गुलामी के खिलाफ सबसे सशक्त आवाज न्गुगी वा थियांगो नहीं रहे

केन्या के महान लेखक न्गुगी वा थियांगो नहीं रहे। उन्होंने 87 साल की उम्र को जीया और अब वह हमारे बीच नहीं है। अपनी भाषा और समाज के साथ जीने के लिए उनकी ‘जड़ों की ओर वापसी’ अफ्रीका के साहित्य जगत में ही नहीं पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था। उन्होंने उपनिवेशिक भाषा के बर्चस्व के खिलाफ लिखते हुए उन्होंने अपनी सर्जना की भाषा को अपनी मातृ-भाषा गिकुयू में बदल दिया। यह सिर्फ एक भाषा से दूसरी भाषा में जाना नहीं था। यह अपनी जड़ों की तलाश थी जहां से मुक्ति की आवाज साफ सुनी जा सकती थी।

हिंदी में उन्हें आनन्द स्वरूप वर्मा ने उनके निबंधों का अनुवाद कर प्रस्तुत किया और लोकप्रिय बनाया। उपनिवेशवाद और भाषा की राजनीति पर निबंधों का यह संग्रह शानदार था। ‘आमुख’ पत्रिका के संपादक कंचन कुमार उनका प्रसिद्ध निबंध ‘मूविंग द सेंटर’ का ‘जड़ों की ओर वापसी’ नाम से अनुवाद कर छापा।

यह एक नाटक के स्थल पर नाट्यकर्मियों की दावेदारी में प्रतिरोध, संस्कृति और बर्चस्व की राजनीति के खिलाफ संघर्ष को केंद्र बनाकर लिखा गया है। जिस समय मैं दिल्ली आया था, उस समय कंचन कुमार दिल्ली छोड़ने की तैयारी कर रहे थे। दिल्ली छोड़ने के पीछे एक बड़ा कारण न्गुगी वा थियांगो थे। वह उनसे दिल्ली में हुए एक सेमिनार में मिल चुके थे। लेकिन, उससे भी अधिक वह न्गुगी वा थियांगो के अपनी मातृभाषा गिकुयु में लिखने का निर्णय था। वह अपनी भाषा ‘बांग्ला’ में लौटना तय कर चुके थे। लौटने में थोड़ा समय लगा लेकिन वह अंततः अपने शहर कलकत्ता लौट गये और वहां उन्होंने बांग्ला में ही लिखना और जीना शुरू किया।

न्गुगी वा थियांगो का एक दूसरा रूप दिल्ली में 1996 में ‘राष्ट्रीयता के सवाल’ पर हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पेश किया गया उनका प्रपत्र ‘डीकोलोनाइजिंग द मीन्स ऑफ इमैजिनेशन’ में दिखता है। वह इसमें दुनिया को देखने की जगह बदलने और इसे जनता के बीच ले जाने का आग्रह करते हैं जहां से उसकी हिस्सेदारी हो सके और जनता इसका केंद्र बन सके।

आज भी इस बात का आग्रह बना हुआ कि भाषा स्वभावतः एक अभिजात्य निर्माण है जिसमें साहित्य रचा जाता है। इस बात के आग्रही आगे बढ़ते हुए जब उससे अभिजात्य दुनिया को रचते हैं, शब्द, नाद और रूप पर बात करते हुए उस भाषा से बनते बर्चस्व को न सिर्फ भूल जाते हैं, उसी का हिस्सा और नेतृत्वकर्ता बन जाते हैं तब वह भाषा अपनी दृष्टि में अपने मूल से कट चुकी होती है। न्गुगी वा थियांगो सिर्फ अंग्रेजों और अंग्रेजी भाषा के उपनिवेशवाद की ही बात नहीं कर रहे थे, वे अभिजात्य वर्ग और उसकी भाषा की भी आलोचना कर रहे थे।

न्गुगी वा थियांगो का जन्म 1938 में हुआ था। जब वह किशोर थे, उस समय केन्या में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हथियारबंद माउ-माउ विद्रोह उठ खड़ा हुआ था। इस युद्ध में हजारों लोग मारे गये। इसमें न्गुगी वा थियांगो का परिवार प्रभावित हुआ। वे गिकुयु बोलने वाले समुदाय से आते थे और सबसे अधिक संघर्ष इस समुदाय की ओर किया गया था। इसमें न्गुगी वा थियांगो के दो भाई शहीद हुए। इन्हें इनके बहुत सारी जमीनों से बेदखल कर दिया गया।

उनके उपन्यास ‘वीप नाट चाइल्ड’ और ‘मातीगरी’ में इसे पढ़ा जा सकता है। लेकिन, इसकी अभिव्यक्ति ‘द ट्रायल ऑफ डेडन किमाथी’ में हुई। माउ-माउ विद्रोह पर ही जब उनका नाटक ‘आई विल मैरी व्हेन आइ वाॅन्ट’ में गिकुयु में छपी तब केन्या में भूचाल सा आ गया। उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब न सिर्फ उनकी पुस्तकों को जब्त किया गया, साथ ही उनके घर पर रखी कार्ल मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की पुस्तकों को जब्त कर लिया गया था। उन्हें भारत की जेलों की भाषा में कहा जाये तो ‘अंडा सेल’ में रखा गया। इसी दौरान एक शानदार उपन्यास ‘डेविल ऑन द क्राॅस’ को गिकुयु में लिखा। जिसका अंग्रेजी अनुवाद उन्होंने ब्रिटेन प्रवास के दौरान किया।

