क्यों सोवियत संघ बिखर गया, क्यों चीन का समाजवादी मॉडल नित नई ऊंचाइयां छू रहा है?

Estimated read time 3 min read

कार्लोस मार्तिनेज उन युवा मार्क्सवादी विद्वानों में हैं, जो आज के दौर में दुनिया में समाजवादी विमर्श को फिर से खड़ा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। दो साल पहले उनकी ‘The End of the Beginning’ आई थी। यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि सोवियत संघ के 70 साल के अनुभव और उसके विघटन के कारणों को समझने के लिहाज से एक यह बेहद उपयोगी प्रकाशन है।

इस वर्ष उनकी नई किताब ‘The East is Still Red: Chinese Socialism in 21st Century’ आई है। इस पुस्तक को पिछली किताब की शृंखला में ही मार्तिनेज का अगला योगदान माना जा सकता है। नई किताब यह स्थापित करती है कि सोवियत संघ का प्रयोग बेकार नहीं गया, बल्कि उससे बहुत जरूरी सबक लिए गए। चीन ने उससे क्या सीखा औऱ किस तरह 21वीं सदी में अपने खास मॉडल के साथ एक बार फिर से समाजवाद को एक आकर्षक और व्यावहारिक विचार के रूप में उसने प्रासंगिक बना दिया है।

चीन की सफलता इस समय दुनिया का सबसे चर्चित विषय है। आर्थिक क्षेत्र में अपनी कामयाबियों के साथ इस समय चीन किस तरह चमक रहा है, इसका विवरण हमें रोज- यहां तक कि- पश्चिमी मीडिया में भी पढ़ने-देखने को मिलता है। मार्टिन जैक्स और किशोर महबूबानी जैसे लेखकों ने इस सफलता के विभिन्न पहलुओं की विस्तार से चर्चा अपनी किताबों में की है। ब्रिटिश लेखक जैक्स ने 2008 में ही चीन के बारे में लिखी अपनी किताब का शीर्षक When China Rules the World रखा था। महबूबानी ने 2020 में आई अपनी किताब  का नाम Has China Won- The Chinese Challenge to American Primacy रखा। दरअसल, आज ऐसी किताबों की कोई कमी नहीं है।

इनके बीच मार्तिनेज की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी किताब के जरिए इस तर्क को आगे बढ़ाया है कि चीन की सफलता दरअसल, समाजवाद की सफलता है। इस रूप में वे ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन रॉस की श्रेणी में हैं। जॉन रॉस ने कहीं अधिक गंभीर विश्लेषणों के साथ चीनी मॉडल के समाजवादी स्वरूप की व्याख्या की है। इस सिलसिले में उनकी किताब China’s Great Road: Lessons for Marxist Theory का खास उल्लेख किया जा सकता है।

चीन की सफलताएं निर्विवाद हैं। लेकिन चीन की व्यवस्था का स्वरूप क्या है, यह सवाल दुनिया में एक तीखे विवाद का मुद्दा है। बहुत से लोग या संगठन भी, जो अपने मार्क्सवादी या समाजवादी कहते हैं, चीनी व्यवस्था के स्वरूप के सवाल पर अक्सर पश्चिमी पूंजीवाद/साम्राज्यवाद की पैरोकार शक्तियों के साथ खड़े नजर आने लगते हैं। यानी वे वैसी ही दलीलें देने लगते हैं, जिनके जरिए पश्चिमी राजनेता, थिंक टैंक और मीडिया चीन के खिलाफ शुरू किए गए ‘नए शीत युद्ध’ को जायज ठहराते हैं।

यह कथन अक्सर सुनने को मिलता है कि माओ जेदुंग युग के बाद चीन भटक गया और 1980 के दशक से वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की तानाशाही के तहत एक पूंजीवाद देश बना हुआ है। इस सिलसिले में चीन को साम्राज्यवादी (व्लादीमीर लेनिन की परिभाषा के मुताबिक साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था है) तक कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई जाती है।

