नई दिल्ली। गन्ना पेराई का समय आ रहा है। 1 नवम्बर से इसकी शुरुआत होती है। इसके ठीक पहले ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने महाराष्ट्र की 45 सहकारी चीनी मिलों को बंद करने का आदेश जारी कर दिया। इतने बड़े पैमाने पर चीनी मिलों के बंद करने का आदेश निश्चित ही किसानों को बुरी तरह से प्रभावित करेगा।
इन चीनी मिलों को बंद करने का आदेश मुंबई में इस बार हुए अप्रत्याशित प्रदूषण की समस्या से निपटने के उद्देश्य से किया गया है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस चीनी मिलों को बंद करने का आदेश महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एमपीसीबी) की ओर से नहीं आया है। यह आदेश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से आया है।
द हिंदुस्तान की 25 अक्टूबर, 2023 की रिपोर्ट के अनुसार एमपीसीबी को सीपीसीबी की ओर से लिखे पत्र में कमलेश सिंह ने कहा है कि उन्होंने गैर स्थापना/गैर कनेक्टिविटी के कारण पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 5 के तहत गैर-अनुपालन करने वाले चीनी उद्योगों को बंद करने के निर्देश दिए हैं।
धारा 5 के अंतर्गत केंद्र सरकार के पास किसी भी उद्योग को बंद करने अधिकार है। इस धारा के तहत केंद्र के पास प्रतिष्ठान का संचालन या प्रक्रिया को बंद करने, बिजली और पानी की आपूर्ति या किसी अन्य सेवा को रोकने या पुनरीक्षित करने सहित निर्देश देने की शक्तियां हैं।
सीपीसीबी उपरोक्त शक्तियों का प्रयोग इन सहकारी चीनी मिलों को बंद करने के उद्देश्य से बिजली आपूर्ति से लेकर पानी की आपूर्ति भी रोकने की दिशा में निर्णय लेने की ओर बढ़ रही है। अब यह तय हो गया है कि चीनी मिलों को बंद करने के निर्देश को निरस्त किये बिना ये काम करने की स्थिति में नहीं रहेंगी। इस संदर्भ में एमपीसीबी को भी 10 नवम्बर, 2023 के पहले रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा गया है।
इस खबर में चर्चा गरम हो उठी कि शरद पवार और कांग्रेस की सहकारी चीनी मिलों को निशाना बनाया गया है। प्रदूषण बोर्ड के अधिकारी सफाई दे रहे हैं कि ऐसा नहीं है। बंद होने वाली मिलों में भाजपा से संबंधित चीनी मिलें भी हैं। महाराष्ट्र में लगभग 200 चीनी मिलें हैं, जिसमें से 105 चल रही हैं। इसमें से 45 को बंद करने का आदेश का अर्थ है लगभग आधी चीनी मिलों को बंद कर देना। इन पर पर्यावरण से जुड़े अधिनियम के उलघंन का आरोप है।
महाराष्ट्र में सितम्बर, 2023 में बारामती एग्रो यूनिट्स के खिलाफ महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से की गई कार्रवाई में इसे बंद करने का आदेश जारी हुआ था। यह उद्यम शरद पवार के परिवार से जुड़ा हुआ है। उस समय भी इसे एक ‘राजनीतिक कार्रवाई’ की तरह ही देखा गया था। लगभग, 20 दिनों बाद मुबई उच्च न्यायालय ने इसे बंद करने की कार्रवाई को जल्दबाजी की कार्रवाई बताते हुए, इस उद्योगिक इकाई को बंद करने के आदेश को 19 अक्टूबर, 2023 को खारिज कर दिया।
उस समय उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में नियमों के उलंघन की सीमा, पर्यावरण को नुकसान का स्तर, इसे ठीक करने की अवधि और अन्य दूसरे उपायों का प्रयोग जैसे मसले भी उठाये। न्यायालय ने यह भी कहा था कि इस तरह की बंदी के लिए किन प्रक्रियाओं को अपनाया गया, यह भी स्पष्ट नहीं है।
महाराष्ट्र में सहकारी उद्यम उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। यह बात गुजरात और कर्नाटक के लिए भी सही है। ये वे सहकारी समितियां ही थीं, जो मध्यम, धनी और बड़े किसानों को एक साथ लाने में कामयाब हुईं। इससे पिछड़ा, अति-पिछड़ा जाति समुदाय आर्थिक और राजनीतिक पायदान पर ऊपर की ओर बढ़ा और राज्य की राजनीति में एक निर्णायक हस्तक्षेप किया।
यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भूमि सुधार को क्रांतिकारी तरीके से लागू करने के बजाए, सहकारी खेती के मॉडल पर जोर दे रहे थे। उस समय 1947 के ठीक पहले एकीकृत गुजरात-महाराष्ट्र में उभर रहे सहकारी मॉडल को वह ध्यान में रख रहे थे। इसमें कांग्रेस पार्टी से जुड़े धनी और बड़े किसानों ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई।
इन राज्यों में कांग्रेस की पकड़ के पीछे यह वह वर्ग था, जिसके पीछे एक बड़ी लामबंदी थी जो 1990 तक आते-आते नवउदारवादी नीतियों और हरित क्रांति से पैदा हुए खेती के संकट से टूटने लगा। इसमें निश्चित ही दलित समुदाय लगातार दमन का शिकार होता रहा है। बाद के समय में, इन समुदायों को दक्षिणपंथी राजनीति और दंगों में एक पैदल सेना की तरह झोंक दिया गया।
निश्चित ही, इस बार मुंबई में प्रदूषण की स्थिति भयावह हो उठी है। इसमें एक बड़ा कारण अलनीना का वो असर है जिससे पूर्वी प्रशांत महासागर की सतह ठंडी हो गई। इससे समुद्र की ओर हवा का दबाव कम हो गया। पिछले कुछ सालों से मुंबई की ओर ठंड का असर बढ़ने से भी हवा का आवर्ती बहाव 2 से 3 दिन की जगह बढ़ते हुए 10 से 15 दिन हो गया। इस बार यह आवर्तन थोड़ा और बढ़ा है और गति भी बेहद कम हो गई। इससे, प्रदूषण को खत्म करने वाली मूल प्रक्रिया बाधित हुई और धूल, धुंआ और खतरनाक गैस उत्सर्जन हवा में अपना घनत्व बढ़ा लिया।
निश्चित ही, मौसम विज्ञानियों को इस संदर्भ में पहले से सतर्क रहना चाहिए था और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पहले से ही तैयारियां करनी चाहिए थीं। ऐसा लगता है कि ऐसा नहीं हुआ या इस दिशा में उपयुक्त कदम नहीं उठाए गए। अब देर से ही सही, प्रदूषण बोर्ड ने तेजी से कदम उठाना शुरू किया है। लेकिन, इलाज के लिए उठाए गये उपाय ऐसे होने चाहिए जिससे मर्ज की दवा हो सके।
प्रदूषण का असर आम जीवन पर पड़ता है। यदि 45 चीनी मिलों को बंद करने का आदेश तात्कालिक तौर पर आसमान साफ करने के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन लाखों किसानों और मजदूरों की जिंदगी तबाह भी हो सकती है। मर्ज को ठीक करने का अर्थ उसे मार देना कतई नहीं होना चाहिए। और, राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए तो कतई नहीं।
उम्मीद है, केंद्र और राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारत की न्यायपालिका कोई न कोई उपयुक्त रास्ता निकालेगी जिससे कि सांस लेने और जिंदगी जीने का अधिकार, दोनों ही अपनी गति से चलते रहें।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)