दिल्ली में ‘कर्फ्यू’ के बीच जी-20 का विश्वोत्सव

आइस क्रीम की तलब, दर्शन हुए भूतहा कनाट प्लेस के!

“पापा, आइसक्रीम पार्लर चला जाए। तलब लगी है।”

“लेकिन किधर?”

“कनाट प्लेस। एक अच्छी ड्राइव भी हो जाएगी।”

“यह तो है। कनाट प्लेस में आइसक्रीम खाये बहुत दिन हो गए। वहां आइसक्रीम खाने का एक अलग ही लुफ़्त होता है।”

“तो फिर चलते हैं।”

बीती रात करीब साढ़े नौ बज़े पुत्र अमन ने कार की स्टेरिंग सम्हाली, शेष हम तीन प्राणी-पत्नी मधु और पुत्रवधु मुस्कान भी उसके साथ हो लिए। हमारा मार्ग दर्शक था गूगल गुरु। गुरु बतलाता जाता कि किधर-किधर से लुटियन दिल्ली में क़ानूनी प्रवेश मार्गों से दाख़िल हुआ जा सकता है। फिर कनाट प्लेस पहुंच कर आइसक्रीम के साथ रोमांस लड़ाया जा सकता है।

सो हम मयूर विहार स्थित अपने विराट घोंसले-समाचार अपार्टमेंट्स से निकल कर डीएनए ब्रिज जा पहुंचे। यह मार्ग नोएडा और दक्षिण दिल्ली को जोड़ता है। मार्ग के दोनों तरफ झण्डे या तस्वीर लगाने के लिए नंगे पोल खड़े हुए थे। बीच बीच में G -20 चमकता हुआ मिल जाता। पूरा ब्रिज क्रॉस कर लिया लेकिन झंडों में लिपटे पोल नहीं मिले। शायद इस विराट उत्सव के आयोजक इस मार्ग को सजाना भूल गए होंगे या इसे बिसरा दिया होगा!

हम चारों प्राणियों को लिए कार आश्रम, लाजपतनगर, डिफेंस कॉलोनी से गुजर रही है। चारों ओर रंगों की चमकीली छटा बिखरी हुई है। निऑनसाइन की बरसात है। हम भीगते जा रहे हैं, पर कपड़े गीले नहीं हो रहे हैं। अलबत्ता, हम चुंधिया ज़रूर रहे हैं। गूगल गुरु मार्ग दर्शक है, हम बेफ़िक्र हैं। अमन इस गुरु का बेहद अनुशासित शिष्य है। चाहे ग़लत रास्ते से ही यह ले जा रहा हो, गुरु-शिष्य के बीच में बोल कर सफ़र का आनंद कौन खराब करे?

ऐसा ही कुछ हमारे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहब गुरु और भक्त जनता के बीच का रिश्ता है। साहब कोई भी रास्ते पर ले जाएं, हम भक्त जनता उनका अनुसरण करेंगे ही। कुछ ऐसा ही हमारे साथ हुआ। अभिजात्य डिफेन्स कॉलोनी की गलियों-उपगलियों से गुजरते हुए हमारी कार उबड़-खाबड़-कच्चे मार्ग से जा टकराई। जैसे-तैसे आगे निकले तो कोटला मुबारकपुर के ठेठ तंग बाज़ार में जा फंसे। भीड़ ही भीड़। विविध मसालों की सौंध हमारे नथुनों को निहाल कर रही थी; चाट-पकौड़े तले जा रहे थे; चिकन टिक्का का खोंमचा अलग से सजा हुआ था; सेहत के लिए फलों की दूकान भी ग्राहकों को दावत दे रही थी। हम मनुहार करते, बचते-बचाते वापस डिफेंस कॉलोनी के मुख्य मार्ग पर आ गए हैं।

अब एक नया फ्लाई ओवर मिल गया है। कार इस पर फर्राटे भर रही है। सामने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम दिखाई दे रहा है। अब सांस में सांस आई है। इस मार्ग से गुजरते हुए गूगल हमें लोधी कॉलोनी, खन्ना मार्किट ले आया है। हैबिटैट सेंटर आ गया है। इस मार्ग से गुजरते हुए सफ़दर जंग एयरपोर्ट के टी-जंक्शन पर पहुंच गए हैं। गूगल गुरु के आदेश पर चल पड़ते हैं। लेफ्ट मुड़ गए हैं। यह मार्ग एम्स-ग्रीन पार्क की तरफ ले जा रहा है।

