नोटबंदी के बाद मोदी सरकार ने दावा किया था कि आतंकवाद की कमर टूट गई है। अनुच्छेद 370 हटाते समय दूसरा दावा था कि आतंकवाद की जड़ें उखाड़ दी गई हैं। संसद में इस सरकार ने बार-बार अपनी पीठ ठोंकी कि कश्मीर घाटी में सब कुछ सामान्य है और आतंकवाद अब कांग्रेस के जमाने की बात हो गई है। लेकिन पहलगाम में पर्यटकों पर हुए हालिया हमले ने साबित कर दिया कि न तो आतंकवाद की जड़ें उखड़ी हैं और न ही उसकी कमर टूटी है।
कुछ दिन पहले पाकिस्तान ने आरोप लगाया था कि बलूचिस्तान में ट्रेन पर हुए हमले में भारत का हाथ है। भारत और पाकिस्तान के बीच ऐसे आरोप-प्रत्यारोप आम हैं। लेकिन क्या यह मान लिया जाए कि केवल पाकिस्तान ही भारत में आतंकी हमले करवाता है और भारत, पाकिस्तान में कोई गड़बड़ी नहीं करता? हो सकता है कि यह हमला उसी का जवाब हो। भले ही ऐसा न हो, पहलगाम हमले में पाकिस्तान की संलिप्तता पर कोई संदेह नहीं है। सवाल यह है कि यदि यह हमला पाकिस्तान प्रायोजित था, तो भारत सरकार की खुफिया एजेंसियाँ क्या कर रही थीं?

खबरें हैं कि ऐसी घटना की आशंका की जानकारी थी, फिर भी सक्रियता का अभाव या सूचनाओं को नजरअंदाज करना खुफिया तंत्र की सक्षमता पर गंभीर सवाल उठाता है। इससे भी बड़ा सवाल केंद्र सरकार की कश्मीर नीतियों की विफलता पर है। पिछले 12 वर्षों में कम-से-कम छह बड़े आतंकी हमले हुए, जिनमें 95 से अधिक लोग मारे गए। पिछले साल जून में भी ऐसा ही एक हमला हुआ था। भाजपा सरकार बार-बार लोगों की सुरक्षा और हमलावरों को पकड़ने में नाकाम रही है।
अनुच्छेद 370 हटाने और जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनने के बाद इस क्षेत्र की सुरक्षा का पूरा जिम्मा केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय, केंद्रीय सुरक्षा बलों और उपराज्यपाल पर है। राज्य सरकार और विधानसभा की इसमें कोई खास भूमिका नहीं है। इसलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को इस घटना और इससे निपटने में हुई विफलता की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
वर्तमान में इस केंद्रशासित प्रदेश की आबादी लगभग 1.4 करोड़ है। पुलिस, अर्धसैनिक बलों और सेना को मिलाकर चार लाख से अधिक जवान यहाँ तैनात हैं, यानी हर 35 नागरिक पर एक जवान। इतने सघन सशस्त्रीकरण के बावजूद, किश्तवाड़ के जंगली रास्तों से हमलावरों का घुस आना और पर्यटकों पर 15 मिनट तक अंधाधुंध गोलीबारी कर 27 लोगों की हत्या कर देना चौंकाने वाला है।
इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि इतने संवेदनशील क्षेत्र में हमले के समय कोई पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था, जो आतंकियों का मुकाबला करता। यही कारण है कि सुरक्षा बलों की ओर से एक भी गोली नहीं चली और न ही हमले के तुरंत बाद पीड़ितों को चिकित्सा सुविधा मिली, जिससे मृतकों की संख्या बढ़ गई। देश के किसी भी हिस्से में नागरिकों की जान-माल की रक्षा की जिम्मेदारी से सरकार मुकर नहीं सकती। फिर यह हमला मोदी सरकार की नाकामी नहीं, तो और क्या है?
