नई दिल्ली। डॉक्टर के फर्ज को निभाने के साथ मानवता के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझने वाली, दुखी और पीड़ितों के दर्द को अपना दर्द समझने वाली महिला का नाम है ममता प्रधान। इनका काम ही इनकी पहचान है। जब ओडिशा के बालासोर में रेल हादसा हुआ तब एक के बाद मृतकों के शरीरों को जिले के बहानगा हाई स्कूल में लाया जा रहा था। जो एक ट्रांजिट पॉइंट के रूप में काम करता था।
उस समय मृतकों के रिश्तेदारों के दुख और उनकी दर्दभरी चीखों को एक आवाज ढाढस बंधा रही थी, दिलास दे रही थी और वो आवाज़ ममता प्रधान की थी। 59 वर्षीय आयुर्वेदिक डॉ. ममता प्रधान उन उद्वेलित और गुस्साए लोगों के दुखों को शांत करने की कोशिश कर रही थीं जिन्होंने इस भीषण त्रासदी में अपनों को खो दिया था। इस हादसे में लगभग 275 लोगों की जानें जा चुकी हैं। दुखी परिजनों को शांत करना डॉ. प्रधान के कार्यों में नहीं है लेकिन उन्होंने नौकरी से साथ- साथ मानवता को सर्वोपरी रखा।
4 जून को, वह प्रशासन को शवों को बालासोर में उत्तरी उड़ीसा चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (NOCCI) परिसर में स्थानांतरित करने में मदद कर रही थी, जहां अवशेष मृतकों के परिवारों को सौंपे जाएंगे। वे सहायता करने के लिए त्रासदी के दृश्य पर पहुंच गई थीं, जो किसी भी सरकारी आदेश से परे थी। 1999 के बाद से, सुश्री प्रधान ने खुद को मानवतावादी कोशिशों के लिए समर्पित कर दिया है। पीड़ितों के लिए प्राथमिक उपचार की पेशकश की और भारत और विदेशों में जहां भी बड़ी आपदाएं आई हैं, उनके रिश्तेदारों को ढांढस बधाया और सलाह दिया।
सुश्री प्रधान कहती हैं “दुर्घटना के तुरंत बाद ज्यादातर घायलों को अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया था। एक डॉक्टर के रूप में मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं थी। संकट से निपटने के लिए राज्य सरकार और रेलवे के पर्याप्त डॉक्टर मौजूद थे। लेकिन फिर भी मैं संकट को कम करने के लिए सरकारी अधिकारियों और नागरिक समाज समूहों को एक साथ लाने के लिए एक समन्वयक के रूप में फिट बैठती हूं।”
इलाज करने वाले डॉक्टर हादसे के मंजर के बारे में सोच-सोच कर परेशान थे और चौबीसों घंटे काम कर रहे थे। इस बीच सुश्री प्रधान ने पीड़ित महिलाओं से बातचीत की और सैनिटरी नैपकिन, अंडरगारमेंट्स और कपड़ों की व्यवस्था करने में उनकी मदद की। डॉ. प्रधान कहती हैं “पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की एक महिला ने ट्रेन दुर्घटना में अपने बेटे को खो दिया था। वह अकेली और निराश थी। उसकी दुखों को कम करना मेरा मूल कर्तव्य था। महिला को उसके बेटे का शव खोजने के लिए भुवनेश्वर, एम्स ले जाया गया।’
डॉ. प्रधान ने 1993 में गवर्नमेंट आयुर्वेदिक कॉलेज, बलांगीर से स्नातक किया जिसके बाद वे कोरापुट जिले में मलेरिया से पीड़ित लोगों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने गईं। वहीं से एक नए बदलाव की शुरूआत हुई और करियर के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल गया। उन्होंने एक गैर-सरकारी संगठन में अपना करियर शुरू किया और 1999 में सुपर साइक्लोन के बाद तटीय ओडिशा में बड़े पैमाने पर काम किया। वर्षों से, उन्होंने तंजानिया, नेपाल और श्रीलंका सहित प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित इलाकों में मानवीय कार्य किए और मानवता के प्रति खुद को समर्पित कर दिया।
उन्होंने कहा “मैंने भारत के अलग-अलग राज्यों में लगभग सभी बड़ी आपदाओं में काम किया है। 2010 में लद्दाख में बादल फटने से लेकर 2018 में केरल की बाढ़ तक, 2004 में सुनामी से लेकर 2019 में ओडिशा के फानी चक्रवात तक। कई बार आपदा इतनी बड़ी होती है कि सरकारी मशीनरी झेल नहीं पाती। तब एक डॉक्टर के रूप में मेरी सेवा काम आती है।”
भुवनेश्वर स्थित डॉक्टर को अक्सर गैर-सरकारी संगठनों की ओर से आपदाग्रस्त इलाकों की यात्रा और उनकी सेवाओं के लिए नियुक्त किया जाता है। वे कहती हैं कि “कभी-कभी मैं अपने संसाधनों की व्यवस्था खुद करती हूं।”
(कुमुद प्रसाद की रिपोर्ट अंग्रेजी अखबारों की सूचनाओं के आधार पर।)