मार्तिनेज की किताब को आज की दुनिया में चल रही इस बड़ी बहस के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। दरअसल, यही वो संदर्भ है, जिसमें यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक बन जाती है। हालांकि किताब में चीन में गरीबी उन्मूलन की अभूतपूर्व सफलता और वहां पारिस्थिकीय सभ्यता (ecological civilization) बनाने में हो रहे अभिनव प्रयोग की कथा विस्तार से बताई गई है, लेकिन ये इस पुस्तक के सामान्य हिस्से हैं।

पहली कथा- यानी गरीबी से देश को पूरी तरह मुक्त करने में चीन को मिली कामयाबी को तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां स्वीकार कर चुकी हैं। यह अभियान कैसे चला और किस तरह चीन ने गरीबी पर विजय प्राप्त की, यह कहानी भी अब नई नहीं रही है। पारिस्थितिकीय सभ्यता निर्माण के प्रयोग से ज़रूर अभी दुनिया मोटे तौर पर अनजान है, लेकिन जो लोग अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर बारीक नजर रखते हैं, वे इससे अनभिज्ञ नहीं हैं।

मार्तिनेज ने चूंकि अपना ध्यान ‘21वीं सदी में चीन के समाजवाद’ पर टिकाए रखा है, इसलिए उन्होंने इन दोनों सफलताओं अथवा प्रयोगों को समाजवाद की कामयाबी के रूप में प्रस्तुत किया है। इस तरह उन्होंने चीन के सिस्टम के स्वरूप या चरित्र को लेकर चल रही बहस में एक सशक्त हस्तक्षेप किया है। इस तर्क में दम है कि पूंजीवाद का स्वाभाविक स्वरूप गरीबी को कायम रखना है, ताकि जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा था, समाज में बेरोजगारों की एक फौज- reserve army of labour- हमेशा मौजूद रहे।

श्रम से अतिरिक्त मूल्य (surplus value) के शोषण के लिए यह एक बुनियादी शर्त है। ऐसे में चीन ने गरीबी हटाने का महति अभियान चलाया- जिसमें सीपीसी के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने अपनी जान की कुर्बानी दी, तो फिर यह तथ्य ही चीन की व्यवस्था के बारे में एक नई समझ बनाने का आधार उपलब्ध कराता है।

इसी तरह ग्रीन एनर्जी से लेकर वनीकरण तक में चीन ने जो मिसालें कायम की हैं, वे यह सवाल उठाती हैं कि चीन की तुलना में कई गुना अधिक समृद्ध और तकनीकी रूप से सक्षम पश्चिमी देशों ने इस दिशा में प्रगति क्यों नहीं की? और क्या यह तथ्य चीनी सिस्टम को पश्चिमी पूंजीवादी सिस्टम से अलग स्वरूप प्रदान नहीं करता?

बहरहाल, इन दोनों पहलुओं का मार्तिनेज ने विस्तार से जिक्र जरूर किया है, लेकिन वह इस किताब का विशिष्ट योगदान नहीं है। इसका विशिष्ट योगदान इस बहस में हस्तक्षेप है कि चीन अब सोशलिस्ट रह गया है या नहीं? इस प्रश्न पर स्पष्टता का अभाव ही वह कारण है, जिसकी वजह से बहुत से भलमानस लोग भी पश्चिमी (खासकर अमेरिका) साम्राज्यवादी देशों की तरफ से चीन को घेरने (encirclement) और उसकी बढ़ती ताकत पर लगाम लगाने (containment) के प्रयासों में सहभागी बन जाते हैं।

तो ऐसी स्पष्टता बनाने के प्रयास में मार्तिनेज ने दो खास सवालों को अपने विमर्श में शामिल किया है। ये हैः

  • क्या तंग श्याओपिंग के दौर से चीन जिस रास्ते पर चला, उसमें और माओ के युग के बीच कोई बड़ी दीवार खड़ी है? यानी क्या तंग के काल में चीन माओ के रास्ते से हट गया और क्या अब चीन माओ के विचारों के विपरीत खड़ा है?  
  • दूसरे जिस प्रमुख सवाल पर उन्होंने विचार किया वो यह है कि मिखाइल गोर्बाचेव के काल में सिस्टम में सुधार/ विकास की कोशिश आखिर क्यों सोवियत संघ को ले डूबी, जबकि तंग के दौर में शुरू हुए प्रयास ने चीन को एक महाशक्ति बना दिया? इसी के साथ उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि क्या चीन का भी वही हाल होगा, जो सवा तीन दशक पहले सोवियत संघ का हुआ था?

