मोदीराज का विवेचन पार्ट-3 : नेहरूकालीन धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की जड़ पर प्रहार

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15 अगस्त,’ 47 से लेकर राजीव गांधी के शासन काल (1989) तक नेहरू काल की वैचारिक व शासन विरासत का डंका कम- अधिक बजता रहा है। 1991 में नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारतीय राज्य के चरित्र में आधारभूत परिवर्तन दिखाई देने लगता है।

विश्व बैंक और पश्चिमी अर्थव्यवस्था में दीक्षित डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया जाता है। इसके साथ ही भूमंडलीकरण के तहत तीन प्रक्रियाएं आरम्भ होती हैं: उदारीकरण, विनिवेशीकरण और निजीकरण। जब राज्य की राजनैतिक आर्थिकी बदलती है, तब बहुत कुछ बदलने लग जाता है।

2004-14 के सिंह के प्रधानमंत्री काल में भूमंडलीकरण की रफ्तार और तेज़ हो जाती है। लेकिन, जब मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनते हैं तब उनके सामने कांग्रेस के लंबे शासन काल को जन स्मृति से विलुप्त करने की हिमालयी चुनौती होती है। इसके लिए हिंदू राष्ट्र+अखण्ड भारत+ हिंदुत्व का मिश्रित आख्यान को प्रचारित करने के साथ-साथ ’पहली बार’ के आख्यान को भव्यता के साथ परोसा जाता है। इतिहास के पुनर्लेखन के नारे को उछाला जाता है। एनसीआरटी के पाठ्यक्रमों को बदलने का सिलसिला शुरू होता है।

दशकों से संघ परिवार की आंखों में सूल –सा चुभने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ’टुकड़ा टुकड़ा गैंग’ के नाम से बदनाम किया जाता है। उसकी विश्वविख्यात बौद्धिक संपदा को ध्वस्त करने की हरसंभव कुचेष्टा की जाती है। परिसर में हिंसा होती है। राष्ट्रवाद के प्रचार के लिए परिसर में नुमाइशी टैंक को खड़े करने की दलील दी जाती है। वामपंथी विद्यार्थियों को बदनाम करने के लिए यौनाचार का हथकंडा अपनाया जाता है।

शिक्षण संस्थाओं पर केसरिया रोगन पोतने की हरचंद कोशिशें की गईं। इन कोशिशों का सिर्फ एक ही मकसद था : नेहरू कालीन विरासत व मूल्यों का विस्थापन और मोदी+ शाह ब्रांड भाजपा शासन शैली का स्थापन। इस प्रतिस्थापन प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति, जिसके अंतर्गत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्ज़ा प्राप्त था। इसका पूर्ण राज्य का दर्ज़ा छीन कर इसे केंद्र शासित राज्य में तब्दील कर दिया गया। लद्दाख को अलग कर इसका अंगभंग किया गया।

अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी हैसियत दिखाने के लिए सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) लाया गया, जिसके विरोध में शाहीन बाग आंदोलन भी हुआ। मोदी राज की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब मुस्लिम स्वयं को ’दोयम दर्ज़ा’ का नागरिक महसूस करने लगे हैं। और वो भी आजादी के अमृत काल में। अल्पसंख्यक समुदाय में फैलता हुआ ऐसा एहसास भारत को पाकिस्तानी चरित्र की बराबरी में लाकर खड़ा कर देता है।

पाकिस्तानी मरहूम शायरा फ़हमीदा रियाज़ के शब्दों में “तुम भी हम जैसे निकले, अब तक कहां छिपे थे भाई“। मोदी -मंत्रिमंडल और लोकसभा में भाजपा का एक भी मुस्लिम सांसद व मंत्री का नहीं होना क्या दर्शाता है। मोदी+ शाह राज का यह करिश्मा भी कम नहीं है कि देश का मुख्य न्यायाधीश ईश्वर से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपना फैसला सुनाए।

