जैसे मैं पत्रकारिता और कानून के प्रोफेशन के बारे में सोच रहा था तो, मुझे इस बात का अहसास हुआ कि पत्रकार या वकील (या फिर जज) इनमें एक बात कॉमन है। दोनों ही प्रोफेशन से जुड़े लोग इस बात को तो मानते हैं कि कलम तलवार से ज्यादा शक्तिशाली है। लेकिन उन्हें अपने पेशे की वजह से लोगों की नापसंदगी भी झेलनी पड़ती है। लेकिन वो रोज़ अपना काम करते रहते हैं इस उम्मीद में कि एक दिन उनके प्रोफेशन को उनकी खोई प्रतिष्ठा मिल जाएगी।
पत्रकारिता के काम की मुश्किलें जी.के.चेस्टरटन के इस कथन से समझी जा सकती हैं कि ”पत्रकारिता का काम उन लोगों को ये बताना है कि लॉर्ड जोन्स मर चुका है,जो कि ये जानते ही नहीं कि जोन्स ज़िंदा भी था”।
पत्रकार हमेशा मुश्किल जानकारियों को आसान बनाकर जनता तक पहुंचाने के काम में लगे रहते हैं, जबकि लोग ज्यादातर अहम मुद्दों को लेकर बेसिक तथ्यों से भी अनभिज्ञ रहते हैं। हालांकि खबरों का ये सरलीकरण तथ्यों की कीमत पर नहीं होना चाहिए। इससे पत्रकारों का काम और जटिल हो जाता है। पूरी दुनिया में ऐसा ही होता है।
मीडिया, डिबेट्स और चर्चाओं को शुरू करती है, जो भी किसी भी एक्शन की ओर पहला कदम है। सारे समाज उन समस्याओं को लेकर सुस्त, निरपेक्ष और ठंडी अप्रोच रखते हैं जो उनको एक अर्से से खोखले कर रहे हैं। पत्रकारिता हमें इस सामूहिक निष्क्रियता से निकालने में मदद करती है। मीडिया वर्तमान में हो रही अहम घटनाओं को आकार देने में अहम रोल निभाती है और साथ ही इतिहास की धारा बदलने में भी।
हाल ही में अमेरिका में फिल्म इंडस्ट्री के जाने-माने लोगों के खिलाफ सेक्सुअसल हैरेसमेंट की न्यूज़ स्टोरी छपने के बाद ‘मीटू’ आंदोलन सतह पर आ गया था। मीटू आंदोलन के दुनिया भर में गहरे और परिवर्तनशील प्रभाव पड़े थे और हाल के समय में इसे एक ऐतिहासिक क्षण की तरह देखा जाता है।
भारत में भी निर्भया केस में मीडिया के कवरेज के बाद व्यापक प्रदर्शन देखने को मिले थे , जिसके बाद कानून में भी बदलाव दिखा। रोज़ाना में भी कई न्यूज़ स्टोरीज़ संसद और विधानसभाओं में सवाल और चर्चाओं को स्पेस देने का काम करती हैं।
राज्य के सिद्धांत में मीडिया चौथा स्तंभ रहा है और लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। एक स्वस्थ और सुचारू रूप से चलने वाले लोकतंत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण है कि पत्रकारिता को एक ऐसे संस्थान की तरह प्रोत्साहित किया जाए जो सत्तापक्ष से मुश्किल सवाल कर सके या यूं कहें कि शक्तिशाली लोगों के सामने सच बोल सके।
किसी भी लोकतंत्र से उसकी जीवंतता छिन जाती है अगर प्रेस को ऐसे सच बोलने से रोका जाए । अगर किसी देश को बतौर लोकतंत्र बरकरार रहना है तो उसके लिए प्रेस को फ्री रखना ज़रूरी है।
सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के लिए अगुवा की भूमिका निभाने वाले अखबारों की विरासत भारत में हमेशा से रही है। आजादी से पहले अखबार समाज सुधारक और राजनीतिक कार्यकर्ता चलाया करते थे। जैसे कि डॉ अंबेडकर ने भारत के सबसे उपेक्षित समुदायों के लिए ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ और ‘प्रबुद्ध भारत’ जैसे अखबार लॉन्च किए।
आज़ादी के पहले के अखबार और दूसरे पब्लिकेशन उस वक्त के विस्तृत इतिहास की एक तस्वीर भी सामने रखते हैं। ये अखबार आज ज्ञान का स्रोत हैं। ये उस वक्त अंग्रेज़ों से लड़ने वाले महिलाओं और पुरुषों की बहादुरी का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। इन अखबारों ने आत्मा की आकांक्षा को आवाज़ दी। आज़ादी की चाह को सतह पर रखा।
