Saturday, April 27, 2024

बिहार का शिक्षा मॉडल: 4 माह में 22 लाख से अधिक स्कूली छात्रों का नामांकन रद्द

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शराबबंदी की मुहिम के बाद अब जातिगत जनगणना में खुद को अग्रणी बनाकर एक बड़ी लकीर खींचने में व्यस्त हैं। उनके मंत्रालय में शिक्षा मंत्री चन्द्रशेखर पिछले दिनों रामचरितमानस पर विवादास्पद टिप्पणी कर सुर्खियां बटोर रहे थे। लेकिन जमीन पर राज्य शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव आईएएस केके पाठक का ही जलवा जारी है।

खबर है कि केके पाठक ने बिहार में शिक्षा की बदहाल सूरत को बदलने का बीड़ा अपने हाथों में ले रखा है। इस अभियान को अभी कुछ ही माह बीते हैं, लेकिन इस बीच राज्य में अब तक 22 लाख 49 हजार 216 छात्रों का नामांकन स्कूलों से रद्द किया जा चुका है। बिहार की आबादी करीब 13 करोड़ है। 13 करोड़ की आबादी में से प्राइमरी से लेकर सीनियर सेकेंडरी विद्यालयों में पढ़ने वाले 22 लाख से भी अधिक विद्यार्थियों को यदि निकाल बाहर किया जा चुका है तो यह आबादी के 1.73% के बराबर बैठता है।

22 लाख विद्यार्थियों के निलंबन की वजह

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट से आप बिहार के स्कूलों का अंदाजा कुछ हद तक पता कर सकते हैं। वर्ष 2021-22 में बिहार में सरकारी, निजी और सहायता प्राप्त स्कूलों की कुल संख्या 93,165 है। इसमें सरकारी विद्यालयों की संख्या 75,558 है, जो कुल स्कूलों के 81.1% का प्रतिनिधित्व करता है। निजी स्कूलों की संख्या मात्र 8,097 (8.7%) है।

22 लाख विद्यार्थियों को निलंबित करने के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यह है कि ये छात्र निजी स्कूलों में दाखिला लिए हुए हैं, और सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए सरकारी स्कूलों में भी दाखिला लिए हुए हैं। लेकिन सरकार के ही आंकड़े इस तर्क की धज्जियां उड़ा रहे हैं। इतनी कम संख्या में निजी स्कूल भला कैसे इतनी बड़ी संख्या में छात्रों को समायोजित कर सकते हैं?

इसी प्रकार बिहार में कुल शिक्षकों की संख्या 5 लाख 82 हजार 876 है, जिसमें सरकारी टीचर 3,97,787 (68.20%), निजी स्कूलों के शिक्षकों की संख्या 1,09,949 (18.9%) है। यह बताता है कि स्कूलों की तुलना में सरकारी शिक्षकों की भारी कमी है। यह कमी राज्य सरकार की खामियों के बारे में इंगित करती है। लेकिन आईएएस पाठक अपने नौकरशाही फरमान को गरीब बच्चों और अभिभावकों पर लाद रहे हैं।

अब आते हैं राज्य में विद्यार्थियों की संख्या के बारे में। राज्य में कुल 2 करोड़ 74 लाख 72 हजार 692 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सरकारी स्कूलों में करीब 2.20 करोड़ (80%) तो निजी स्कूलों में लगभग 33 लाख (12%) और शेष छात्र अन्य एवं सहायता प्राप्त स्कूलों में पंजीकृत थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि 2.20 करोड़ सरकारी स्कूलों के 22 लाख से भी अधिक छात्रों को निलंबित कर राज्य सरकार ने 10% से अधिक छात्रों को सरकारी स्कूलों से निकाल दिया है।

कई और आंकड़े भी शिक्षा मंत्रालय ने जारी किये हैं, लेकिन एक आंकड़ा बेहद दिलचस्प है। स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं में से बिजली की उपलब्धता के बारे में बताया गया है कि सरकारी विद्यालयों में 74% स्थानों पर बिजली उपलब्ध नहीं है, जबकि 26% में यह सुविधा उपलब्ध है। निजी स्कूलों की स्थिति भी खास बेहतर नहीं है, यहां पर भी 30% स्थानों में बिजली नदारद है। लेकिन केंद्र सरकार तो पूरे देश को 100% बिजली उपलब्ध करा चुकी है? फिर ये अंधेरगर्दी बिहार के भाग्य में ही क्यों?

