नई दिल्ली। जेएनयू छात्र नेता उमर खालिद को जेल में रहते आज चार साल हो गए। अभी तक न तो उनकी बेल हुई और न ही उनका ट्रायल शुरू हो पाया। दिल्ली दंगों में कथित षड्यंत्र के आरोपों के तहत गिरफ्तार खालिद को तिहाड़ जेल के सर्वोच्च सुरक्षा बैरक में रखा गया है।
दिल्ली पुलिस की स्पेशल ने खालिद को 14 सितंबर, 2020 को गिरफ्तार किया था और उनके ऊपर यूएपीए की कड़ी धारा लगायी गयी थी। जिसमें कहा गया था कि वह दिल्ली दंगों की साजिश में शामिल थे। आपको बता दें कि इन दंगों में 53 लोगों की मौत हो गयी थी। और मरने वालों में ज्यादातर मुस्लिम थे।
इन चार सालों में खालिद ने जमानत के लिए कई अदालतों के दरवाजे खटखटाए। जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल था। यहां यह बात बतानी जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इस बात को दोहराया कि जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद और इस बात को उसने यूएपीए जैसी कड़ी धाराओं के लिए भी कही है। लेकिन खालिद के मामले में यह कभी लागू नहीं हो सका। जबकि खालिद का कहना है कि वह केवल शांतिपूर्ण मार्च में शामिल हुए थे।
दिल्ली दंगों के बाद पुलिस ने महीने भर के भीतर 2500 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया था। इन चार सालों में स्थानीय अदालतों में ट्रायल और सुनवाई के बाद तकरीबन 2000 से अधिक लोगों को जमानत मिल गयी है। इन सारे मामलों में पुलिस को कोर्ट को भ्रमित करने वाली जांच के लिए डांट सुननी पड़ी।
2020 से जुड़े दंगों के केस में एक बड़ा केस षड्यंत्र का भी है जिसमें खालिद समेत 17 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। इसमें भी ज्यादातर को जमानत मिल गयी है। उनकी पहली बार मार्च, 2022 में कड़कड़दूमा कोर्ट की ओर से जमानत खारिज की गयी। यह उनकी गिरफ्तारी के तकरीबन डेढ़ साल बाद हुआ था। बाद में उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया उसने भी अक्तूबर, 2022 में उन्हें राहत देने से इंकार कर दिया। उसके बाद खालिद ने सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए अर्जी डाली।
दिलचस्प बात यह है कि बड़े-बड़े मामलों में जमानत देने वाले सुप्रीम कोर्ट का खालिद के मामले में रुख अजीबोगरीब रहा। उन्होंने फरवरी, 24 में जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी थी। और सुप्रीम कोर्ट ने 11 महीने में उनकी अर्जी की सुनवाई को 14 बार स्थगित कर चुका है। स्थगन के पीछे जो कारण रहे उनमें कई बार ऐसा हुआ कि किसी पक्ष का वकील मौके पर उपस्थित नहीं रह सका या फिर सरकारी वकील ने निवेदन किया था। अगस्त, 2023 में जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस पीके मिश्रा की एक बेंच ने खालिद की जमानत की सुनवाई इस आधार पर स्थगित कर दी कि जजों की इस जोड़ी के साथ जमानत की सुनवाई नहीं हो सकती है।
उसके बाद केस को जस्टिस एम बेला त्रिवेदी को ट्रांसफर हो गया। फिर 5 सितंबर, 2023 को जस्टिस बेला त्रिवेदी ने खालिद के वकील के निवेदन पर सुनवाई को स्थगित कर दिया। उसके बाद अगले मौके पर 12 अक्तूबर को बेंच ने मामले की सुनवाई समय की कमी के आधार पर स्थगित कर दी। जमानत की अर्जी फिर से नवंबर में इसलिए स्थगित कर दी गयी क्योंकि संबंधित केस से जुड़े वरिष्ठ वकील मौजूद ही नहीं थे। उसके बाद ऐसा जनवरी, 2024 में दो बार हुआ।
14 फरवरी को बदली परिस्थितियों का हवाला देकर खालिद ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी जमानत अर्जी को वापस ले लिया। उसके बाद उन्होंने एक बार फिर से जमानत के लिए ट्रायल कोर्ट का दरवाजा इस आधार पर खटखटाया कि देरी हो गयी है और षड्यंत्र मामले के दूसरे आरोपियों को जमानत मिल चुकी है। हालांकि 28 मई को उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी गयी। इस समय जमानत की यह अर्जी दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस गिरीश कथपालिया की बेंच के सामने लंबित है। जिसमें दिल्ली पुलिस से मामले में उसकी राय पूछी गयी है।
खालिद की पार्टनर बानोज्योत्सना लाहिरी ने बताया कि वह ऐसा है जो घृणा का भी जवाब प्यार से देने में विश्वास करता है। इस बात पर नाराजगी जताते हुए कि उसे बगैर जमानत और ट्रायल के कई सालों से जेल में रखा गया है, लाहिरी ने कहा कि वह कम से कम इतनी तो उम्मीद कर सकती हैं कि मामले की जल्द से जल्द सुनवाई हो जाए।
हाल में अभी 13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एएस ओका और आगस्टाइन जॉर्ज मसीह ने कहा था कि जमानत नियम है और जेल एक अपवाद है। और यह यूएपीए जैसे मामलों में भी लागू होता है। बेंच ने एक ऐसे आरोपी को जमानत दी थी जो आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत गिरफ्तार था। इसके साथ ही बेंच ने कहा कि अगर अदालतें जमानत देने से इंकार करना शुरू कर देंगी तो यह मूल अधिकारों का उल्लंघन होगा।
जुलाई में जस्टिस जेबी पारदीवाला और उज्जल भुंइया की एक बेंच ने कहा कि एक आरोपी के बेल के अधिकार को दंड के तौर पर रोका नहीं जा सकता है। अपराध की प्रकृति चाहे जैसी हो।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट एक बहुस्वर वाला कोर्ट है। क्योंकि यह बहुत सारी पीठों के जरिये बोलता है जो कई मौकों पर एक ही मुद्दे को अलग-अलग तरीके से हल करता है। उन्होंने कहा कि खालिद की जमानत अर्जी शायद एक ऐसी बेंच के सामने नहीं आ पायी हो जिसने हाल के स्वतंत्र फैसले देने का काम किया हो। उन्होंने कहा कि लोगों को उन भाषणों के लिए जीवन भर जेल के भीतर नहीं रखा जा सकता है जिनके मतलब को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से समझते हैं।
न्याय की त्रासदी
वरिष्ठ वकील संजय घोष ने कहा कि यह सबके लिए बिल्कुल स्पष्ट है कि लोग हत्या और बलात्कार जैसे घृणित अपराध करके खालिद की जमानत से पहले जमानत हासिल कर लेते हैं। यह न्याय की त्रासदी है। यह उमर नहीं बल्कि हमारी जस्टिस व्यवस्था ही पूरी ट्रायल पर है।
एडवोकेट सौतिक बनर्जी ने कहा कि खालिद का केस संवैधानिक अदालतों के लिए बेल पर यूएपीए द्वारा डाले गए स्टैटटरी कानूनों पर संवैधानिक अधिकारों की प्राथमिकता को साबित करने के लिहाज से एक परीक्षा का केस है। खालिद के केस में जहां ट्रायल बहुत जल्दी नहीं खत्म होने वाला है। सजा से पहले चार साल की प्री ट्रायल जेल अनुच्छेद 21 के तहत भीषण अधिकारों की कटौती है।
आज एक्स पर अपनी एक पोस्ट में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि उमर खालिद बगैर ट्रायल के चार सालों से जेल में हैं। उनके खिलाफ लगाए गए आरोप निश्चित तौर पर बिल्कुल बकवास हैं। क्या जमानत नियम और जेल अपवाद है की कहावत उनके ऊपर नहीं लागू होती है? खासकर ऐसे समय में जबकि एक निश्चित समय में ट्रायल खत्म होने की कोई संभावना नहीं है। यह न्यायपालिका पर सबसे बड़ा धब्बा है।