नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कल जम्मू-कश्मीर मसले पर सुनवाई की और मामले की गंभीरता और संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार को कुछ और मौका देने तथा अगली सुनवाई दो हफ्ते बाद करने की बात कही। इस दौरान कोर्ट ने न घाटी में लोगों की परेशानियों और उनके साथ प्रशासन और सेना द्वारा बरती जा रही ज्यादतियों पर कोई बात की। न ही उनके सामने आ रही रोजमर्रा की परेशानियों पर विचार-विमर्श किया। यहां तक कि अखबारों के प्रकाशन और न्यूज चैनलों के प्रसारण पर भी उसने चर्चा करना जरूरी नहीं समझा। एक ऐसे दौर में जब किसी क्षेत्र में संवैधानिक संकट आता है या फिर किसी भी रूप में लोग परेशान होते हैं तो वे अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं। मामले की सुनवाई जस्टिस अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली बेंच कर रही थी।
जम्मू-कश्मीर एक अभूतपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। जहां न केवल संवैधानिक वसूलों को तार-तार किया जा रहा है बल्कि नागरिक और मानवाधिकारों को भी ताक पर रख दिया गया है। यह पहली बार होगा जब नेताओं के साथ उनके परिजनों को भी हिरासत में लिया गया है। बताया जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी भी इस समय हिरासत में है।
लिहाजा इतने गंभीर मसले पर देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा जिस गंभीरता से विचार करने की अपेक्षा की जाती थी वह कल कोर्ट में नहीं दिखी। एक तरह से कोर्ट बिल्कुल भारत सरकार के साथ खड़ी दिखी। लेकिन हमारी याददाश्त शायद थोड़ी कमजोर है। नहीं तो एक चीज यहां याद दिलाना जरूरी रहेगा। जज लोया मामले पर देश की सर्वोच्च अदालात में जिस बात को लेकर सबसे बड़ा विवाद हुआ था और जिसमें चारों जजों को प्रेस कांफ्रेंस तक करनी पड़ी थी। और आखिरी दिन प्रेस कांफ्रेंस से पहले सुबह एक और कोशिश उन चारों जजों ने की थी कि कैसे मामले को हल कर लिया जाए।
उसके तहत बताया जाता है कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के सामने उन्होंने सिर्फ और सिर्फ एक शर्त रखी थी कि लोया मामले को संबंधित बेंच से हटाकर किसी दूसरी बेंच को दे दिया जाए। लेकिन तत्कालीन चीफ जस्टिस उसके लिए भी तैयार नहीं हुए। और आखिर में फिर चारों जजों ने प्रेस को बुलाकर सर्वोच्च अदालत में जारी अभूतपूर्ण संकट के बारे में बताया था। आप जानते हैं वह जज कौन था जिसकी बेंच से मामले को हटाने के लिए कहा जा रहा था? वे यही जस्टिस अरुण मिश्रा थे जो इस समय जम्मू-कश्मीर मामले की सुनवाई कर रहे हैं। चारों वरिष्ठ जज जस्टिस अरुण मिश्रा को मामला सौंपे जाने का विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें सरकार का पक्षधर माना जाता है। और वहां किसी तरह के न्याय की उम्मीद नहीं थी। दिलचस्प बात यह थी कि उसी दौरान जस्टिस मिश्रा और बीजेपी के तमाम नेताओं के बीच के रिश्तों के खुलासे होने शुरू हो गए थे। हालांकि बाद में जस्टिस मिश्रा ने खुद ही उस केस से अपने को अलग कर लिया था।
यहां इस प्रकरण को लाने का सिर्फ एक मकसद है वह यह बताना कि जम्मू-कश्मीर मामला कितना संवेदनशील है यह बात किसी से छुपी नहीं है। उसमें किसी एक ऐसे जज पर भरोसा करना जो सरकार के साथ सुर में सुर मिलाने के लिए जाना जाता हो। क्या यह किसी भी लिहाज से जायज हो सकता है। क्योंकि जब कभी सरकार कहीं गलत होती है या फिर देश के संविधान से इतर जाती है तो उसे दुरुस्त करने का काम सुप्रीम कोर्ट करता है। लेकिन क्या यहां वह अपनी जिम्मेदारी पर खरा उतर सकता है। और इस मामले में भी यही हुआ।
मामला केवल जज तक ही सीमित नहीं है। इस मामले का याचिकाकर्ता भी संदिग्ध रहा है। लोया केस में अंगुली अकेले केवल जस्टिस मिश्रा पर ही नहीं उठी थी। उस केस के याचिकाकर्ता तहसीन पूनावाला भी सवालों के घेरे में थे। क्योंकि माना जा रहा था कि वह याचिका प्रायोजित है। और इसका खुलासा तब हुआ जब याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने केस की सुनवाई करने वाले जजों के बारे में उसे बताया था और उससे कहा था कि वह बेंच को बदलने की मांग करेंगे। लेकिन पूनावाला उसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा कि उनको किसी भी जज पर पूरा भरोसा है। लिहाजा उसे बदलने की कोई जरूरत नहीं है। उसके बाद ही वकील दवे ने उनके केस से अपना हाथ पीछे खींच लिया। और उन्होंने साफ-साफ कहा कि यह याचिका प्रायोजित है।
एक बार फिर वही याचिकाकर्ता तहसीन पूनावाला जिसे कांग्रेस ने निकाल दिया है फिर भी उसे कांग्रेस नेता कहा जाता है क्योंकि उसके अपने दूसरे लाभ हैं, ने इस याचिका को दायर किया है। किसी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि लोया मामला तो सरकार में शामिल एक-दो व्यक्तियों पर ही असर डालता लेकिन यह मामला तो पूरी सरकार को सवालों को घेरे में खड़ा कर सकता है। लिहाजा एक बार फिर लगता है कि तहसीन पूनावाला को इस्तेमाल कर लिया गया है। और वह शायद बने ही इसीलिए हैं। क्योंकि इसके जरिये वह अपने दूसरे लाभ जो हासिल कर रहे हैं।