पाकिस्तान प्रायोजित इस हमले की जितनी निंदा की जाए, कम है। लेकिन यह भी उतना ही स्पष्ट है कि कश्मीर के मामले में खुफिया तंत्र की सतर्कता और केंद्र सरकार की नीतियाँ बार-बार विफल हुई हैं। हमले के बाद गोदी मीडिया और संघी गिरोह का यह दावा कि पर्यटकों से उनका धर्म पूछकर हिंदुओं को निशाना बनाया गया, पूरी तरह झूठा साबित हुआ है।
साफ है कि इस घटना की आड़ में भाजपा और संघी गिरोह ‘हिंदू-मुस्लिम’ और ‘भारत-पाकिस्तान’ के नाम पर नफरत की राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में जुट गए हैं, ताकि बिहार और अन्य राज्यों के आगामी चुनावों में लाभ उठा सकें। अब यह भी संभव है कि मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक भावनाएँ और पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद को भड़काने के लिए मोदी सरकार कोई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करे।
इस हमले में केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि सैयद हुसैन शाह नामक एक मुस्लिम और कुछ विदेशी पर्यटक भी मारे गए। हमले के बाद कश्मीरी मुस्लिम समुदाय ने जिस एकजुटता से पीड़ितों की मदद की, वह अभूतपूर्व है। सोशल मीडिया पर छत्तीसगढ़ के चिरमिरी के 11 लोगों को स्थानीय मुस्लिम कपड़ा व्यापारी नजाकत अली द्वारा बचाए जाने की कहानी वायरल है।
कर्नाटक के पर्यटक मंजूनाथ भी इस हमले में मारे गए। उनकी जीवित बची पत्नी पल्लवी का बयान भी उल्लेखनीय है: “उस दहशत और लाचारी के पल में तीन कश्मीरी युवक आए और हमें बचाया। वे ‘बिस्मिल्लाह, बिस्मिल्लाह’ कहते हुए हमारी मदद करते रहे। उन्होंने हमें सुरक्षित जगह पहुँचाया। मैं आज उनकी वजह से जीवित हूँ। वे अब अजनबी नहीं, मेरे भाई हैं।” ऐसी कई कहानियाँ अभी सामने आएंगी। यही हिंदू-मुस्लिम एकता की वह सिल्वर लाइन है, जो न आतंकियों की गोलियों से मिटेगी और न ही संघी गिरोह की सांप्रदायिक नफरत की राजनीति से। कश्मीर की असली ताकत यही है।
यह स्पष्ट है कि इस हमले से कश्मीर के पर्यटन उद्योग को भारी नुकसान होगा। लेकिन इन हमलों के पीछे कश्मीरी लोग नहीं हैं, क्योंकि कोई अपनी आजीविका पर लात नहीं मारता। असली दुश्मन वे हैं, जो विभाजन, हिंसा और नफरत की राजनीति से लाभ उठाते हैं।
इस नरसंहार के विरोध में कश्मीर घाटी में बंद रहा। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अपनी पार्टी और माकपा सहित घाटी की सभी प्रमुख राजनीतिक धाराओं ने इस बंद का समर्थन किया। कई सामाजिक-धार्मिक, व्यापारिक संगठनों और नागरिक समाज ने भी इस आतंकी हमले की कड़ी निंदा की और बंद का समर्थन किया।
घाटी में कई जगह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें लोगों ने हमले की निंदा की। आतंकी हमले का ऐसा एकजुट विरोध पिछले 35 वर्षों में पहली बार देखने को मिला। इस बंद की सफलता ने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच दरार डालने की आतंकी साजिश को नाकाम कर दिया। यह कश्मीर के सुखद भविष्य का संकेत है।
कश्मीर में संवेदनशील सैन्य सूचनाएँ पाकिस्तान तक पहुँचाने के आरोप में पकड़े गए लोगों में कई संघी गिरोह से जुड़े हैं। अभी तक गिरफ्तार लोगों में न कोई मुस्लिम है, न ईसाई, न सिख और न ही बौद्ध। मनोज मंडल (मध्य प्रदेश), ध्रुव सक्सेना (बिहार), राजीव शर्मा जैसे कुछ नामों के भाजपा से संबंध जगजाहिर हैं।
मध्य प्रदेश में तो आरएसएस के 11 कार्यकर्ता, जिनमें एक भाजपा पार्षद भी शामिल था, जासूसी के आरोप में गिरफ्तार हुए। इससे साफ है कि भाजपा-संघ का राष्ट्रवाद छद्म-राष्ट्रवाद है, जो व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिए जनता की देशभक्ति का शोषण करता है।
संघी गिरोह को पहलगाम हमले के संकेतों को सही ढंग से समझना चाहिए। कश्मीर की समस्या राजनीतिक है और इसका समाधान भी राजनीतिक ही होगा। इस समस्या का जितना संबंध पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से है, उतना ही भाजपा की नीतियों से भी है। इन नीतियों ने कश्मीर का विखंडन कर उसकी अस्मिता को रौंदा है और कॉर्पोरेट लूट के लिए दरवाजे खोले हैं। अनुच्छेद 370 हटाने का मकसद भी यही था।
भाजपा की नीतियों ने देशभर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए मुस्लिम विरोधी भावनाएँ भड़काई हैं, जो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को खाद-पानी देता है। यदि आतंकवाद का मुकाबला करना है, तो हिंदुत्व की राजनीति और कॉर्पोरेट गठजोड़ को हराने के लिए जनता को लामबंद करना होगा। कश्मीर के संदर्भ में असली राजनीतिक चुनौती यही है।
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)
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