लोकतंत्र में पूर्व प्रतिभाशाली मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की स्वीकारोक्ति भी कम चमत्कारिक नहीं है। उन्होंने अयोध्या में रामजन्भूमि मंदिर विवाद पर फैसला लिखते समय ईश्वर से प्रार्थना की और मार्गदर्शन प्राप्त किया था।

इससे पहले उनके पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने आस्था के आधार पर फैसला दिया था। इसके चंद महीनों के बाद ही मोदी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना दिया था। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के ही एक सवर्ण न्यायाधीश ने मोदी को महान प्रधानमंत्री घोषित किया था। उन्हें भी पुरस्कार मिला और मानवाधिकार आयोग के शिखर पद पर बैठा दिया गया।

जब देश का चीफ एक्जीक्यूटिव (प्रधानमंत्री) स्वयं को अजैविक व ईश्वर के मिशन का प्रतिनिधि कहता है, तब मुख्य न्यायाधीश आस्था व ईश्वर से मार्गदर्शन की बात कहते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कोलकाता उच्च न्यायालय के एक सिटिंग जज ने अपने पद से इस्तीफा दिया और अगले दिन भाजपा में शामिल हो गया। फिर 2024 के चुनावों भाजपा उम्मीदवार बन कर चुनाव भी जीत गया।

पिछले ही साल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक सिटिंग जज ने विश्वहिंदू परिषद के मंच से सांप्रदायिक दुर्गंध का संबोधन भी किया। सुप्रीम कोर्ट ने जज को दिल्ली बुलाकर अपने व्यवहार के संबंध में ज़वाब तलबी भी की। इस तरह की घटनाओं से इस बात के संकेत मिलते हैं कि मोदी राज में किस प्रकार का विषाक्त वातावरण बनता जा रहा है। चंदेक न्यायाधीश और कानून विदों की निष्पक्षता शंकाओं के घेरे में आ जाती है। वास्तव में मोदी शैली और कुबेर जीवन शैली के बीच

एक अदृश्य दैविक सादृश्यता की गंध आती प्रतीत होती है। इससे न्यायिक क्षेत्र भी अछूता नहीं रहता है। इस गंध से लोकतंत्र व संविधान की प्रभावशीलता पर निश्चित ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। एक ही झटके में हम आधुनिक काल से मध्यकाल में पहुंच जाते हैं। न्यायपालिका की भूमिका अप्रासंगिक लगने लगती है।

आजादी के बाद यह भी पहली घटना है जब आधे दर्जन से ज़्यादा सफेदपोश दस्यु (विजय माल्या,नीरव मोदी, मेहुल चौकसी आदि) सरकारी बैंकों का हजारों करोड़ रु. मार कर विदेशों में विलासिता का जीवन जी रहे हैं। पिछले एक दशक में किसी भी बड़े दस्यु धन पशु को वापस भारत लाने में मोदी+ शाह सरकार निर्लज्जता के साथ नाकाम रही है। मोदी राज में ही बैंकों का करीब 16 लाख करोड़ ’एनपीए’ हो चुका है। अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद भी घटा है।

मोदी राज में ही चीन ने लद्दाख क्षेत्र से सटे अपने क्षेत्र में दो काउंटी बनाई हैं जिसमें भारत की कुछ भूमि को शामिल कर लिया गया है। जनवरी में ही विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि इस घटना से कुछ महीने पहले ही विदेशमंत्री जयशंकर ने अपने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि भारत अपने से तगड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन के साथ कैसे लड़ सकता है। ऐसा करना बेवकूफी होगी।

इस आत्मस्वीकृति से तो भारत की निर्बलता ही जाहिर होती है, और चीनी विस्तार के लिए अगली छलांग मारने की ज़मीन तैयार होते दिखाई देती है। यदि इंदिरा राज में कोई मंत्री ऐसा कह देता तो संसद में उसकी फ़जीहत होती और त्यागपत्र भी देना पड़ता क्योंकि यह राष्ट्र की गरिमा का सवाल है।

