क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लापता हैं?

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एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका और मिस्र की राजकीय यात्रा पर हैं, वहीं उनके घर भारत में उनकी गुमशुदगी के पोस्टर लग रहे हैं। व्हाट्सएप पर इस लेखक को चार चित्र मिले हैं। एक चित्र लापता नरेंद्र मोदी से सम्बंधित है। चित्र में दिखलाया गया है: “missing-have you seen this man?, name: Narendra Modi, height 5 ‘6’,chest 56’’, ENT status: Blind and Deaf; last seen at Manipur Election Rally. एक दूसरे चित्र में एक बच्ची के हाथों में एक पोस्टर है जिसमें लिखा हुआ है: Dear Mr. Modi, Manipur is Burning, 100 Deaths till now…Why Are You Silent?

हक़ीक़त में ऐसे चित्र मोदी-राज की कार्यशैली का रूपक हैं। यह सभी जानते हैं कि देश के प्रधानमन्त्री का ‘लापता’ होना नामुमकिन है। तब क्या बात है कि उत्तर-पूर्व भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश मणिपुर की जनता को लग रहा है कि देश का प्रधानमंत्री गुम हो चुका है। करीब 40 दिनों से मणिपुर हिंसा की गिरफ्त में है;10 हजार घर जल चुके हैं; 75 हजार लोग बेघर हो गए हैं; इंटरनेट सेवाएं खामोश हैं। हो सकता है इन आंकड़ों को कुछ बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया हो! पर घातक सच्चाई यह भी है कि ‘मणिपुर जल रहा है’ और मोदी जी खामोश हैं। प्रदेश में उनकी पार्टी भाजपा का ही शासन है, राज्यपाल भी उनका ही है। फिर भी वे राज्य की हिंसक घटनाओं से तटस्थ-से रहे। उनके मुखारबिंद से एक शब्द भी नहीं निकला।

जब प्रधानमंत्री जी वोट मांगने के लिए वहां जा सकते हैं तब उनकी ज़िम्मेदारी भी है कि वह संकट की घड़ियों में राज्य की जनता के साथ खड़े दिखाई दें। विदेश रवाना होने से पहले मोदी जी दो शब्दों का सन्देश मणिपुर के लिए जारी कर सकते थे। अपने अति विशिष्ट विमान से ही सन्देश भेज सकते थे। यह सन्देश प्रदेश की जनता के वास्तविक व भावनात्मक जख्मों पर मरहम-पट्टी का काम करता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और विदेश में भव्य स्वागत और योगा प्रदर्शन में मगन हो गए। स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री की यह उदासीनता मणिपुरियों और उनके बीच ‘नाभरोसा’ को जन्म देगी। जनता और प्रधानमंत्री के बीच संवादहीनता रुग्ण लोकतंत्र की सूचक है।

प्रधानमन्त्री मोदी की यह उदासीनता या निस्पृहता आकस्मिक या मासूम है या किसी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा, कहना मुश्किल है। यह सभी जानते हैं कि मोदी जी की रहस्यभरी चुप्पी पहली दफा सामने आई हो, ऐसी बात भी नहीं है। पिछले ही दिनों अंतर्राष्ट्रीय स्तर की विख्यात महिला पहलवान हफ्तों तक जंतर-मंतर पर धरना देती रहीं। उन्हें 28 मई को वहां से पुलिस ने बलात हटाया। उनकी मांग थी कि उनके यौन शोषणकर्त्ता सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कार्रवाई की जाए। उन्हें गिरफ्तार किया जाए। ये वे पदकधारी पहलवान हैं जिन्हें मोदी जी ने स्वयं अपने निवास पर उनका सम्मान किया था। वे चीखती रहीं और आज भी चीख रही हैं कि इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी ‘दो शब्द’ कहें। इस प्रकरण में हस्तक्षेप करें। लेकिन मोदी जी किनारे पर बैठ कर तमाशा देखते रहे, पहलवानों के पुर्जे पुर्जे उड़ते रहे। कथित आरोपी आज भी बेधड़क आज़ाद घूम रहा है!

