padmashree giriraj kishore

नहीं रहा गांधी का गिरमिटिया साहित्यकार

नई दिल्ली/ कानपुर। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार गिरिराज किशोर अब हमारे बीच नहीं हैं। आज सुबह ह्दय गति रुकने से उनका निधन हो गया। मूलत: मुजफ्फरनगर निवासी गिरिराज किशोर कानपुर में बस गए थे और यहां के सूटरगंज में रहते थे। वह 83 वर्ष के थे। उनके निधन से साहित्य के क्षेत्र में शोक छा गया। पारिवारिक सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक उन्होंने अपना देह दान किया है। कल सोमवार सुबह 10 बजे उनके शरीर को मेडिकल छात्रों के अध्ययन के लिए सौंपा जाएगा।
साहित्य और जीवन में गांधीवादी मूल्यों के पैरोकार गिरिराज किशोर के बाबा जमींदार थे। उनके घर को आज भी मोतीमहल के नाम से जाना जाता है। घर का पूरा वातावरण जमींदारी ठसक से भरा था। गिरिराज किशोर को यह पसंद नहीं था और बचपन से ही उनको साहित्य से प्रेम था। जिसके कारण मुजफ्फरनगर के एसडी कॉलेज से स्नातक करने के बाद गिरिराज किशोर घर से सिर्फ 75 रुपये लेकर इलाहाबाद आ गए। और अखबारों औऱ पत्रिकाओं में लेख लिखना शुरू किए। उससे जो रुपए मिलते उससे अपना खर्च चलाते थे।
वह उपन्यासकार होने के साथ एक कथाकार, नाटककार और आलोचक भी थे। उनके सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे। उनका उपन्यास ढाई घर भी बहुत लोकप्रिय हुआ। वर्ष 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। गिरिराज किशोर का पहला गिरमिटिया नामक उपन्यास महात्मा गांधी के अफ्रीका प्रवास पर आधारित था। इस उपन्यास ने उन्हें साहित्य के क्षेत्र में विशेष पहचान दिलाई। इसके साथ ही उन्होंने गांधी जी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा के जीवन पर आधारित ‘बा’ उपन्यास लिखकर कस्तूरबा को चर्चा के केन्द्र में लाने का काम किया।
गिरिराज किशोर का जन्म 08 जुलाई, 1937 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ था। उनकी इंटर तक की शिक्षा इलाहाबाद और उच्च शिक्षा मुजफ्फरनगर और आगरा में हुई। आगरा के समाज विज्ञान संस्थान से उन्होंने 1960 में मास्टर ऑफ सोशल वर्क की डिग्री ली। वह उत्तर प्रदेश में 1960 से 1964 तक सेवायोजन अधिकारी व प्रोबेशन अधिकारी भी रहे। इसके बाद अगले दो वर्ष प्रयागराज में रहकर स्वतंत्र लेखन किया। जुलाई 1966 से 1975 तक वह तत्कालीन कानपुर विश्वविद्यालय में सहायक और उप कुलसचिव रहे। वर्ष 1975 से 1983 तक वे आईआईटी कानपुर में कुलसचिव रहे। आईआईटी कानपुर में ही 1983 से 1997 के बीच रचनात्मक लेखन केंद्र की स्थापना की और उसके अध्यक्ष रहे। जुलाई 1997 में वह सेवानिवृत्त हो गए। नौकरी के दौरान भी इस साहित्यकार ने अपने लेखन के कार्य को नहीं छोड़ा।
तमाम साहित्यिक पुरस्कारों और साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ ही भारत सरकार ने 2007 में उनको पद्मश्री से भी सम्मानित किया था। इसके साथ ही उ.प्र.हिंदी संस्थान ने भारतेन्दु सम्मान, म.प्र. साहित्य कला परिषद का बीर सिंह जूदेव सम्मान, उ.प्र.हिंदी संस्थान ने साहित्यभूषण, भारतीय भाषा परिषद का शतदल सम्मान, पहला गिरमिटिया उपन्यास पर के.के. बिरला फाउण्डेशन द्वारा व्यास सम्मान, उ.प्र.हिंदी संस्थान का महात्मा गांधी सम्मान और उ.प्र.हिंदी साहित्य सम्मेलन ने हिंदी सेवा के लिए प्रो. बासुदेव सिंह स्वर्ण पदक से सम्मानित किया था।

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