मोदी राज में ही किसानों का एक साल लंबा संघर्ष ( 2020– 21) भी चला था। राजधानी दिल्ली के चारों बॉर्डरों पर किसान लंगर डाले पड़े रहे, भूख प्यास, मौसम और कोविड के कोड़ों को झेला। किसानों के अनुसार इस संघर्ष में 700 से अधिक किसानों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। इस वर्ष भी न्यूनतम मूल्य को लेकर किसानों का संघर्ष चल रहा है। जनवरी के दूसरे सप्ताह में एक किसान ने खुदकुशी की।

पिछली दिसंबर में भी एक संघर्षरत किसान खुदकुशी कर चुका था। पहले से ही एक वृद्ध किसान आमरण अनशन पर है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और पंजाब सरकार से ज़वाब तलबी की है। लेकिन, मोदी राज्य संवेदना शून्य बना हुआ है।

पिछले दो सालों से मणिपुर अशांत बना हुआ है। अब हिंसक घटनाएं ’आम घटना’ बन चुकी हैं। लेकिन, यह लिखे जाने तक प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर में झांका तक नहीं है, जबकि वे दुनिया जहान का दौरा करते रहे हैं।

2025 में राष्ट्रीय स्वयं संघ के जन्म के 100 वर्ष पूरे हो जाएंगे। संघ का शताब्दी वर्ष चलेगा। मोदी+ शाह जुगलबंदी का स्वप्न रहा है कि वह भारत को ’हिंदू राष्ट्र’ का तोहफा संघ सुप्रीमो को दे। शायद इसलिए लोकसभा के ताज़ा चुनावों से पहले ’अबकी बार 400 पार’ का गगन फाड़ नारे का शंखनाद भी किया गया था। लेकिन, भारत की बहुसंख्यक हिंदू जनता की मानसिक बनावट को नारा रास नहीं आया। नतीजा, भाजपा की 63 सीटें घट गईं और यह 240 पर अटक गई। यहां तक कि अयोध्या या फैजाबाद की सीट पर समाजवादी दल का प्रत्याशी जीता।

नवनिर्मित मंदिर में प्राणप्रतिष्ठित भगवान राम ने भी मोदी ब्रांड भाजपा को आशीर्वाद नहीं दिया। मोदी जी का 400 पार का स्वप्न बिखर गया है। यदि उन्हें 400+ सीटें मिल जातीं तो संविधान के साथ क्या होता, इसकी कल्पना की जा सकती है। संविधान के प्रथम पृष्ठ पर मुद्रित प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हटाने के लिए भाजपा पूरी तरह से आमादा है। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने दोनों शब्दों को संविधान की भावना के अनुकूल बताया है।

सारांश में, इन्हें हटाया नहीं जा सकता। फिलहाल भाजपा दिल मसोस कर बैठ गई है। लेकिन अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ेगी। मोदी राज से संघ को जन्म शताब्दी उपहार नहीं मिल सकेगा या लम्बे समय तक इंतजार करना पड़ेगा। हालांकि, मोदी राज ने एक राष्ट्र-एक चुनाव का नारा जरूर उछाल दिया है। संभव है, इस मुद्दे पर इसी वर्ष कोई ठोस कदम उठाया जा सकता है।कैबिनेट से इसकी मंजूरी मिल चुकी है।

मोदी राज में दो संस्थाएं सबसे अधिक कुचर्चित या विवादास्पद बनी हुई हैं: चुनाव आयोग और मीडिया। मेरे ज्ञात इतिहास में आयोग की भूमिका कभी इतनी संदेहास्पद नहीं रही है, जितनी मोदी दौर में हुई है। विपक्ष की नज़र में आयोग भाजपा का ही एक हिस्सा बन कर रह गया है; ईवीएम मशीन के साथ छेड़छाड़ करने के अलावा वोटर लिस्ट में भारी मात्रा में धांधली की शिकायतें आम बनती जा रही हैं।

