माथे पर बिंदी होने के बाद भी सुहाग छोटी-छोटी बीमारियों से कैसे मर जा रहा है? (p.50)। इसके साथ-साथ वे यह भी लिखती हैं कि वे ऐसी अनेक औरतों को जानती हैं जो बिंदी नहीं लगाती, लेकिन फिर भी उनके पति सुरक्षित हैं।

इस तरह वे सुहाग की निशानियों और सुहाग के बचे रहने के बीच स्थापित किये गये अतार्किक सहसंबंध को उजागर कर रही हैं और गहनों के ज्ञानशास्त्र को धराशाई कर रही हैं।

वे लिखती हैं कि हिंदुस्तानी औरतें अपने शरीर में जगह-जगह पर सुराख कर-करके उसमें अपने सुहाग को छुपाना चाहती हैं, लेकिन अफसोस कि सुहाग फिर भी इस दुनिया से निकल जाता है। (p.50)। उन्होंने लिखा कि औरतों ने अपने पूरे शरीर में इतने सुराख कर दिए गए हैं कि वे बदसूरती की खान लगती हैं।

उन्होंने लिखा कि औरतें अपने शरीर पर गहने वैसे ही पहनती हैं, जैसे जानवर के शरीर में नकेल डाली जाती है। (p.50)।

चूड़ियों के पहनने के रिवाज की क्रिटिकल रीडिंग करते हुए “सीमन्तनी उपदेश” की लेखिका लिखती हैं कि औरतों के हाथों की चूड़ियाँ, पति के मरने के बाद उतारी जाती हैं। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि चूड़ियों में सुहाग नहीं है। चूड़ियों में सुहाग का होना तो तब माना जाता, जब पहले चूड़ी उतारी जाती और उतारते ही सुहाग मर जाता है। लेकिन देखने में तो यही बात आती है कि सुहाग के मर जाने के बाद चूड़ी उतारी जाती है।

कपड़े

लेखिका लिखती हैं कि रंगीन कपड़ा सुहाग की निशानी मानी जाती है। इसलिए सुहागिनें छह-छह महीने तक अपना रंगीन कपड़ा नहीं धोतीं। ये उस जमाने की बात है जब सफेद कपड़ों पर अलग से रंगाई की जाती थी। रंग पक्के नहीं होते थे और धोने के साथ ही उतरने लगते थे।

पैसा इतना होता नहीं था कि कपड़ों को रोज-रोज रंगवाया जा सके। इसलिए कई सुहागिन रंगीन कपड़ों को सालों-साल नहीं धोती थीं। वे बिना धोया हुआ कपड़ा ही पहनती थीं। इसलिए लेखिका लिख रही हैं कि परमेश्वर ने इन औरतों को मैला और गंदा पहनने के लिए पैदा किया है।

वे लिखती हैं कि रंगीन कपड़े में सुहाग नहीं है, बल्कि तुम्हारे मैले कपड़ों से तो सुहाग का खुश रहना बड़ा ही मुश्किल है। वे लिखती हैं कि जो आदमी गन्दा-गलीच रहता है उसके पास बैठने का मन किसी का नहीं करेगा। फिर इस हाल में तुम्हारा पति तुम्हारे साथ क्यों बैठेगा?

आज मनुस्मृति दहन दिवस के मौके पर इस किताब को खोजकर पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिए कि मनुस्मृति दहन की सार्वजनिक शुरुआत से 45 साल पहले ही, इस लेखिका ने स्त्री-विरोधी और व्याभिचार समर्थक धार्मिक ग्रंथों को जला देने का आह्वान कर दिया था।

(नोट: कोष्टक में दी गई पृष्ठ संख्या पुस्तक में दी गई संख्या को दर्शाती है) संदर्भ- सीमन्तनी उपदेश. एक अज्ञात हिंदू औरत. डॉ. धर्मवीर (सं. एवं शोध)। वाणी प्रकाशन, 2008)।

(बीरेंद्र सिंह रावत, शिक्षाशास्त्र विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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