सरकारी स्कूलों के अध्यापक

हम सभी जानते हैं कि स्कूल का मास्टर पिछले कुछ दशकों से पढ़ाने के बजाय बाकी सारे काम करता है। यदि वह बाबूगिरी न करे तो उसकी तनख्वाह भी कट सकती है। उसे हर दिन सरकारी आंकड़ों का पेट भरने की महती जिम्मेदारी विभाग के द्वारा सौंपी गई है। स्कूलों के प्रिंसिपल भले ही विभिन्न गणना कार्यों से बचे हुए हों, लेकिन उनके पास भी बीसियों काम होते हैं। मसलन कई तरह की रिपोर्ट बनाना, मिड डे मील की मानिटरिंग करना वगैरह-वगैरह।

राज्य और केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं, स्थानीय से लेकर लोकसभा चुनावों, जनसंख्या, मतदाता पहचान पत्र से लेकर न जाने कौन-कौन से काम उनके ही जिम्मे है। ये लोग न हों तो सरकार खुद को अपंग समझती है। ऐसे में सरकारी शिक्षकों के लिए 4-5 साल बाद अध्यापक कम सरकारी रजिस्टर की खानापूर्ति करने वाले बाबू वाली मनःस्थिति बन जाती है। ऐसे अध्यापक आगे चलकर अध्यापन की भूमिका का निर्वहन करने के लायक ही नहीं बचते।

बिहार के संदर्भ में देखें तो यहां पर हालात बाकी राज्यों से भी विकट रहे हैं। शिक्षक-छात्र अनुपात पहले से ही बिगड़ा हुआ था। आदर्श स्थिति 1:30 छात्र से डबल है। हिंदी के अध्यापक को गणित और विज्ञान भी पढ़ाना पड़ता है। प्राइमरी स्कूल में यदि कम से कम 5 शिक्षक एवं एक हेड मास्टर की नियुक्ति अनिवार्य है, तो अक्सर 2-3 स्टाफ से ही पूरा स्कूल चलाया जाता है। कई स्कूलों में तो स्थिति उससे भी बदतर रहती आई है। ऐसे में छात्र स्कूल आकर भी क्या पढ़ लेंगे?

बिहार में पिछले दो दशक से निजी ट्यूशन या सामूहिक ट्यूशन का चलन बढ़ा है। इसमें किसी एक-दो प्राइवेट ट्यूटर द्वारा दिनभर बच्चों को पढ़ाना और वार्षिक परीक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में दाखिले की प्रवृति बढ़ी है। इन ट्यूशन की फीस भी इतनी अधिक नहीं होती कि गरीब किसान, मजदूर उसे चुका न सकें, क्योंकि उन्हें भी लगता है कि हिंदी के बजाय ट्यूटर कुछ अंग्रेजी भी बच्चों को पढ़ा रहा है, और कम से कम नियमित पढ़ाई तो हो रही है।

अगर सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की उचित नियुक्ति हो, उनके पास प्राथमिक कार्य पठन-पाठन हो तो आज भी बिहार में स्कूलों में छात्र नियमित रूप से हिस्सा ले सकते हैं। लेकिन सरकारी बाबू के हाथ में सारी कमान देकर नीतीश सरकार और उनका मंत्रिमंडल न जाने किन वंचितों और दलितों की माली हालत बदलने में व्यस्त है, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं। 

मिड डे मील का आकर्षण: सरकारी नजर

कुछ अख़बारों में छात्रों के पंजीकरण के पीछे दोपहर के भोजन को वजह बताया जा रहा है। उनके अनुसार सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के पास सरकारी कामकाज ही इतना लाद दिया जाता है कि उनके लिए समय पर स्कूल पहुंचना नामुमकिन हो गया था। स्कूलों की पढ़ाई ठप पड़ गई थी। समय से पहले ही स्कूल बंद हो जा रहे थे। लेकिन चूंकि सरकार का दबाव था कि किसी भी हालत में मिड डे मील बंद नहीं होना चाहिए, इसलिए बच्चे सिर्फ भोजन के लिए स्कूल पहुंच रहे थे और खा-खेल कर बस्ता लटकाकर वापस घर लौट जाते थे।

लेकिन अब फिर से पठन-पाठन का काम शुरू होगा। अब सरकार का दबाव रहेगा कि यह काम जितनी जल्दी हो सके, पूरा कर लिया जाए। अब जब शिक्षकों को यह काम सौंपा जाएगा तो पढ़ाई, शिक्षकों की अटेंडेंस, कोचिंग संस्थानों पर निगरानी और रोज की मॉनिटरिंग पर इसका सीधा असर पड़ेगा। ये विचार बिहार के अख़बारों के हैं, जो सरकार और शिक्षा सचिव के के पाठक के बीच की नूराकुश्ती के बीच में बिहार के करोड़ों विद्यार्थियों के लिए आशा की किरण ढूंढकर ला रहे हैं।

एक अन्य अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि स्कूल से गायब छात्रों पर अपर मुख्य सचिव केके पाठक ने बड़ा एक्शन किया है। स्कूल से गायब रहने के साथ-साथ 2 जगह नामांकन होने के शक के आधार पर बड़ी कार्रवाई की गई है। शिक्षा विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अबतक 22 लाख 49 हजार 216 छात्रों का नामांकन रद्द किया जा चुका है। क्लास 9 से 12 में 3,92,143 छात्रों के नामांकन रद्द किए गए हैं, वहीं क्लास 1 से 8 तक में कुल 18,52,496 छात्रों का नामांकन रद्द हुआ है।

सबसे अधिक असर पूर्वी चंपारण जिले में देखने को मिला है, जहां कुल 1,43,428 छात्रों के नाम काटे गए है, तो वहीं पश्चिमी चंपारण में कुल 1,35,636 छात्रों का नामांकन रद्द कर दिया गया है। इसी तरह मुजफ्फरपुर में भी कुल 1,05।293 छात्रों का नाम काटा गया है। पटना में कुल 99,072 छात्रों का नामांकन रद्द हुआ है तो वहीं वैशाली में कुल 1,16,015 छात्रों का नाम काटा गया है। ये सूची अख़बार के मुताबिक सभी जिलों की शिक्षा विभाग द्वारा जारी की गई है।

इसी प्रकार केके पाठक की सख्ती के बाद गोपालगंज में 50 हजार छात्र-छात्राओं के नाम स्कूलों से काट दिए गए हैं। ये सभी पिछले 15 दिनों से लगातार अपने विद्यालय से अनुपस्थित थे। विद्यालय के प्रधानाध्यापकों की रिपोर्ट पर जिला शिक्षा पदाधिकारी राजकुमार शर्मा ने ये कार्रवाई की है, साथ ही 10वीं और 12वीं के परीक्षार्थियों की 75 फ़ीसदी से कम उपस्थित रहने पर उन्हें बोर्ड एग्जाम में बैठने के लिए प्रवेश पत्र ही जारी नहीं किया जाएगा।

शिक्षा विभाग का दावा है उनकी जांच में पता चला है कि कई छात्र दो-दो विद्यालय में अपना नामांकन कराये हुए हैं। कुछ ऐसे भी छात्र थे, जिनका नाम प्राइवेट और सरकारी विद्यालय दोनों जगह एक साथ चल रहा था। जो छात्र सरकारी विद्यालय में नामांकन कराने के बाद भी स्कूल नहीं आ रहे थे, उन छात्रों के माता-पिता के द्वारा शपथ पत्र में बच्चों को प्रतिदिन स्कूल आने का संकल्प लिखित ए देने के बाद ही उनके बच्चों के नाम स्कूलों में जोड़ दिये जाएंगे।