सफदरजंग फ्लाईओवर को पार करते हुए हम फिर लेफ्ट की तरफ मुड़ गए हैं। अब हम संजय पार्क, सरोजनी नगर, चाणक्यपुरी की दिशा में हैं। लीला होटल पर पुलिस रुकावट मिलती है। वैसे रास्ते भर पैदल पुलिस तैनात दिखाई देती है, और साथ में जगमग करती पुलिस कारें। कुछ जगह, निजी कारों से पूछाताछी चलती हुई भी दिखाई दे रही है।

‘दादा भाई’ (big brother) यानी साहब की तस्वीरें चप्पे-चप्पे पर सुशोभित हैं; चाहे चौराहा रहे या बस स्टॉप या पब्लिक टॉयलेट्स, दादा भाई हर जगह मौज़ूद हैं। चाणक्यपुरी में प्रवेश कर चुके हैं। विनय मार्ग और नेहरू पार्क से गुजरते हुए अशोक होटल के पास पहुंच गए हैं। एक घंटे से अधिक हो चुका है। सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ है। इक्के-दुक्के वाहन आते-जाते दिखाई दे रहे हैं। चारों आत्माओं की बारी बारी से कमेंटरी चलती हैं: लगता है इमरजेंसी लग चुकी है; नहीं, मोदी वायरस फैला हुआ है; मोदी कोविड की गिरफ्त में है भारत।

हम यूटर्न ले चुके हैं। प्रधानमंत्री निवास के सामने से जा रहे हैं। फिर तुग़लक़ रोड, होटल क्लैरिज से गुजरते हुए होटल ताज़ मानसिंह, कोटा हाउस, लोकसेवा आयोग के सामने से जाते हुए इंडिया गेट पहुंच गए हैं। चारों तरफ़ रंगबिरंगी रोशनियों की जगमगहाट है, पुलिस वाहन और सिपाहियों से आबाद है यह इलाक़ा। आम मिनख गिनती के हैं। यदि सामान्य शुक्रवार रहा होता तो बच्चे-माता-पिता और सैलानियों का तांता लगा हुआ मिलता। आइसक्रीम ठेलेवाले मिलते। अब तो ख़ामोशी में डूबा दादा भाई की तस्वीरों और उनकी नुमाईंदगी करती हुई पुलिस से आबाद है इंडिया गेट। फिलहाल इसी नाम से इसकी पहचान है। कनाट प्लेस अब भी लापता है। गूगल गुरु हमें कॉपरनिकस मार्ग से मंडी हाउस ले जा रहा है। मंडी हाउस पहुंच कर बारहखम्बा मार्ग पर आ गए हैं।

अब यहां से असली कहानी शुरू होती है। यह मार्ग हर दृष्टि से अतिथियों के स्वागत के लिए तैयार मिला। कोई कोना, कोई भवन, कोई क्रासिंग ऐसा नहीं मिला जिसे रंगबिरंगी रौशनी की पोषक पहनाई नहीं गई हो। सड़क के दोनों तरफ विविधरंगी पोस्टर, पताका थे। विभिन्न आकर्षक मुद्राओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चित्र न लगे हों, ऐसा राष्ट्र द्रोह कृत कौन कर सकता है, भला! सम्पूर्ण कनाट प्लेस मोदीमय दिखाई दे रहा है। ऐसा लग रहा है, गोयाकि मोदीजी स्वयं ही G-20 के तमाम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेशमंत्री, वाणिज्यमंत्री हों। समस्त अतिथियों का प्रतिनिधित्व उनमें समाया हो!