देश और दुनिया में कई पत्रकार मुश्किल हालातों में काम करते हैं। लेकिन विरोध और मुश्किल हालात में भी वो लगातार अपने काम में लगे रहते हैं। ये एक ऐसा गुण है जिसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए। बतौर नागरिक हम पत्रकारों के तरीकों से असहमत हो सकते हैं। मैं खुद कई बार कई पत्रकारों से असहमत रहता हूं ।
लेकिन हममें से कौन ऐसा है जो सबकी बातों से सहमति जताता है। हालांकि ये असहमति घृणा में तब्दील नहीं होनी चाहिए। जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कई केसों में पत्रकारों के अधिकारों को लेकर ज़ोर दिया है । एक जजमेंट में कोर्ट ने कहा भी है कि ”भारत की आजादी तब तक सुरक्षित है जब तक पत्रकार बिना डरे और दबाव के सत्ता से सच बोल पाएं।”
पहले पत्रकारिता का दायरा सिर्फ प्रिंट मीडिया तक ही सीमित था। लेकिन टीवी आने के बाद इसका दायरा बढ़ गया। 1982 में मैं कानून की मास्टर डिग्री की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका की फ्लाइट में बैठा था। संयोग से वही दिन भारत में कलर टीवी के लॉन्च का दिन था। हाल के साल में सोशल मीडिया एक बड़ा गेम चेंजर रहा है।
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स ने लोगों को अपने ऑनलाइन मीडिया चैनल खोलने का मौका दिया है। एक तरह से तो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स ने मीडिया के लोकतांत्रिकरण की शुरुआत की है। पहले जगह की कमी एक कारण थी और अब पाठकों में धैर्य की कमी एक वजह है। पाठकों का ध्यान अब यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर चलने वाली रील्स और छोटी वीडियो तक सीमित हो गया है।
सोशल मीडिया के आने के बाद हमारे अटेंशन में लगातार कमी आई है। अब 280 कैरेक्टर्स में न्यूज़ लिखना और उसे कम से कम समय में दिखाना नया पैटर्न बन गया है। ये अलग बात है कि कि ये लंबे खोजी पड़तालों का संतोषजनक रिप्लेसमेंट नहीं है, हालांकि लंबी रिपोर्ट की जगह कोई ले ही नहीं सकता। पत्रकारों के लिए सोशल मीडिया की ओर से बनाए गए इको चैंबर्स में घुसपैठ कर सच दिखाना एक बड़ी चुनौती है ।
राजनीतिक एक्टिविज़म और सामाजिक चेतना जगाने में स्थानीय और सामुदायिक मीडिया का बड़ा रोल रहा है। इसमें ना सिर्फ नागरिकों को जागरूक करने की क्षमता होती है, बल्कि कमोबेश कम जानकारी वाली चिंताओं को नीति-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करने की भी ताकत होती है। स्थानीय पत्रकारिता स्थानीय मुद्दों और लोगों की उन समस्याओं पर रोशनी डालती है जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जगह नहीं मिलती।
कई स्टडीज़ ने ऐसा साबित किया है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व नहीं है। सामुदायिक पत्रकारिता उपेक्षित समुदायों को आवाज देती है जिसके जरिए वो अपने मुद्दों को आवाज़ दे सकते हैं। सोशल मीडिया के आगमन ने उन्हें अपना स्पेस बनाने की आजादी दी है जिससे कि वो खुद के मीडिया प्लेटफॉर्म्स को जन्म दे सकें।
कोविड महामारी के दौरान मीडिया की महत्ता सबसे ज्यादा मुखर होकर सामने दिखी। लॉकडाउन के दौरान इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया ने सरकार की ओर से दी जाने वाली जानकारी को बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाया । लोगों को लगातार उन बचावों और रक्षात्मक उपायों के बारे में जागरूक किया गया जो उनके स्वास्थ्य के लिए जरूरी थे।