वह जेल में रहते हुए ही इस चिंतन की ओर बढ़े कि भाषा कितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। उन्होंने भाषा को एक राजनीतिक चिंतन और उसके दार्शनिक पहलू के नजरिये से देखना शुरू किया।

चिनुबा अचेबे का उपन्यास ‘थिंग्स फाॅल अपार्ट’ में उपनिवेशवाद और परम्परागत जीवन के बीच की टकराहट को जिस तरह से सामने ले आता है, उसमें निश्चित ही उपनिवेशवाद की तीखी आलोचना थी। लेकिन, उस उपन्यास में बिखरते समाज के अंतर्निहित कारणों को चिन्हित भी किया गया था। न्गुगी वा थियांगो का नजरिया इससे अलग है। वह उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष को अपनी कथावस्तु का केंद्र बनाते हैं और उससे जुड़कर बनते स्थानीय अभिजात्यों को उसके साथ खड़ा कर देखते हैं। ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ में (इसका अनुवाद आनन्द स्वरूप वर्मा ने किया है और गार्गी प्रकाशन से छपा हुआ है) में इसे एक नये नजरिये से उद्घाटित करते हैं।

न्गुगी वा थियांगो ने साहित्य के जिस दर्शन को रचा और उसे जीवन में उतारा वह बेहद कठिन था। वह 1978 में जेल से बाहर आये। उन्हें जान से मार डालने की आशंका बढ़ती जा रही थी। वह ब्रिटेन प्रवास के दौरान वहीं रहे और फिर अमेरिका आये। वहां उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में लंबे समय तक पढ़ाया और कई सारी सैद्धांतिक रचनाओं को अंजाम दिया।

2004 में वह एक बार केन्या लौटे लेकिन यह लौटना आसान नहीं था। पिछले 20 साल में उन्हें कई बार परेशानियों से गुजरना पड़ा। उन्हें दिल की बिमारी और किडनी की समस्या ने जकड़ लिया था। उन्हें प्रोस्टेट कैंसर से भी जूझना पड़ा था। उन्होंने 28 मई, 2025 को अमेरिका के बूफोर्ड में अंतिम सांस लिया।

आधुनिक समय में दुनिया के सबसे बड़े साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार से नहीं नवाजा गया। जब उनसे इस संदर्भ में एक बार पूछा गया तब उन्होंने कहा इस पुरस्कार को लेकर मुझसे अधिक मेरे चाहने वाले चिंतित हैं। उन्हें पता था कि उनका पुरस्कार क्या है।

न्गुगी वा थियांगों अपने समय के अप्रतिम रचनाकार थे। भारत में उनका वरवर राव के साथ लगातार संपर्क बना रहा। अभी हाल ही में वरवर राव की रचनाओं के मीना कंडास्वामी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद कर पेग्यूइन प्रकाशन से आये संग्रह की भूमिका लिखी। निश्चित ही भारत में कई अन्य लोगों के द्वारा वह संपर्क में रहे। उनकी पक्षधरता और भाषा का समाज की जड़ तक पहुंचने और वहां से प्रतिरोध की भाषा को गढ़ने का जो दृष्टिकोण था, वह जन पक्षधरता और जन की आवाज का एक मानदंड बना रहेगा।

न्गुगी वा थियांगो चिंतन की अवधारणा पर तकनीक के प्रभावों के बारे में बात करते हुए लिखते हैंः ‘‘लेकिन, निश्चय ही जिस सोच को हम सामने लाते हैं उसका सबसे प्राचीन और सबसे प्राथमिक माध्यम भाषा ही है, जिसे हम अपने प्राकृतिक तकनीक बोलने के माध्यम से प्रकट करते हैं। गाने के लिए या बोलने के लिए किसी भी बड़े भोंपू की जरूरत नहीं है। गाना गाने के लिए या कहानी सुनाने के लिए पैसे की जरूरत नहीं पड़ती है। और, कोई भी ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं है जो हमारी आवाज को गाने और कहानी सुनाने को रोक सके।’’

यह उद्धहरण मैंने ‘डीकोलोनाईजेशन द माइंड ऑफ इमैजिनेशन’ से लिया है। यह निबंध जिस जगह उन्होंने पढ़ा था वह दिल्ली थी। वह यहां लगभग 30 साल पहले यहां आये थे अपने समाज के बारे में बोल रहे थे, जिसकी अनुगूंज भारत में आज भी सुनी जा सकती है। न्गुगी वा थियांगो आपकी आवाज हमारे बीच बनी रहेगी, अलविदा!

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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