सीपीसी के दस्तावेजों में अक्सर no two denials के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। इसका अर्थ यह है कि सीपीसी ने तंग श्याओपिंग के निर्देशन में नया रास्ता अपनाया, लेकिन उसने माओ की विरासत नहीं छोड़ी है। तंग श्याओपिंग अपने जीवन के आखिरी समय तक यह कहते रहे कि माओ वो महान शिक्षक हैं, जिनके वैचारिक दिशा-निर्देशन के बिना आज के चीन की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इस रूप मे सीपीसी इन दोनों में से किसी के योगदान से इनकार नहीं करती। बल्कि दोनों के योगदान को वह वैचारिक विकासक्रम की शृखंला के रूप में देखती है। ऐसा वह किन तर्कों के आधार पर करती है, इसका विवरण मार्तिनेज ने अपनी किताब में दिया है।

इस चर्चा के क्रम में माओ, तंग, शी जिनपिंग और आधुनिक चीन का अध्ययन करने वाले विद्वानों के उद्धरणों का भरपूर संदर्भ इस किताब में दिया गया है। तंग की नीतियों को रिफॉर्म एंड ओपनिंग-अप (सुधार और खुलापन) के रूप में जाना जाता है। सुधार के तहत कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देशन में बाजार अर्थव्यवस्था को चीन में अपनाया गया, जबकि खुलेपन के तहत बाकी दुनिया से निवेश, तकनीक आदि को आमंत्रित किया गया, जिसके जरिए जैसा कि कहा जाता है कि चीन ‘दुनिया का कारखाना’ बना। इन दोनों नीतियों का चीन को आर्थिक महाशक्ति बनाने में खास योगदान रहा है। मगर मुद्दा यह है कि क्या ये नीतियां माओवाद विरोधी हैं?

इसी सिलसिले में मार्तिनेज ने माओ के एक खास इंटरव्यू का जिक्र किया है, जो उन्होंने ‘वर्ग युद्ध’ के दौर में मशहूर पत्रकार एडगर स्नो को दिया था। इसमें माओ ने कहा था- ‘जब चीन अपनी आजादी हासिल कर लेगा, तब वैध विदेशी व्यापार हितों को चीन में पहले के किसी भी मौके से ज्यादा अवसर हासिल होंगे। 45 करोड़ लोगों (चीन की तत्कालीन आबादी) के लिए उत्पादन एवं उपभोग की शक्ति विकसित करना ऐसा मसला नहीं है, जिसे चीन सबसे अलग-थलग रहते हुए प्राप्त कर लेगा। बल्कि इसके लिए अनेक राष्ट्रों से संबंध बनाना होगा। जब चीन के करोड़ों लोग अपनी सोयी उत्पादक संभावनाओं को हर क्षेत्र जगा लेंगे, तब वे अर्थव्यवस्था में सुधार और पूरी दुनिया के सांस्कृतिक स्तर को ऊंचा करने में रचनात्मक योगदान करेंगे।’

मार्तिनेज ने कहा है कि माओ के इस कथन के चार दशक बाद चीन इतना सक्षम हो पाया, जिससे वह इस उद्देश्य की तरफ बढ़ने की शुरुआत कर सके। इसके पहले एक अक्टूबर 1949 को पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद माओ के दौर में चीन ने क्या हासिल किया, उसका जिक्र एडगर स्नो ने अपनी किताब में किया है।