दिल्ली में शिकायतों का विस्फोट हुआ है। इससे पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में आयोग की भूमिका को बट्टा लग चुका था। आम धारणा है कि यदि आयोग निष्पक्ष होकर अपनी भूमिका निभाता है तो भाजपा की जीत संदिग्ध हो जाएगी और मोदी लोकप्रियता का खोखलापन स्वतः ही उजागर हो जाएगा।

यही धारणा मीडिया पर भी लागू होती है। मोदी राज में आरम्भ से ही अघोषित आपातकाल की धारणा काफी बलवती रही है। भय का वातावरण बना हुआ है। मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप को लाद दिया गया है। गोदी मीडिया के संबंध में पहले कहा ही जा चुका है। इस स्थान पर इतना ही कहना पर्याप्त है कि लोकतंत्र के दो परंपरागत पाए: मीडिया और चुनाव संस्था पोले दिखाई दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के कारण आयोग को झुकना पड़ा और इलेक्टोरल बॉन्ड का भंडाफोड़ हो सका।

संक्षेप में, जिन कंपनियों ने भाजपा को भरपूर चंदा दिया था, उनपर मोदी राज की मेहरबानियों की बरसात भी हुई। इस संदर्भ में भी आयोग और गोदी मीडिया की भूमिका सवालों के घेरे में बनी रही है। एक वक्त था जब मीडिया के प्रतिनिधि स्वतंत्र भाव से संसद की कार्यवाहियों को कवर किया करते थे। निसंकोच हो कर सेंट्रल हॉल में जाते और अनौपचारिक ढंग से मंत्रियों व सांसदों के साथ बातें किया करते थे। छन-छन कर राजसत्ता के गलियारों की सेहत व कारगुज़ारियों का पता चला करता था। मेरा यह निजी अनुभव रहा है।

लेकिन, अब मीडिया के लोग सेंट्रल हॉल में झांक तक नहीं सकते। यहां तक कि पूर्व सांसदों का भी प्रवेश प्रतिबंधित है। यह एक प्रकार का अघोषित आपातकाल (इमरजेंसी) ही तो है। मीडिया और पूर्व सांसदों से इतने भयभीत रहते हैं मोदी जी। वैसे प्रधानमंत्री मोदी कहने लगे हैं, “मैं भी एक मनुष्य हूं। मुझसे भी गलतियां हो सकती हैं।” जनवरी के दूसरे सप्ताह में उन्होंने एक इंटरव्यू में अपनी सीमाओं को स्वीकार किया। इसके विपरीत पिछले साल चुनाव के समय वे स्वयं को ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ घोषित करते रहे हैं।

लेकिन, चंद महीनों के भीतर ही अजैव से जैव (मनुष्य) में रूपांतरण का एहसास कम आश्चर्यजनक नहीं है। ‘अजैव’ शब्द को लेकर मोदी जी का काफी उपहास उड़ चुका है। अब उन्हें लग रहा है कि मनुष्येतर का मोह छोड़ ज़मीन पर ही इंसान बने रहना चाहिए। लेकिन, मोदी जी के’ चालों’ को समझना आसान नहीं है। वे अपनी सुविधा का ध्यान में रख कर किधर भी पासे फेंक सकते हैं। फिलहाल उनका सबसे बड़ा सिरदर्द है गौतम अदानी को अमेरिकी अदालत के चंगुल से सुरक्षित बाहर निकालना।

सारांश में, पिछले एक दशक में उदारवादी लोकतंत्र की जड़ें ही कमज़ोर हुईं हैं, और एकतंत्र का शिकंजा पहले से अधिक मजबूत हुआ है, नागरिक चेतना के बजाए ‘प्रजा मानसिकता’ अमरबेल बन कर फैलती जा रही है!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

(समाप्त)

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