हाल-ए-लद्दाख-1: देश के भीतर ही, बिल्कुल जुदा एक देश

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लेह। कहने को भारत एक देश है, लेकिन एक देश के भीतर कितने देश बसते हैं, इसका गहरा एहसास लद्दाख जाने पर ही होता है। लद्दाख के मूल वासियों की कद-काठी, नैन-नक्श, रहन-सहन और रूप-रंग हम हिंदी पट्टी वालों से बिल्कुल जुदा है। उनका मूल खान-पान, रहन-सहन और परंपरागत वेश-भूषा भी हम से काफी अलग है। उनकी आपस के बीच की बोली-बानी हमारी समझ से परे है। 

हां एक मामले में वे हमसे पूरी तरह मेल खाते हैं, करीब सब के सब लोग हिंदी बोल लेते हैं और समझ लेते हैं,  दूर-दराज की गांवों की महिलाओं को हिंदी बोलने और समझने में थोड़ी मुश्किल आती है। हालांकि लेह-लद्दाख के लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है। उनकी मातृभाषा तिब्बती है, लिपि भी तिब्बती है। हिंदी को लेह-लद्दाख के बाहर के लोगों से लेह-लद्दाख वासियों की संवाद की भाषा बनाने में भारतीय सेना, पर्यटक, बिहारी मजदूर, हिंदी सिनेमा और स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली हिंदी का मुख्य योगदान है। लद्दाखी आपस में लेह की अपनी भाषा और स्थानीय बोलियों में बात करते हैं।

लद्दाख एक जनजातीय समाज है। 80 प्रतिशत से अधिक आबादी जनजाति ( ST) है। इस जनजातीय कैटेगरी में मुस्लिम और बौद्ध दोनों शामिल हैं, करीब 80 प्रतिशत लद्दाखियों को जनजाति का औपचारिक-कानूनी ( संवैधानिक) दर्जा प्राप्त है। एसटी को मिलने वाले सभी लाभ उन्हें मिलते हैं। बिना मुस्लिम और बौद्ध के भेद-भाव के। लद्दाख में हिंदू  विरले ही मिलते हैं, बहुसंख्यक आबादी बौद्ध या मुस्लिम है। 2011 की जनगणना के अनुसार लद्दाख की कुल जनसंख्या 2 लाख 74 हजार 289 है, जिसमें 46 प्रतिशत मुस्लिम, 40 प्रतिशत बौद्ध और 12 प्रतिशत हिंदू हैं, कुछ ईसाई और सिख भी हैं। बहुसंख्यक शिया मुसलमान हैं, जिनका बड़ा हिस्सा लद्दाख के कारगिल जिले में रहता है।

बौद्धों का बड़ा हिस्सा लेह जिले में रहता है। लेह में हर जगह  बौद्ध मॉनेस्ट्री ( प्रार्थना स्थल) स्तूप, जगह-जगह बुद्ध की प्रतिमा, बौद्ध बिहार, बौद्ध भिक्खु और बौद्ध उपासक मिलते हैं। यहां बौद्ध धम्म तिब्बती बौद्ध धम्म है, दलाई लामा की तस्वीर हर कहीं दिख जाती है। यहां के बौद्ध धम्म में अनुष्ठान और कर्मकांड का बोलबाला है। लेह में दो-तीन विशाल मस्जिदें भी हैं, हिंदू मंदिर तो नहीं दिखा, लेकिन हिंदू देवी-देवताओं के फोटो यदा-कदा जरूर दिखे। वैसे मंदिर होंगे तो जरूर ही।

लेह में एक चीज बिल्कुल हमारी जैसी है, वह है ‘लेबर चौक’। जहां दिन भर के लिए खुद को बेचने के लिए मजदूर जुटते हैं, जिसमें बड़ी संख्या में हमारे जैसे बिहारी मजदूर होते हैं। वहां बिहारी मजदूर भरे पड़े हैं, हर साल करीब 8 से 12 हजार के बीच बिहारी मजदूर सीजन में लेह जाते हैं। यह सीजन अप्रैल से शुरू होकर सितम्बर तक चलता है। इन मजदूरों के अलग लेबर चौक हैं, उनके बीच जाकर लगेगा कि आप बिहार में हैं,  वही दुख-दर्द, घर-परिवार, गांव, कस्बा, जिला और प्रदेश छोड़ने की बेबसी-मजबूरी और बदतर हालातों में परदेस में रहने की पीड़ा। यह सब कुछ उनकी बातों और आवाज में साफ झलकती है। बिहार के नेताओं के प्रति नफरत की हद तक आक्रोश भी। 