एडगर स्नो ने लिखा है- ‘जमीन का नए सिरे से बंटवारा किया गया और टैक्स का बोझ घटाया गया। बड़े पैमाने पर साझा उद्योग स्थापित किए गए।… बेरोजगारी, अफीम, वेश्यावृत्ति, बाल दासता और जबरिया विवाह की समाप्ति की गई। शांतिपूर्ण क्षेत्रों में मजदूरों और गरीब किसानों के जीवन स्तर में भारी सुधार हुआ। जिन सोवियतों ने स्थिरता प्राप्त कर ली थी, वहां जन शिक्षा में काफी प्रगति हुई। कुछ काउंटीज (जिला क्षेत्रों) में रेड गार्ड्स ने तीन या चार साल के अंदर आम जन में साक्षरता का वैसा ऊंचा स्तर हासिल किया, जैसा उसके पहले ग्रामीण चीन के किसी भी क्षेत्र करने में कई सदियां लगी थीं।’

जॉन रॉस ने लिखा है कि पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद से माओ की मृत्यु तक के 27 साल में चीन में जीवन प्रत्याशा में 31 वर्ष की बढ़ोतरी हुई। पूरी दुनिया के इतिहास में यह जीवन प्रत्याशा में वृद्धि की सबसे तेज दर है। इसके बावजूद चीन उस समय कुल मिलाकर एक गरीब देश था और अपने पड़ोसी पूर्व एशियाई देशों में हुई आर्थिक वृद्धि की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ था।

मार्तिनेज ने चीनी अर्थशास्त्री यिफू लिन के हवाले से कहा है कि पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के समय चीन और पूर्व एशियाई देशों की प्रति व्यक्ति आय में बहुत कम फर्क था। लेकिन 1978 आते-आते जापान अमेरिका की बराबरी कर रहा था, और दक्षिण कोरिया एवं ताइवान ने पश्चिमी देशों से अपनी खाई काफी पाट ली थी। हालांकि चीन एक पूर्ण औद्योगिक सिस्टम कायम करने, एटम बम बना लेने, और उपग्रह तैयार कर लेने का श्रेय ले सकता था, मगर लोगों का जीवन स्तर पश्चिमी देशों की तुलना में काफी पीछे था।

इसी पृष्ठभूमि में तंग ने अपना यह विचार सामने रखा कि अगर कम्युनिस्ट सरकार अपनी जनता के जीवन-स्तर में महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं ला पाई, तो पूरा सोशलिस्ट सिस्टम लोगों की निगाह में अपनी वैधता खो देगा और यह खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने कहा- ‘एक पिछड़े हुए देश में समाजवाद के निर्माण की कोशिश करते हुए यह लाजिमी है कि एक लंबी आरंभिक अवधि में उसकी उत्पादक शक्तियां विकसित पूंजीवादी देशों की तरह विकसित अवस्था नहीं रहेंगी और वह गरीबी का पूरा उन्मूलन करने में सफल नहीं होगा। इसीलिए समाजवाद के निर्माण के लिए हमें उत्पादक शक्तियों को विकसित करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए, ताकि धीरे-धीरे गरीबी मिटाई जा सके और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा हो सके।’

मार्तिनेज इसे एक दिलचस्प तथ्य बताया है कि यही बात माओ ने 1949 में कही थी। उन्होंने कहा था- ‘सबसे पहले मजदूरों और फिर अन्य आम जन के जीवन स्तर में सुधार करने में हम सफल नहीं हुए, तो हम राजनीतिक सत्ता बरकरार नहीं रख पाएंगे। हम इसे गंवा देंगे और नाकाम हो जाएंगे।’ तो तंग के काल में चीन ने सुधार और खुलेपन की नीति अपनाई। उससे चीनी समाज में कई ऐसी समस्याएं पैदा हुईं, जो समाजवाद में अपेक्षित नहीं है। मसलन, देश में आर्थिक गैर-बराबरी में भारी इजाफा हुआ। लेकिन माओ के दौर में तैयार हुई जमीन पर खड़ी की गई इन नीतियों ने चीन को एक आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति बना दिया। इससे चीन गरीबी मिटा पाया और जैसा कि कहा जाता है कि आर्थिक विषमता जरूर बढ़ी, लेकिन इस दौर में सबका जीवन स्तर ऊंचा हुआ है।

अब शी जिनपिंग के दौर में विषमता का हल ढूंढने की नीतियां प्राथमिकता में आई हैं। साझा समृद्धि (common prosperity) का विचार सबसे पहले माओ ने सामने रखा था। अब शी के दौर में यही सीपीसी का मूलमंत्र बनता दिख रहा है। पारिस्थिकीय सभ्यता का निर्माण दरअसल, इसी अवधारणा का एक हिस्सा है।

तो इसी के साथ सवाल सामने आता है कि क्या चीन इस प्रयोग को आगे बढ़ा पाएगा या किसी मुकाम पर जाकर सोवियत संघ की तरह वह भी लड़खड़ा जाएगा? इस सिलसिले में शी का यह कथन महत्त्वपूर्ण है- ‘इतिहास और वास्तविकता दोनों ने यह साबित किया है कि सिर्फ समाजवाद ही चीन को बचा सकता है और सिर्फ चीनी स्वभाव का समाजवाद (socialism with Chinese character) ही चीन में विकास ला सकता है।’

सुधार और खुलेपन की नीति की शुरुआत करते समय तंग श्याओपिंग ने कहा था- ‘अगर चीन ने बुर्जुआ उदारीकरण की अनुमति दी, तो निश्चित रूप से उथल-पुथल से उसे गुजरना पड़ेगा। उससे कुछ हासिल नहीं होगा, और हमारे सभी सिद्धांत, नीतियां, दिशा और विकास की रणनीति का नाकाम होना तय हो जाएगा।’

कई अन्य विद्वानों की तरह मार्तिनेज की भी दलील है कि अगर इन दो बातों में चीनी नेतृत्व की आस्था बनी रही और इससे वह नहीं भटका, तो चीन सोवियत संघ जैसी परिणति से बचा रहेगा। सोवियत संघ में 1970 के दशक में आर्थिक विकास गतिरुद्ध होने लगा था, समाज नौकरशाही शिकंजे में फंस गया था, विचारधारा अपना आकर्षण खो चुकी थी, श्रमिक कार्यस्थलों से गैर-हाजिर रहने का बहाना ढूंढने लगे थे, तकनीकी प्रगति ठप हो गई थी और इन सभी कारणों से समाज दिशाहीन हो गया था।

ऐसा उस समय हुआ, जब पश्चिमी देश तकनीक प्रगति के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे थे। उस समय पश्चिमी प्रचार तंत्र का हमला सोवियत संघ में कारगर हो गया। यहां तक कि सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक ऐसा हिस्सा मजबूत हो गया था, जो पश्चिमी प्रचार के प्रभाव में था। इसी कारण गोर्बाचेव पार्टी महासचिव बन सके। उन्होंने आर्थिक सुधारों के बजाय पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त की नीतियों की तहत राजनीतिक सुधार शुरू कर दिए, जिसमें समाजवादी दृष्टि का अभाव था। बल्कि पश्चिमी पूंजीवादी लोकतंत्र को एक आदर्श के रूप में देखने की प्रवृत्ति इसमें मौजूद थी।

दरअसल, सोवियत संघ निकिता ख्रुश्चेव के काल में ही भटक गया था, जब जोसेफ स्टालिन के दौर का वस्तुगत विश्लेषण करने के बजाय स्टालिन की विरासत से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को अलग करने का अभियान छेड़ा गया। गोर्बाचेव ने एक तरह से ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव काल की विरासत से भी पीछा छुड़ाने की मुहिम शुरू कर दी। इन भटकावों ने एक महान प्रयोग पर विराम लगा दिया। सोवियत सिस्टम में क्षय के संकेत 1970 के दशक का अंत आते-आते मिलने लगे थे। मार्तिनेज ने अब सामने आ चुकी महत्त्वपूर्ण जानकारियों के आधार पर बताया है कि सीपीसी ने इस अनुभव से सीख लेने के सुविचारित प्रयास किए।

इस संदर्भ में अमेरिकी अर्थशास्त्री इसाबेला वेबर की किताब की शोधपूर्ण किताब How China Escaped Shock Therapy: The Market Reform Debate खास तौर पर उल्लेखनीय है। इस पुस्तक में वेबर ने 1980 के दशक में चीन में हुए अध्ययनों, अनगिनत सेमीनार, सीपीसी के प्रतिनिधिमंडलों के पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों की यात्रा, पश्चिमी देशों के विद्वानों, और विश्व बैंक तथा आईएमएफ जैसे संस्थानों के अधिकारियों के साथ हुए लंबे संवाद आदि का विस्तार से विवरण दिया है, जिनमें चर्चा प्रमुख रूप से इस पर केंद्रित रही थी कि दुनिया भर के- खासकर कम्युनिस्ट देशों के अनुभवों से चीन को क्या सीखना चाहिए, ताकि वह उनकी गलतियों से बचते हुए अपनी जनता के जीवन स्तर को ऊंचा बनाने की राह पर चल सके।

तंग मानते थे कि समाजवाद का मतलब गरीबी का वितरण नहीं है, बल्कि समाजवाद ऐसी व्यवस्था है, जिसमें आम जन का जीवन स्तर पूंजीवादी समाजों से बेहतर हो सके। उनके दौर में शुरू किए गए सुधारों का यही मकसद घोषित किया गया था।

आम जन के जीवन स्तर में सुधार ही वह उपलब्धि है, जिसने सीपीसी की जन-वैधता (legitimacy) को लगातार ऊंचा बनाए रखा है। हार्वर्ड जैसे पश्चिमी विश्वविद्यालयों की तरफ से कराए गए अध्ययनों का निष्कर्ष है कि पिछले दो दशकों में यह वैधता बढ़ती चली गई है। तो कहा जा सकता है कि जब तक ऐसा होता रहेगा, चीन में समाजवाद का भविष्य मजबूत बना रहेगा। चीनी विश्लेषक कहते है कि समाजवाद ने चीन को बचाया और अब चीन समाजवाद के भविष्य को सुरक्षित कर रहा है।

सोवियत संघ के बिखराव के बाद जब पूरी दुनिया में पूंजीवाद पर आधारित उदारवादी लोकतंत्र की जीत का जश्न मनाया जा रहा था, तब दुनिया भर के सोशलिस्ट हलकों में नैराश्य पैदा हुआ और पराजय की भावना ने उनके मन में घर बना लिया। इसके बीच अगर चीन और वियतनाम जैसे देशों ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित नहीं किए होते, और क्यूबा पताका नहीं थामे रहता, तो समाजवाद का सपना लंबे समय तक के लिए ओझल हो जाता। लेकिन आज ऐसी बात नहीं है।

अब तो हकीकत यह है कि नव-उदारवाद के जरिए पूरी दुनिया पर अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद का शिकंजा कसने की पिछले साढ़े तीन दशक में हुई कोशिश अब झटके खा रही है। उसके संचालक चीन की ‘गैर-बाजार अर्थव्यवस्था’ से पैदा हुई चुनौतियों का खुलेआम जिक्र कर रहे हैं। इतना ही नहीं, बल्कि मुक्त बाजार की नीति के पैरोकार देश अब चीन के आर्थिक मॉडल का अनुकरण करने को मजबूर हो रहे हैं।

मार्तिनेज ने अपनी किताब से यह बताया है कि यह मॉडल दरअसल समाजवाद है। इस अर्थ में 1990-91 में एक कदम पीछे हटने के बाद अब समाजवाद दो कदम आगे बढ़ने को तैयार दिख रहा है। कहा जा सकता है कि इस पूरी परिघटना को जानने-समझने के लिए मार्तिनेज की किताब एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बनकर आई है।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments