जम्मू-कश्मीर: 10 वर्षों के बाद लोकतंत्र की बहाली का मंजर कितना पुरसुकून?

जम्मू-कश्मीर में आज 40 सीटों पर तीसरे और अंतिम चरण का मतदान जारी है। 5 अक्टूबर को हरियाणा में एक दिन के विधानसभा चुनाव का मतदान संपन्न हो जाने के बाद दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम 8 अक्टूबर को घोषित हो जाएंगे।

देश में बेरोजगारी के मामले में नंबर 1 हरियाणा के बाद जम्मू-कश्मीर का ही स्थान है, इसलिए इन दोनों राज्यों के तमाम सवालों के साथ-साथ रोजगार का सवाल भी सबसे प्रमुख मुद्दा रहने वाला है, जिसे हाल ही में कश्मीर में कभी कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेता और अब अपनी एक अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे गुलाम नबी आज़ाद ने भी सबसे बड़ा मुद्दा बताया है।

तीसरे चरण में 40 सीटों पर मतदान होना है, और बताया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में किस पार्टी या गठबंधन की सरकार बनेगी, उसका फैसला आज के मतदान से तय होगा।

दोपहर 1 बजे तक औसत 44% मतदान को देखते हुए लगता है कि इस चरण में रिकॉर्ड वोट पड़ने जा रहा है। पहले चरण में 61.38% और दूसरे चरण में 57.31% मतदान को भी पिछले चुनावों से काफी अच्छा प्रदर्शन बताया जा रहा है।

इसकी सबसे बड़ी वजह, पिछले 10 वर्षों से जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का न होना और दूसरा, आम नागरिकों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगे दीर्घकालिक प्रतिबंधों को माना जा रहा है।

इस बार आम मतदाताओं को उन विधानसभा क्षेत्रों से भी बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए निकलते देखा जा रहा है, जहां आमतौर पर चुनाव बायकाट पर जोर रहता था।

संभवतः लोकतंत्र के खात्मे के बाद एक ताज़ी हवा के लिए तरस चुके लोगों को मताधिकार के माध्यम से एक उम्मीद पैदा हुई है।

बहरहाल, 2018 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग किये जाने के बाद अगस्त 2019 में धारा 370 और 35A के निरसन के बाद से झेलम में इतना पानी बह चुका है, और केंद्र की मौजूदा मोदी-शाह सरकार ने एक विशेष अधिकार संपन्न राज्य के पहले टुकड़े किये और उन्हें केंद्र शासित प्रदेशों में बांटकर अधिकारों को सीमित कर दिया है।

इतना सीमित कि राज्य की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के बीच पृथकतावादी गुटों की लंबे समय से आजाद कश्मीर की राजनीतिक मांग बहुत पीछे छूट चुकी है, और वे भी अब भारतीय राज्य के भीतर बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली को ही पहली प्राथमिकता पर रख रहे हैं। 

शेष भारत में अधिकांश लोगों को भले ही इस बात का अहसास न हो, लेकिन जम्मू सहित कश्मीर के लोगों को इस बात का अच्छे से अहसास है कि चुनाव संपन्न हो जाने के बाद भी उनका क्षेत्र केंद्र शासित प्रदेश ही रहने वाला है।

मुख्य विपक्षी गठबंधन, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस पार्टी ने भी जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल किये जाने को अपनी पहली प्राथमिकता पर रखा है, और इसे आधार बनाकर ही यह गठबंधन वोट मांग रहा है।

चुनाव आयोग के द्वारा चुनावों की तारीख घोषित करने के ठीक पहले, केंद्र सरकार ने लेफ्टिनेंट गवर्नर को असीमित अधिकार सौंपकर इस बात को सुनिश्चित करने का काम कर दिया था कि भाजपा की सरकार न बनने की सूरत में भी राज्य की बागडोर एलजी के माध्यम से केंद्र के हाथ में ही बनी रहे। 

इससे पहले, राज्य पुनर्गठन आयोग को गठित कर उसकी सिफारिशों को लागू कर पहले ही जम्मू की विधानसभा सीटों को बढ़ाया जा चुका है। विधानसभा क्षेत्रों के पुनर्गठन के वक्त भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि जातीय आधार पर ज्यादा से ज्यादा सीटों से अपेक्षित परिणाम हासिल किये जा सकें।

इस सबके बावजूद, भाजपा के लिए अपने बलबूते राज्य की सत्ता को हासिल कर पाना नामुमकिन बना हुआ है। इसे ध्यान में रखते हुए, कई ऐसे कदम उठाये गये हैं जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि कश्मीर के भीतर एकतरफा एनसी-कांग्रेस की जीत के बजाय बहुकोणीय चुनाव में तीसरे या चौथे गठबंधन, पूर्व अलगाववादी नेताओं या स्वतंत्र उम्मीदवार को जीत हासिल हो जाये।

पीडीपी और हाल ही में विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी, अवामी इत्तेहाद पार्टी का प्रचार करने के लिए जेल से रिहा सांसद, इंजीनियर राशिद की भूमिका के गहरे राजनीतिक निहितार्थ देखने को मिल सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर की कुल 90 सीटों में से 74 जनरल, 7 एससी और 9 सीटें एसटी क्षेत्र के लिए आरक्षित की गई हैं। जम्मू क्षेत्र में अब सीटों की संख्या पूर्व के 37 से बढ़कर 43 हो चुकी हैं, जबकि कश्मीर घाटी में यह संख्या एक बढ़कर 47 हो गई है।

भाजपा की रणनीति रही है कि जम्मू क्षेत्र की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत हासिलकर चुनाव बाद कश्मीर क्षेत्र की दूसरे या तीसरे नम्बर की पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई जा सकती है। 

हाल के वर्षों में जम्मू क्षेत्र में भाजपा का समर्थन आधार लगातार बढ़ा है। लेकिन अगस्त 2019 के बाद धारा 370 और 35 A के खात्मे से जिन खुशियों की उम्मीद डोगरा समुदाय सहित अन्य हिंदू समुदाय के लोगों ने लगा रखी थी, वैसा कुछ देखने को नहीं मिला।

जम्मू से आगे रेल लाइन के कश्मीर तक विस्तार ने भी जम्मू शहर के व्यापार को चौपट बना डाला है।

इससे पहले, अगस्त 2019 में कश्मीर में लॉकडाउन और मार्च 2020 में कोविड महामारी के चलते दो-दो लॉकडाउन ने यदि कश्मीर घाटी की कमर तोड़ने का काम किया तो घाटी के लिए व्यापारिक केंद्र के तौर पर काम करने वाले जम्मू क्षेत्र को भी इसका दुष्परिणाम भोगना पड़ा है।

आज जम्मू क्षेत्र की जनता भी कहीं न कहीं मानती है कि धारा 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा उनके हितों की भी रक्षा करने का काम कर रही थी। आज कश्मीर घाटी में भले ही बिग कॉर्पोरेट के अलावा शेष भारत से किसी ने प्लाट लेने की हिम्मत नहीं जुटाई।

और भाजपा के लाख हिंदुओं की रक्षा करने की दुहाई देने के बावजूद कश्मीरी पंडितों को श्रीनगर घाटी में नहीं बसाया गया, जबकि जम्मू क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बाहरी लोगों की बसाहट और बिजनेस में घुसपैठ ने उनके रोजी-रोजगार को खतरे में डाल दिया है।            

इन 5 वर्षों में जो सबसे बुरी तरह से खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं, वो हैं लेह-लद्दाख के लोग। इस क्षेत्र के लोगों को 2019 से पहले तक कश्मीर घाटी से शासन की बागडोर संभालने वालों से भारी दिक्कत होती थी, और लद्दाख क्षेत्र को संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत केंद्र शासित क्षेत्र बनाये जाने की उनकी लंबे समय से मांग थी।

मोदी सरकार ने उनकी इस मांग को तो मान लिया और लेह-लद्दाख और कारगिल क्षेत्र को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया, लेकिन अनुच्छेद 6 के तहत डालने का केंद्र सरकार का कोई इरादा नहीं है।

एक तरफ लद्दाख की जनता चीनी घुसपैठ के चलते अपने चारागाहों के छिन जाने से आंदोलित है और केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग करते-करते थक चुकी है।

तो दूसरी तरफ 15 गिगावट क्षमता के पॉवर प्रोजेक्ट्स के लिए लद्दाख के चंग्थांग सहित अन्य स्थानों पर सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के चारागारों पर सौर उर्जा और पवन उर्जा का उत्पादन करने के लिए अधिग्रहण चालू है।

इन परियोजनाओं के चालू होते ही भेड़-बकरियों पर अपनी आजीविका पर निर्भर हजारों लेह-लद्दाख वासियों की रोजी-रोटी छिन जाने का खतरा मंडरा रहा है। 

मशहूर पर्यावरण कार्यकर्ता और वैज्ञानिक सोनम वांगचुक पिछले दो वर्षों से हिमालयी लेह-लद्दाख क्षेत्र में तेजी से जलवायु परिवर्तन के चलते हो रहे बदलावों, पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव के चलते यहां पर रहने वाले बौद्ध और मुस्लिम समुदाय के लोगों के जीवन और आजीविका के प्रश्नों पर आंदोलनरत हैं।

पिछले एक माह से लद्दाख से दिल्ली की पैदल यात्रा, जिसे कल 2 अक्टूबर को दिल्ली के राजघाट पर संपन्न होना था, देर रात दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर सोनम वांगचुक और उनके साथियों को हजारों की संख्या में हाईवे पर दिल्ली-हरियाणा पुलिसबल के द्वारा हिरासत में लिए जाने की खबर थी।

इस प्रकार, कह सकते हैं कि पिछले 5 वर्षों में कश्मीर घाटी, जम्मू और लेह-लद्दाख की स्थिति नई परिस्थितियों और दिल्ली हुकूमत के दीर्घकालिक लक्ष्यों को समझने और संघर्ष में गुजरी है। 

पिछले दस वर्षों में जम्मू-कश्मीर प्रगति के बजाय आर्थिक, राजनीतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से सबसे बुरी मार झेल रहा है। राज्य विधानसभा चुनाव से एक हद तक लोकतंत्र बहाली की प्रकिया शुरू हो सकती है, लेकिन कोई बड़ी उम्मीद की किरण नज़र नहीं आती।

संघवाद के तहत राज्य को जो अधिकार मिलने चाहिए, ताकि वह प्रदेश के निवासियों की मूलभूत जरूरतों को पूरा कर सके या उसके प्रति उसे जवाबदेह बनाया जा सके, के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा जम्मू-कश्मीर के लिए पहला पड़ाव होने जा रहा है।

बॉर्डर स्टेट और सीमा पार से आतंकी गतिविधियों पर हाल के वर्षों में घाटी पर दबाव काफी कम पड़ा है, जबकि जम्मू संभाग से घुसपैठ और फायरिंग आजकल रोजमर्रा की बात हो चुकी है।

घाटी में सेना की भारी मात्रा में उपस्थिति और एलजी राज आगे भी जारी रहने वाला है। इस चुनाव में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के लिए जो आवश्यक लोकतांत्रिक चहलकदमी होनी चाहिए थी, उसके अभाव के चलते और बहुकोणीय मुकाबले ने स्थिति को काफी पेचीदा बना डाला है।

फिर भी एनसी-कांग्रेस गठबंधन को बढ़त मिलती दिखती है, हालांकि जम्मू क्षेत्र में अभी भी भाजपा का दबदबा कायम रहने वाला है।

पिछले 5 वर्षों से केंद्र सरकार के द्वारा उठाये गये तमाम कदमों से जम्मू-कश्मीर की अवाम को साम-दाम-दंड-भेद के हर संभव उपायों से एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया जान पड़ता है, जिसमें घाटी के लोग अपनी बात अभी भी खुलकर बोलने की स्थिति में नहीं हैं, तो जम्मू के लोग संशय में घिरे हैं और उधर लेह लद्दाख के लोग सड़कों पर होने के बावजूद सबसे अलग-थलग अपने वजूद की तलाश में है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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