मीडिया ने प्रशासनिक कमियों को सामने रखा। महामारी में लोगों के अधिकारों के उल्लंघन को लेकर कई हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया रिपोर्ट्स का संज्ञान लिया। मुझसे हाल में पूछा गया कि मैं किस अखबार को बेहद दिलचस्पी के साथ पढ़ता हूं । मेरे जवाब में किसी खबरनवीस का नाम नहीं था, बल्कि एक कार्टूनिस्ट का नाम था ।
आर के लक्ष्मण का। हालांकि वो एक पत्रकार नहीं थे। लेकिन उन्होंने एक पत्रकार के मिशन को पूर्णता से निभाने में सफलता पाई। उन्होंने सत्ता को आईना दिखाया।
मुझे उम्मीद है कि देश के बाकी लोग इस बात से सहमत होंगे कि लक्ष्मण के कार्टून ना सिर्फ तीखे बल्कि व्यंगात्मक टिप्पणियां जैसे प्रतीत होते हैं। वो हर किसी को नाराज़ करने की क्षमता रखते हैं ।
हर कोई उनके कार्टून का सब्जेक्ट बनने का रिस्क रखता था और जिन पर कार्टून बनाए गए, उन्होंने भी इसे अच्छी तरह से लिया। उनके बारे में एक किस्सा ये है कि उन्हें लगता था कि मशहूर ब्रिटिश कार्टूनिस्ट David Low दरअसल David Cow हैं क्योंकि वो अपने हस्ताक्षर उसी तरह से करते थे ।
मैंने ये भी मज़ाक किया कि मेरे फेवरेट पत्रकार हिंदी फिल्म ‘नायक’ से है, ये तमिल फिल्म मुधावन की रीमेक थी। जिन्होंने ये फिल्म देखी है वो जानते हैं कि इसमें मुख्य किरदार एक पत्रकार है, जिसे एक दिन के लिए सीएम होने का मौका दिया जाता है। वो बहुत पॉपुलर हो जाता है और फिर राजनेता बन जाता है। मैं यहां बहुत सारे युवा चेहरों को देख रहा हूं और उम्मीद करता हूं कि उन्होंने पत्रकारिता का रास्ता ये फिल्म देखकर नहीं लिया होगा।
हाल के सालों में हम लीगल पत्रकारिता में भी एक बढ़ती दिलचस्पी देख रहे हैं। लीगल पत्रकारिता न्याय व्यवस्था की कहानीकार है। ये कानून की जटिलताओं पर प्रकाश डालती है। हालांकि बयानों और फैसलों को सेलेक्टिव तरीके से दिखाना एक चिंता का विषय बन गया है ।
इस प्रैक्टिस का नुकसान ये होता है कि लोगों की लीगल मुद्दों के बारे में गलत समझ बनती है। जजों के फैसले कई बार जटिल होते हैं और सेलेक्टिव तरीके से दिखाने का बहुत गंभीर असर पड़ता है ।
कई बार जज जो कहना चाहते हैं उसका उलट ही सामने आ जाता है। इसलिए पत्रकारों के लिए ये जरूरी है कि वो घटनाओं की एक पूरी तस्वीर सामने रखें ना कि एक तरफा रुख। पत्रकारों की ड्यूटी है कि वो निष्पक्षता और तथ्यात्मक तरीके से रिपोर्टिंग करें।
हालांकि एक संस्थान के तौर पर पत्रकारिता अपनी कई चुनौतियों से भी जूझ रही है । फेक न्यूज़ प्रेस की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को गंभीर खतरा पेश कर रहा है। ये पत्रकारों और दूसरे स्टॉकहोल्डर्स की सामूहिक जिम्मेदारी है कि वो किसी भी पूर्वाग्रह या पक्षधारिता के तत्वों को न्यूज़ से बाहर निकाल कर फेंक दें ।
कुछ भी रिपोर्ट करने से पहले से एक विस्तृत फैक्ट चेकिंग मैकेनिज्म के जरिए सभी खबरों की पड़ताल होनी चाहिए। मीडिया हाउस को बहुत सावधानी से खबर पब्लिश करनी चाहिए। फेक न्यूज एक साथ लाखों लोगों को गलत दिशा की ओर बढ़ा सकती है और ये लोकतंत्र के खिलाफ सीधा विरोधाभास है।
फेक न्यूज़ पूरी दुनिया में समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ दिग्भ्रमित करने की क्षमता रखती है। इसलिए पक्षपाती रिपोर्टिंग से सद्भाव की भावना को बर्बाद होने से बचाने के लिए बहुत जरूरी है कि सच और झूठ की खाई के बीच मजबूत पुल बनाया जाए।
( सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ द्वारा 16वें रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस अवॉर्ड्स में दी गई स्पीच। द इंडियन एक्सप्रेस से साभार। अनुवाद-अल्पयू सिंह )