इससे पहले एक साल तक चलनेवाले किसान आंदोलन के दौरान भी मोदी जी लम्बे समय तक खामोश ही रहे। यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव करीब नहीं होते तो शायद ही प्रधानमंत्री अपना मुंह खोलते और किसान विरोधी तीन कानूनों को वापस लेने के लिए मज़बूर होते। शाहीन बाग़ आंदोलन के समय भी उनकी जुबान सिली ही रही। हिंसक घटनाएं हुईं, लेकिन वे उदासीन बने रहे। पिछले सालों में विश्विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय के परिसर में अनेक अप्रिय घटनाएं घटती रहीं और हिंसक वारदातें होती रही हैं। लेकिन क्या मोदी जी ने इस प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था के गिरते स्तर के प्रति किसी भी प्रकार की चिंता जाहिर की है?

प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के संबंध में जरूर बोल सकते हैं। लेकिन क्या उसी जोशो-खरोश के साथ भारत-चीन संबंधों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं? पिछले दो-तीन सालों में दोनों देशों के बीच सीमा विवाद काफी तीव्र रहा है। दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़पें भी हुईं। एक धारणा यह है कि चीन हमारी सीमाओं के आस-पास अपनी पक्की सैन्य बस्तियां बना रहा है। कुछ भूमि भी हथिया ली है। क्या प्रधानमंत्री मोदी संसद के अंदर और बाहर चीन और राष्ट्रपति झी जिनपिंग का नाम लेकर आलोचना कर सके? दिलचस्प बात यह है कि दोनों नेताओं के बीच मधुर रिश्ते बताये जाते हैं। चीन के राष्ट्रपति अहमदाबाद में गुजराती हिंडोले का आनंद ले चुके हैं। मोदी जी भी चीनी राष्ट्रपति की दावतें उड़ा चुके हैं। फिर डोकलाम और अन्य मुद्दों पर चीनी राष्ट्रपति की विस्तारवादी नीति पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से मोदी जी क्यों संकोच करते हैं। कौन सा भय या आतंक है जो प्रधानमंत्री को ‘दो टूक’ बात कहने से रोकता है?

देश के लोग अडानी-धरावाहिक को भूले नहीं हैं। अडानी प्रकरण के कारण लोगों के लाखों करोड़ रूपये के शेयर डूब गए। संसद के बाहर और भीतर विरोधी दलों ने अडानी के बेलगाम व्यवसाय और मोदीजी के साथ उनके रिश्तों को लेकर काफी कुछ कहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भी अडानी घराने को लेकर अनेक सवाल उठाये थे। लेकिन मोदी जी इस अहम मुद्दे पर भी शव-सी ख़ामोशी धारण किये हुए हैं। देश जानना चाहता है कि उनके और अडानी के बीच रिश्तों का कैसा स्तर व शक्ल है? क्या प्रधानमंत्री का यह दायित्व नहीं है कि वह देश के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करें? तमाम खुलासों के बावजूद अडानी-व्यवसाय का फैलाव ही हो रहा है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है?

देश से हज़ारों करोड़ रुपये का चूना लगा कर करीब एक दर्जन पूंजीपति भारत से फरार हैं। इनमें से अधिकांश तो प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात से हैं। इन सफेदपोश दस्युओं को लेकर भी मोदी जी के होंठ सिले-से लगते हैं। वे एक भी शब्द इन डकैतों के बारे में नहीं बोल रहे हैं। उनके शासन काल में अधिकांश लुटेरे देश से फरार हुए हैं। क्या उन्हें रोका नहीं जा सकता था? क्या माल्या, नीरव मोदी जैसे लोग सामान्य वर्ग के हैं? क्या उन्हें एयरपोर्ट पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था? इसी से जुड़ा दो ठगों का सवाल भी है।

पिछले दिनों दो ठग कश्मीर और उत्तर प्रदेश में पकड़े गए हैं। दोनों ही ठगों ने प्रधानमंत्री कार्यालय के नाम का दुरुपयोग करते हुए अधिकारियों और लोगों को लूटा। दोनों में से एक गुजरात का है। क्या प्रधानमंत्री का फ़र्ज़ नहीं बनता कि वे ठगों और पीएमओ के साथ कथित रिश्तों के दावों पर रोशनी डालते क्योंकि उनका दफ्तर अत्यंत महत्वपूर्ण व संवेदनशील है। अगर ठग इस दफ्तर के नाम का इस्तेमाल कर सकते हैं तो देश की सुरक्षा की दृष्टि से यह अत्यंत संगीन मामला बनता है। इन ठगों की सार्वजनिक पड़ताल होनी चाहिए। उनमें शक्तिशाली दफ्तर के नाम का इस्तेमाल करने की हिम्मत कैसे आई? हो सकता है इन ठगों के तार कतिपय उच्चपदस्थ लोगों से जड़ों हों! ऐसे तत्व सामने आने चाहिए।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के दुःसाहसिक बयानों पर प्रधानमंत्री मोदी और उनके दफ्तर की चट्टानी चुप्पी अनेक सवालों व रहस्यों को जन्म देती है। पूर्व राज्यपाल मलिक ने अपने वक्तव्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ के शिखर पदाधिकारी राम माधव को भी घसीटा है। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का भी नाम लिया है। मलिक के अनुसार, 2019 में मोदी जी और डोभाल ने उन्हें खामोश रहने की सलाह दी थी। मलिक के वक्तव्य या आरोप पुलवामा कांड, अर्धसैन्य बल के 40 जवानों की शहादत, करीब 300 करोड़ की रिश्वत जैसे संगीन मामलों से संबंधित हैं।

