1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु हुई। शाहूजी महाराज, जो संभाजी के पुत्र थे, स्वतंत्र हुए और उन्होंने औरंगज़ेब की क़ब्र पर जाकर श्रद्धांजलि दी। मराठों ने मुग़लों की अधीनता से मुक्ति पाकर अपनी शक्ति बढ़ाई, यहाँ तक कि एक समय दिल्ली भी उनके नियंत्रण में आ गई। लेकिन मराठों ने कभी औरंगज़ेब की क़ब्र गिराने या मिटाने की बात नहीं की। इतिहास में जिन लोगों ने औरंगज़ेब से असली लड़ाई लड़ी, उन्होंने उसे एक बीते अध्याय की तरह लिया, न कि एक ऐसे ज़ख्म की तरह जिसे बार-बार कुरेदा जाए। लेकिन आज, सैकड़ों साल बाद, जब सत्ता में बैठे लोग जनता को असल मुद्दों से भटकाने की कोशिश करते हैं, तो इतिहास के पन्नों को खंगालकर ऐसे नए-नए विवाद खोजे जाते हैं, जिनसे समाज में तनाव पैदा हो।
इतिहास को हथियार बनाकर किस तरह से राजनीतिक लाभ उठाया जाता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण औरंगज़ेब की क़ब्र को लेकर हाल ही में खड़ा किया गया विवाद है। एक साधारण सी क़ब्र, जो सदियों तक किसी के लिए मायने नहीं रखती थी, अचानक एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दी जाती है। टीवी चैनलों पर बहसें होती हैं, सोशल मीडिया पर अभियान चलाए जाते हैं, और जनता को बताया जाता है कि यह कब्र हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए ख़तरा है। लेकिन यह सवाल कोई नहीं पूछता कि अगर यह कब्र इतनी ही ख़तरनाक थी, तो पिछले 300 वर्षों तक यह मुद्दा क्यों नहीं बना?
अगर क़ब्रें राष्ट्र के लिए ख़तरा होतीं, तो दुनिया में कहीं भी सभ्य देश अपने ऐतिहासिक स्थलों को संरक्षित नहीं रखते। क्या जर्मनी ने हिटलर के बंकर को मिटा दिया? क्या रूस ने जार निकोलस द्वितीय की कब्रों को ध्वस्त किया? क्या अमेरिका ने अपने क्रूर अतीत से जुड़े स्मारकों को हटाया? नहीं। क्योंकि इतिहास को मिटाने से इतिहास नहीं बदलता। लेकिन यहाँ, एक कब्र को मुद्दा बनाकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हिंदू-मुसलमान के बीच शत्रुता आज भी वैसी ही है, जैसी मुग़ल काल में थी।
हर बार जब देश में चुनाव नज़दीक होते हैं, तब अतीत के किसी मुस्लिम शासक को निशाना बनाया जाता है। कभी टीपू सुल्तान पर विवाद खड़ा किया जाता है, कभी बाबर पर, कभी औरंगज़ेब पर। उनके नाम से जुड़ी इमारतों, सड़कों और संस्थानों को बदला जाता है, फिर कब्रों पर हंगामा किया जाता है। यह रणनीति धीरे-धीरे आम मुसलमानों तक पहुँचती है-उन्हें बार-बार यह एहसास दिलाया जाता है कि वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं, कि उनका अतीत कलंकित है, और कि उन्हें खुद को साबित करने की ज़रूरत है।
सवाल यह भी उठता है कि जिन लोगों को औरंगज़ेब से इतनी नफ़रत है, वे अंग्रेज़ों के अत्याचारों पर कभी इतने आक्रामक क्यों नहीं होते? भारत पर सबसे ज़्यादा अन्याय ब्रिटिश हुकूमत ने किया। उन्होंने भारतीय किसानों से जबरन नील उगवाई, अकाल के समय अनाज ब्रिटेन भेज दिया, जलियांवाला बाग़ में नरसंहार किया। लेकिन आज़ादी के 77 साल बाद भी भारत में कोई अंग्रेज़-विरोधी आंदोलन नहीं चलता। लॉर्ड कर्ज़न की मूर्तियाँ हटाने की माँग नहीं उठती। लॉर्ड माउंटबेटन के नाम पर बनी इमारतों को गिराने की बात नहीं होती। लेकिन औरंगज़ेब की कब्र को लेकर राजनीति गरम हो जाती है।
अगर सच में ऐतिहासिक अन्याय का हिसाब चुकता करना है, तो क्या उन अंग्रेज़ों से बदला लिया जाएगा जिन्होंने भारत को गुलामी में रखा? क्या चीन की घुसपैठ पर इतनी ही बहस होगी? क्या बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर भी इतना ही आक्रोश दिखाया जाएगा?