इस मंज़र को देख कर सामान्य भारतीय, हिन्दुस्तानी और इंडियन को लगेगा कि मोदीजी ही अतिथि हैं और मेज़बान भी। उनका ही स्वागत और विदाई हो रही है। कहीं भी विदेशी मेहमानों (जो बाइडन, ऋषि सुनक, मेक्रोन, शेख हसीना, जस्टिन ट्रूडू, जिऑर्जीअ मेलोनी, फुमिओ किशिदा, एर्डोगन, ली कीअंग, मुहम्मद बिन सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद, लूला आदि) की झलक नहीं दिखाई दी। अमेरिका, जापान, फ्रांस, सऊदी अरब, ब्रिटेन, इटली, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, चीन, रूस, बांग्लादेश, कनाडा जैसे महत्वपूर्ण देशों के चित्र लटकाये जा सकते थे। पचास- सौ गज के दायरे में ही मोदी जी के कई चित्रों को लगा देना चापलूसी या बौद्धिक अकुशलता की पराकाष्ठा दिखाई देती है। इस आलम को दिल्ली में ही नहीं, मुम्बई में भी देखा था। याद आया। गत जनवरी को मैं मुम्बई था। प्रधानमंत्री की यात्रा थी। जिन-जिन मार्गों से मोदी जी जानेवाले थे, उनकी आदमकद छवियां लटकाई गयी थीं। राहगीरों को चिढ़ हो रही थी। ऐसा ही अहसास कनाट प्लेस से गुजरते वक़्त हो रहा है।

एक और एहसास हो रहा था। कनाट प्लेस के गलियारे ‘भूतहा प्रतीत’ हो रहे थे। चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। ख़ामोशी पर रौशनी को बरबस उतरा गया हो! सुरक्षाकर्मियों की तगड़ी मौज़ूदगी ख़ामोशी की रक्षक बनी हुई दिखाई दे रही थी। कभी कभी गुजरती इक्की -दुक्की कारें और राहगीर ही ख़ामोशी को ललकारते हुए मिले। कनाट प्लेस को बाहों में भरने की इच्छा हमेशा रहती है। इस समय न जाने, इससे दूर भागने की इच्छा हो रही है। डर लग रहा है कि कहीं यह ख़ामोशी हमें डस न ले, कहीं कोई सुरक्षाकर्मी अतिरिक्त स्वामिभक्ति में हमें चाप न ले!

हम जल्दी से जल्दी कनाट प्लेस की रंगीन लेकिन डरावनी छाया से दूर हो जाना चाहते हैं। हमारी कार वापस मंडी हाउस की तरफ मुड़ गई है। बंगाली मार्किट पहुंचते हैं। यहां भी वही आलम। ख़ामोशी ही इस जगह की नागरिक बनी हुई है। लगता है लुटियन दिल्ली ‘ख़ामोशी का गणतंत्र’ में रूपांतरित हो चुकी है। मधु ख़ामोशी को वीडियो में क़ैद कर लेती है।

आइसक्रीम की तलब को साबुत लिए मयूरविहार लौटते हैं। एक मार्किट खुला हुआ है। आबाद है युवा ग्राहकों से। आइसक्रीम मिल जाती है। वहीं कुछ युवा पत्रकार (न्यूज़ लॉन्ड्री और एनडीटीवी से) टकरा जाते हैं। वहीँ उन्हें ढाई घण्टे के सफ़र की दास्तान सुनाता हूं। बतलाता हूं कि 1983 में इंदिरा गांधी ने दो दो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों (गुटनिरपेक्ष आंदोलन व राष्ट्र मंडल) का आयोजन किया था। विज्ञान भवन आयोजन स्थल था। क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो, यासर अराफात, मैगी थैचर, महारानी एलिज़ाबेथ जैसी शख्सियतों का जमघट था। सभी नेताओं के चित्रों से न्यू दिल्ली नगरपालिका क्षेत्र सुसज्जित था। बेशक़, मेज़बान के नाते इंदिरा जी थीं। लेकिन, माहौल इंदिरामय नहीं था और न ही कहीं ख़ामोशी का पहरा था। सभी प्रकार के बाज़ार खुले हुए रहते थे। आइसक्रीम पार्लर बंद रहे, यह कैसे हो सकता है? उन्हें अविश्वसनीय-सा लग रहा है। फिलहाल दो-ढाई घंटे की मशक़्क़त के बाद हम चारों आत्माएं आइसक्रीम का आनंद ले रहे हैं।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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