उनके वक्तव्यों से साफ़ जाहिर होता है कि देश का दिल्ली-सत्ता प्रतिष्ठान चाहता तो जवानों की जानों को बचाया जा सकता था। विस्फोट की घटना को टाला जा सकता था। जवानों को हवाई मार्ग से श्रीनगर भेजा जा सकता था। पुलवामा की घटना ऐसे वक़्त हुई जब दो-तीन महीने बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले थे। क्या पुलवामा का कथित संबंध आम चुनाव से था? क्या इस घटना का प्रभाव चुनावों पर पड़ा और मोदी जी को लाभ हुआ? हैरत है कि आज तक मोदी जी खामोश हैं। उन्होंने इसका खंडन भी नहीं किया है। उनकी चुप्पी रहस्यमयी लगती है। क्या मलिक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी? मलिक आपकी ही पार्टी के नेता है।

जब मोदी जी आये दिन भाषण देते रहते हैं, उद्घाटन करते रहते हैं, मन की बात सुनाते रहते हैं और जब-तब प्रवचन होता रहता है। क्या वह मलिक के वक्तव्यों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकते? उनके स्थान पर यदि कोई विपक्ष का नेता होता या मुस्लिम नेता रहा होता तो अब तक वह ‘देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, गद्दार’ घोषित हो जाता।

सवाल उठता है कि मोदी जी खामोश क्यों हैं? क्या उनका मौनव्रत सलेक्टिव रहता है? जब उनकी प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण मुद्दों-सवालों पर गायब रहती हैं तब वह स्वतः ही प्रभावित जनों की धारणा में ‘लापता या गुमशुदा या मिसिंग’ जैसे संबोधनों की गिरफ्त में आ जाते हैं। उन्हें लापता मान लिया जाता है। वह मणिपुर की जनता के दिलो-दिमाग से गायब हैं। लेकिन शेष भारत में भी उनकी यह छवि बनती जा रही है। अलबत्ता, पेट्रोल पम्प से लेकर स्टेशन व हवाई अड्डों पर लगे होर्डिंगों में मोदी जी ज़रूर मौजूद मिलेंगे। जब सुबह का कोई भी न्यूज़ पेपर खोलेंगे, वह मुक़्क़मल तौर पर वहां आपका स्वागत कर रहे होंगे। देश-विदेश में योगा-अभियान का नेतृत्व करते हुए दिखाई देंगे।

चलते-चलते। मणिपुर की हिंसक त्रासदी से चिंतित हो कर अब मोदी जी के जोड़ीदार व गृहमंत्री अमित शाह ने 24 जून को सर्व दलीय बैठक बुलाई है। हालांकि, विपक्ष पहले से ही ऐसी बैठक की मांग करता रहा है। अब सरकार ने मज़बूर हो कर यह कदम उठाया है। कुछ दिनों पहले अमित शाह स्वयं भी इम्फाल का दौरा कर चुके थे। हिंसक वारदात में शामिल तत्वों को गृह मंत्री कड़ी चेतावनियां भी दे चुके थे। उम्मीद थी कि उनके शब्दों का जादुई असर होगा। मणिपुर में मंगल-शांति छितरा जायेगी। लेकिन, उनकी यात्रा बेअसर निकली। वहां की जनता तो मोदी जी के मुखारबिंद से ही पवित्र शब्दों की अपेक्षा कर रही थी। लेकिन, शब्द लापता रहे। शायद, इसीलिए मणिपुर में मोदीजी के गुम हो जाने का पोस्टर नमूदार हुआ है। देखते हैं, सर्वदलीय बैठक से क्या निकलता है प्रधानमंत्री मोदी की गुमशुदगी का कितना पता लगता है?

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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