Friday, April 26, 2024

गुरु नानक देव थर्मल प्लांट की 1764 एकड़ जमीन बेचने की मंजूरी : जब एक शहर की पहचान मिटती है!

पंजाब मंत्रिमंडल की बैठक में बठिंडा के गुरु नानक देव थर्मल प्लांट की 1764 एकड़ जमीन बेचने की मंजूरी दे दी है। उक्त थर्मल प्लांट 50 साल पहले श्री गुरु नानक देव जी के जन्मोत्सव पर शुरू हुआ था। यह बठिंडा और मालवा की पहचान था। बठिंडा मालवा का प्रमुख जिला है। पंजाबी के अजीम रचनाकार बलवंत गार्गी, गुरदयाल सिंह, रामस्वरूप अणखी, प्रोफेसर अजमेर सिंह औलख, जसवंत सिंह कंवल अब जिस्मानी तौर पर नहीं हैं। सो नहीं जाना जा सकता कि इस घटनाक्रम पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती। उनकी प्रतिक्रिया का महत्व और प्रसंग इसलिए कि इन तमाम महान लेखकों के किसी न किसी उपन्यास, कहानी, नाटक या संस्मरण में बठिंडा के इस थर्मल प्लांट का जिक्र जरूर है।

सत्तर के दशक तक मालवा निहायत रेतीला था। इसे ‘टिब्बों’ का इलाका कहा जाता था। अप्रैल में चली आंधी जून की जानलेवा लू तक रफ्तार पकड़ती रहती थी। बेहाल लोग मारे- मारे फिरते थे। जीवन एकबारगी पटरी से उतर जाता था। शेष पंजाब में घोड़े चलते थे तो इस इलाके में ऊंट। ऊंट- गाड़ियां। तांगे तक घोड़ों-खच्चरों की बजाए ऊंटों से जोड़ते जाते थे। खेती तक में ऊंट इस्तेमाल होते थे। वैसे भी बठिंडा की सीमाएं रेगिस्तानी प्रकृति के राजस्थान से सटी हुईं हैं। रहने-सहने-देखने वाले बताते हैं कि धूल भरी आंधियों का वक्त मुकर्रर नहीं था। किसी भी महीने के दिन या रात में चलने लगती थीं। दौर वह भी था जब बठिंडा को उत्तर भारत का ‘काला पानी’ कहा जाता था। उन दिनों बठिंडा में सैकड़ों साल पुराना एक किला था (जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अब भी है) जिसमें रजिया सुल्तान को भी कैद रखा गया था।

पचास साल पहले तक बठिंडा की एक बड़ी खूबी बताने के लिए यह किला एक प्रतीक था या फिर बठिंडा का रेलवे जंक्शन। थर्मल प्लांट बना तो मालवा और बठिंडा का अक्स सिरे से बदल गया। शहर के भीतर 1764 एकड़ में एक नए शहर ने आकार लिया। हजारों लोगों को नौकरी मिली लेकिन बेशुमार किसान बर्बाद भी हुए क्योंकि उनकी खेतिहर जमीन अधिग्रहित की गई थी। खैर, थर्मल प्लांट का नाम प्रथम सिख गुरु नानक देव जी को समर्पित किया गया। तब उनका 500वां प्रकाश पर्व था और अब जब थर्मल प्लांट का पूरी तरह से भोग डाला जा रहा है तो उनके आगमन को 550 साल हो गए हैं।

थर्मल प्लांट के बनते ही मालवा की नुहार बदल गई। खंभे थे, तारे थीं और शहरों-कस्बों के अधिकांश घरों में ब्लब भी थे लेकिन सूखे पत्तों से लटकते हुए, क्योंकि वे इसलिए भी बे-रोशन रहते थे कि उनमें बिजली का करंट बहुधा नहीं दौड़ता था। इसलिए कि बिजली पखवाड़े भर तक गायब रहती थी। पूरे मालवा में यही आलम था। बेशक हरित क्रांति दहलीज पर थी और योजना आयोग (तब यही नाम था) ग्रामीण क्षेत्र को एक-एक जरूरी सहूलियत देने के दावे दिल्ली में जोर-शोर से किया करता था।

लेकिन पंजाब के मालवा खित्त्ते के गांवों में अवाम के लिए बिजली एक ख्वाब थी। बठिंडा के थर्मल प्लांट ने पूरे मालवा को रोशनी बांटी (कई दशकों तक)। औद्योगिक, लघु-औद्योगिक युग की नींव रखी। गांवों को ‘लालटेन युग’ से मुक्त करवाया। देखते-देखते बठिंडा और मालवा की रेतीले टिब्बे शानदार हरियाली में बदल गए। हजारों लोगों को रोजगार मिला और काम-धंधे की बेहतर स्थितियां। किसानों की किसानी और जिंदगी की दशा-दिशा एकदम बदल गई।

बलवंत गार्गी साहब ने एकबारगी कहा था कि एक थर्मल प्लांट ने एक शहर और पूरे इलाके की जिंदगी में ऐसा बदलाव किया, जो अकल्पनीय था। बेशक आज भी है। लोग-बाग बाहर के शहरों और राज्यों (खासतौर से हरियाणा और राजस्थान) से थर्मल प्लांट देखने के लिए बठिंडा आने-जाने लगे। जिस इलाके में मुतवातर लू भरी आंधियां चलती थीं। वहां थर्मल प्लांट के साथ बनाई गई विशाल झील ने करिश्मा-सा करते हुए मौसम का रुख बदल दिया। दिशाओं में ऐसे परिवर्तन हुए कि लोग बारह महीने राहत की बारिश में नहाने लगे। थर्मल प्लांट और उसके बीचों-बीच बहती बड़ी झील बठिंडा की पहचान बन गई। रविवार को इस झील के किनारे बकायदा मेला लगता था। विभिन्न शहरों के स्कूल अपने विद्यार्थियों को इसे और थर्मल प्लांट दिखाने विशेष रुप से बठिंडा लाते थे।

‘पिकनिक’ और ‘लोकल टूरिज्म’ क्या होता है और जीवन का सरस, यह बठिंडा ने तब जाना। इसी थर्मल प्लांट की बदौलत बठिंडा में थ्री स्टार होटल बने (जो बाद में फाइव स्टार में तब्दील हो गए)। यह उस शहर में था जहां कभी कायदे के रेस्टोरेंट और ढाबे भी नहीं थे। थर्मल प्लांट बठिंडा की पहचान बन गया। पंजाबी के कई ख्यात रचनाकारों ने इस पर उपन्यास और कहानियां लिखीं। यह बताने के लिए भी कि किस तरह एक प्लांट इलाके की जिंदगी बदल देता है। चिमनियों से धुआ निकलता था और बगल से झील बहती थी। लंबे अरसे तक धुआं आकाश को छूता रहा और जमीन पर झील अनवरत बहती रही। किनारे बने पेड़ों पर परिंदों का स्थायी बसेरा रहा। प्रवासी पंछी तक आते थे।

पिछली अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार में यह सुगबुगाहट उठी कि दशकों तक मालवा को रोशनी देता रहा थर्मल प्लांट अब उम्र पूरी कर चुका है। बड़े बादल इसी मालवा के हैं। मुख्यमंत्री थे। उन्होंने 751 करोड़ रुपए का प्रावधान किया कि ‘बूढ़े’ होते थर्मल प्लांट का नवीकरण किया जाए और बठिंडा की पहचान को बचाया जाए। तब सरकारी दावे थे कि सन 2031 तक यह बखूबी काम करेगा। डेनमार्क की एक कंपनी से भी सेवाएं ली गईं। लेकिन सरकार में उपमुख्यमंत्री और सर्वोपरि प्रकाश सिंह बादल के फरजंद सुखबीर सिंह बादल निजी बिजली कंपनियों के मोह में फंस गए। बठिंडा के थर्मल प्लांट की चिमनियां सुस्त होते-होते आखिरकार खामोश हो गईं।

प्रकाश सिंह बादल से अलहदा होकर नई राह अख्तियार करने वाले मनप्रीत सिंह बादल तब मलवइयों के साथ मिलकर प्लांट बंद करने के विरोध में संघर्ष किया करते थे और वादे कि कांग्रेसी की सरकार आने के बाद इन चिमनियों से फिर धुआं उठने लगेगा। दिन बदले। 2017 में कांग्रेस की सरकार बन गई। मनप्रीत सिंह सरकारी खजाने के वजीर बने। वादे दफन हो गए और जिन लोगों ने बठिंडा थर्मल प्लांट को पूरी तरह बंद करने की मुहर लगाई उनमें मनप्रीत प्रमुख थे।

अब कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने थर्मल प्लांट की जमीन बेचने का फैसला किया है। मंत्रिमंडल की विधिवत सहमति ले ली गई है। कॉलोनाइजरों और मुनाफाखोर राजनीतिज्ञों की गिद्ध नजरें मालवा और बठिंडा की पहचान रहे थर्मल प्लांट पर लग गईं हैं। विरोध करने वाले जमकर विरोध कर रहे हैं। पुलिस की लाठियां खा रहे हैं। थर्मल कॉलोनी को उजाड़ा जा रहा है। हजारों कर्मचारी मामूली मुआवजा देकर रुखसत कर दिए गए हैं। अब वे क्या करेंगे-कहां जाएंगे? कोई नहीं जानता। यह भी कोई नहीं जानता कि झील का क्या होगा। जो होगा, उसका असंतुलित विकास और लालच की बलि चढ़ना तय है! बाहरहाल, बठिंडा की पुरानी और पुख्ता पहचान मिट गई। यह जिला वैसे भी ‘कैंसर बेल्ट’ के तौर पर कुख्यात है!

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