सच तो यह है कि सत्ता में बैठे लोगों को इन सवालों के जवाब नहीं देने, इसलिए वे जनता का ध्यान बंटाने के लिए ऐसे मुद्दे उछालते हैं जिनसे भावनाएँ भड़कती हैं। उनके लिए यह ज़रूरी है कि लोग बेरोज़गारी पर नहीं, बल्कि इतिहास पर बहस करें। लोग शिक्षा की कमी पर नहीं, बल्कि मंदिर-मस्जिद पर झगड़ें।
मीडिया इसमें सबसे बड़ा हथियार बन जाता है। पहले भीड़ तैयार की जाती है, फिर उनकी मांगों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, और जब कोई प्रतिक्रिया देता है, तो उसे ‘कट्टरता’ का नाम दे दिया जाता है। यही खेल बार-बार दोहराया जाता है। भीड़ यह सोचकर खुश हो जाती है कि वह कोई महान कार्य कर रही है, जबकि असल में वह किसी और के इशारों पर नाच रही होती है।
टीवी चैनल दिन-रात यही नैरेटिव चलाते हैं कि “औरंगज़ेब अत्याचारी था, इसलिए उसकी कब्र मिटा देनी चाहिए।” लेकिन वे यह नहीं बताते कि औरंगज़ेब की कब्र को तोड़ने से किसी बेरोज़गार को नौकरी नहीं मिलेगी, किसी गरीब का इलाज नहीं होगा, किसी किसान का क़र्ज़ माफ़ नहीं होगा।
इतिहास का उद्देश्य यह नहीं है कि हम पुरानी दुश्मनियों को ज़िंदा करें, बल्कि यह है कि हम उनसे सीखें। अगर हमें इतिहास से सबक लेना है, तो हमें यह देखना होगा कि उस समय की ग़लतियों से हम आज क्या सुधार सकते हैं। अगर इतिहास को केवल बदला लेने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, तो फिर भारत कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा।
भारत का इतिहास सिर्फ हिंदू-मुस्लिम संघर्षों का इतिहास नहीं है। यह सहअस्तित्व, संस्कृति, कला, विज्ञान और समृद्धि का इतिहास भी है। यह गंगा-जमुनी तहज़ीब का इतिहास है, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर इस देश की विरासत बनाई है। लेकिन सत्ता के लिए इस साझे इतिहास को तोड़ने की कोशिश हो रही है।
आज जनता को यह सोचना होगा कि वे किस ओर जा रहे हैं। क्या वे ब्रिटिश ज़ुल्म और चीन की घुसपैठ पर भी उतना ही ग़ुस्सा दिखाते हैं, जितना कि मुस्लिम शासकों पर? क्या वे शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार के लिए भी उतनी ही आवाज़ उठाते हैं, जितनी इतिहास के प्रतीकों के लिए?
अगर हम आज भी नहीं समझे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें इसी इतिहास के झूठे नायकों और नफरत की राजनीति में गुम होता हुआ पाएँगी।
(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकर हैं)
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