जर्मन समाचार पत्र डीडब्ल्यू (DW) में भी बिहार की शिक्षा पर चर्चा

सबसे हैरानी की बात यह है कि बिहार में पिछले 4 महीनों की कार्रवाई की खबर स्वंय बिहार के मंत्रियों, विधायकों और नागरिक संगठनों को नहीं है। लेकिन यदि आप बिहार में 22 लाख छात्रों के निलंबन या सिर्फ आईएएस केके पाठक के बड़े एक्शन को गूगल करें तो आपको हिंदी अखबारों और तमाम यूट्यूब वीडियो मिल जायेंगे। इसका अर्थ हुआ कि सारी राजनीतिक पेशबंदी और नैरेटिव सोशल मीडिया में ही लड़ा जा रहा है, जबकि जमीन पर जेडीयू, आरजेडी, भाजपा सहित किसी भी क्षेत्रीय दल की नजर नहीं है। सभी को शायद पता है कि असल खेला तो नैरेटिव सेट करने का है, जमीन पर 90% गरीब-गुरबा तो पहले भी जी-खा रहा था, आगे भी उसका काम चल ही जायेगा।

लेकिन जर्मनी के इस अख़बार को भारत के सबसे पिछड़े राज्य की चिंता है, क्योंकि बिहार को यदि अपलिफ्ट कर दिया जाता है तो भारत की रैंकिंग में अतिरिक्त उछाल आ सकता है। 1 नवंबर 2023 के DW अख़बार में विस्तार से इस बारे में जानकारी साझा की गई है कि बिहार में पिछले 4 महीने की कार्यवाई का सबब 22 लाख से अधिक छात्र-छात्राओं के निलंबन है। इसमें यह भी बताया गया है कि यह कार्रवाई सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जद में 10 हजार के करीब शिक्षक भी आ चुके हैं, जिनके वेतन में कटौती की गई है। 39 शिक्षकों को निलंबित और 100 से अधिक के खिलाफ निलंबन की अनुशंसा की गई है।

अपनी खबर में DW ने इस बात का भी इशारा किया है कि यदि 10% बच्चों का निलंबन किया जाता है तो सरकार को करीब 300 करोड़ रुपये की बचत का अनुमान है। इसमें पोशाक योजना के तहत कक्षा चार तक के विद्यार्थियों को 700 रूपये, 5वीं से आठवीं तक को 800 रुपये और नवीं से 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों को 1,500 रुपये प्रदान करने का प्रावधान है। इसके अलावा मिड डे मील में भी बचत का अनुमान है। बिहार में मिड डे मील के तहत पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए प्रति छात्र 5.45 रुपये और आठवीं कक्षा तक के लिए 8.17 रुपये प्रतिदिन खर्च करने का प्रावधान है।

अब सोचिये कि नीतीश सरकार के इरादे तो गरीब-वंचित तबकों को जातीय जनगणना के माध्यम से आर्थिक स्तर पर ट्रैक कर सरकार की योजनाओं को आबादी के आधार पर पुनर्निर्धारित करने का है। लेकिन जमीन पर तो जैसा कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संसद में अपने बयान में कहा था कि 90 वरिष्ठ आईएएस ही देश के संसाधनों का बंटवारा करते हैं, उसकी जीती-जागती मिसाल बिहार के शिक्षा विभाग में नुमाया हो रही है।

स्कूलों में विद्यार्थियों की अनुपस्थिति को नौकरशाही के डंडे से हांकने के बजाय सरकार को अपने भीतर झांकने की जरूरत है कि उसकी लचर व्यवस्था और अध्यापकों की नियुक्ति में लापरवाही, अन्य सरकारी कार्यों के बोझ से उन्हें लाद देने की परंपरा और राज्य में शिक्षित होने के बावजूद बेकार युवाओं की हताशा भी अभिभावक को अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति उपेक्षा को जन्म दे रही है।

दूर क्यों जाते हैं, दक्षिण के राज्यों ने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर उत्तर भारत की तुलना में अपने नागरिकों को बेहतर जीवन और संपन्न बनाने में कामयाबी हासिल की है। आगामी चुनावों में भी इसका भारी असर पड़ सकता है, और इसका सारा ठीकरा किसी नौकरशाह की सनक को नहीं बल्कि उनके हिस्से आयेगा जो कागजों में ही सही, गरीब-गुरबा के बारे में योजनायें बना रहे हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

जनचौक से जुड़े

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles