पच्छूं का घर: जीवन के विविध रंगों से रूबरू कराती एक किताब

‘पच्छूं का घर’ पुस्तक आपबीती घटनाओं का सृजनात्मक आख्यान है। यह लेखक के जीवन के सभी आयामों को अपने में समेटती है। लेखक अपने निजी जीवन की कथा कहते हुए अपने समय का भी चित्र प्रस्तुत करता है, इन अर्थों में यह सामाजिक रिपोर्ताज भी बन जाती है। लेखक का जीवन गांव से लेकर महानगर तक फैला हुआ है।

किताब पढ़ते हुए पाठक ग्रामीण जीवन और शहरी जीवन के अलग-अलग रूपों का साक्षात्कार कर सकता है। इन दोनों के बीच के अन्तर्विरोध भी सामने आते हैं। 1990 का दशक भारतीय समाज में एक बड़ा परिवर्तन लेकर आता है। लेखक ने आपबीती के माध्यम से उस परिवर्तन को भी रेखांकित किया है, यह तथाकथित वैश्वीकरण और उदारीकरण का दौर है, जहां अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज और संस्कृति में भी तेजी से परिवर्तन घटित हो रहे हैं। बहुत कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जो बहुतों के लिए अनदेखा और अनचाहा था। लेखक के जीवन का पूर्वार्द्ध क्रांतिकारी राजनीति और सामाजिक परिवर्तन के सपने के साथ बीतता है। जीवन के उत्तरार्द्ध में लेखकीय जीवन और निजी जीवन के जद्दोजहद प्रमुखता से सामने आते हैं।

लेखक अपने पैतृक गांव, विशेषकर पुराने मिट्टी के घर की एक मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करता है। मिट्टी के पुराने घर और बड़े-बुजुर्ग के बीच की साम्यता का रूपक पाठक को भीतर तक छू लेता है- “कच्चे घर अपने बाशिंदों से बच्चों जैसी देखरेख मांगते हैं लेकिन उनकी किस्मत अक्सर किसी बुजुर्ग के साथ जुड़ी होती है। गांव में मेरे पुश्तैनी घर का रूहानी तार मेरी दादी के साथ जुड़ा था। उनकी बेनूर आंखों ने इसे अंधियारे खंडहर जैसा बना डाला था और उनके जाने के साथ ही ढहने लगा था। एक साल के अंदर उत्तर की दालान, फिर उसके बगल वाला भूसे का घर, फिर रसोई और सात-आठ साल में ही सिर्फ एक कमरा साबुत छोड़कर सारा का सारा…” यानि देख-रेख के अभाव में सारा घर गिर गया।

जैसा कि पुस्तक के आवरण पर ही लिखा गया है- ‘पच्छूं का घर- एक कार्यकर्ता की कहानी’। लेकिन पुस्तक की कहानी लेखक के कार्यकर्ता बनने के पहले से शुरू है। अपने परिवार और पुस्तक में अपने गांव मनियारपुर का वर्णन करते हुए 1857 में स्वतंत्रता सेनानियों का साथ दिए परिवारों की दुर्दशा का भी वर्णन है- “अपने पुरखों की हवेली के सपाट हो चुके खंडहर पर बने एक छोटे से घर में वे लोग रहते थे। 1857 के गदर में बागियों ने इस घर का सबकुछ तहस-नहस करके इसे लगभग लावारिस बना दिया था।”

गांव के माहौल पर वह लिखते हैं-“छावनी से निकलकर एक-दो साल गांव-पुर के लोगों के सात बिताने में मिलिट्री चाचा को बोध हो गया कि बतौर सिविलियन जिंदा रहना फौज की सख्त जिंदगी से कहीं ज्यादा मुश्किल है।”

लेखक अपने पैतृक घर के साथ परिवार, पड़ोस और रिश्तेदारों के साथ अपने रिश्ते और अनुभव की परतें भी खोलता चलता है। जो जीवन के कटु और मृदु रूपों के बहुत सारे अपरिचित रूप एक के बाद एक खुलते जाते हैं। क्रांतिकारी छात्र-राजनीति और वामपंथी पार्टी में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनना लेखक के जीवन में एक बड़ा मोड़ था, जिसने लेखक के जीवन की पूरी दिशा बदल दी थी।

अपने गृह जनपद से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन या आईएएस की तैयारी करने इलाहाबाद आने और फिर क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने की कहानी बयां करते वह लिखते हैं-“इलाहाबाद जाने का मेरा मकसद आईएएस की तैयारी करना या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ना था।….ऐसे में आजमगढ़ से इलाहाबाद जाने के थोड़े ही समय बाद पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-चाकरी का सारा चक्कर छोड़कर क्रांति के रास्ते पर निकल जाने की मेरी चिट्ठी जब घर वालों को मिली होगी तो यह उनके लिए एक झटके जैसा ही रहा होगा। भैया के जवाबी खत का मजमून मुझे आज भी अच्छी तरह याद है।”…हमारे वरिष्ठ साथी अनिल अग्रवाल ने, जो बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के नामी वकील बने, कई दिनों की खुसुर-फुसुर की बातचीत के बाद मुझे सीपाआई-एमएल (लिबरेशन) का सदस्यता फॉर्म भरवाया।…मेरे पटना पहुंचने के कोई साल भर बाद, 1989 के मई महीने में पार्टी ने वर्ग संघर्ष के प्रत्यक्ष अनुभव के लिए मुझे पटना ग्रामीण के पुनपुन, नौबतपुर और पालीगंज अंचलों में रहने के लिए भेज दिया।”

इस तौर के अनुभव किताब में जीवंत रूप में चित्रित किया गया है। यह वही दौर था, जब लेखक क्रांतिकारी बदलाव की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करते हुए, खुद में भी तेजी से बदलाव महसूस कर रहा था। उसकी संवेदना, चेतना और जीवन को देखने-समझने का नजरिया सब कुछ बदल गया। लेखक आज भी इसे अपनी थाती मानता है।

अंतत: लेखक देश की राजधानी दिल्ली आता है, जहां उसकी पत्रकारिता की यात्रा शुरू होती है। कई संस्थानों में पत्रकारिता करने वाले लेखक अपने पत्रकारिता के शुरुआती दिनों को लिखते हैं, “ नहा-धोकर शकरपुर से आईएनएस, बारह-तेरह किलोमीटर पैदल ही चले जाते थे। वहां भी कोई काम नहीं था। सिर्फ यह उम्मीद थी कि कोई दोस्त-मित्र मिल जाएगा।…..दिल्ली में पहली नौकरी मुझसे कुल आठ या नौ महीने ही हो पाई थी…लेकिन मेरा ठलुआपन अन्य लोगों से थोड़ा हल्का रहा।”

यह यात्रा भी काफी जद्दोजहद से भरी हुई थी। बहुत सारे उतार चढ़ावों से गुजरना पड़ा। अच्छे और बुरे अनुभवों से साबका पड़ा। अनचाही प्रतियोगिता से और अहंकारों से टकराना पड़ा। फिर भी लेखक ने अपने भीतर के इंसान को मरने नहीं दिया। आत्मीयता के पानी को सूखने नहीं दिया। अपने भीतर के सृजनात्मकता को बनाए और जिलाए रखा। एक कवि और लेखक के रूप में अपनी पहचान कायम किया।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

प्रदीप सिंह

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

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