हालांकि नेपाल, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के मजदूर भी लेह-लद्दाख आते हैं, उनका लेबर चौराहा अलग है। अपनी कद-काठी और रूप-रंग और बोली-बानी के चलते वे लद्दाखी लोगों से ज्यादा मिलते-जुलते और घुले-मिले लगते हैं, उनकी बिल्कुल अलग से हर समय पहचान करना मुश्किल है। नेपाली मजदूर भी यहां बड़ी संख्या में आते हैं, वे यहां आना इसलिए पसंद करते हैं कि यहां भारत के अन्य हिस्सों में उन्हें उनके नयन-नक्श, कद-काठी और रूप-रंग के आधार पहचान कर अलगाया और अपमानित नहीं किया जा सकता है, न किया जाता है। बाहर से मजदूरों को यहां की कड़कड़ाती ठंड और इतनी ऊंचाई (जहां सांस लेना मुश्किल हो) पर आने का एक बड़ा कारण यह है कि यहां भले ही सीजन छोटा ( 6 महीने ) का होता हो, लेकिन मजदूरी कम से कम आठ सौ रूपए मिल जाती है, ओवरटाइम का पैसा अलग से। हालांकि अब यहां भी लेबर चौक पर आने वाले मजदूर को हर दिन काम नहीं मिल पाता है, कई बार खाली हाथ लौटना पड़ता है, क्योंकि बहुत अधिक मजदूर यहां आने लगे हैं, विशेषकर बिहार के।

मेहनत- मजदूरी करने के मामले में लद्दाखी बिल्कुल ही अलग हैं। लद्दाख का मूल वासी किसी दूसरे के घर या मालिक के यहां मजदूरी नहीं करता है। यहां तक कि लेह शहर में जो इंफ्रास्ट्रक्चर बन रहा है, होटल-मकान बन रहे हैं, वहां भी शायद ही कोई लद्दाखी शारीरिक श्रम करता हो। करीब सभी तरह के शारीरिक श्रम बाहर के मजदूर करते हैं। हालांकि लद्दाखी अपने खेतों में, घरों में और अपने स्वरोजगार के कामों में जमकर खटते हुए और शारीरिक श्रम करते दिखते हैं, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं। लेकिन वे दूसरे की चाकरी नहीं करते। वे शारीरिक श्रम के कामों के लिए पलायन भी नहीं करते हैं यानी लद्दाख छोड़कर शायद ही शारीरिक काम की तलाश में जाते हों। 

लद्दाख में आम तौर पर आर्थिक-सामाजिक असमानता कम है, समानता अधिक है। हिंदू धर्म और हिंदू धर्मावलंबियों की बहुत कम उपस्थिति के चलते ऊंच-नीच का वर्ण-जाति का श्रेणीक्रम नदारद सा है। पहाड़ी-जनजातीय समाज, श्रम में सबकी हिस्सेदारी और लेह में बौद्ध धर्म की उपस्थिति के चलते महिलाएं हिंदी पट्टी की तरह, विशेषकर सवर्ण घरों और मध्यवर्गीय घरों की महिलाओं की तरह घरों में कैद और पर्दे में ढंकी नहीं मिलतीं। सार्वजनिक स्थलों पर करीब-करीब महिलाएं-पुरूष समान संख्या में दिखते हैं, महिलाओं की संख्या पुरूषों से थोड़ी ही कम दिखती है। ‘प्रेम-विवाह’ विवाह का सबसे प्रचलित और आम रूप बनता जा रहा है।

पर्यटन यहां के लोगों की आय का मुख्य स्रोत बन गया है, जिसने यहां के जीवन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है, बदला है। वैसे तो पर्यटकों का सीजन अप्रैल से शुरू हो जाता है, लेकिन पीक समय मई-जून होता है, जब बर्फ पूरी तरह पिघल जाती है। श्रीनगर और मनाली से रास्ता पूरी तरह खुल जाता है। शेष समय हवाई जहाज का ही सहारा रहता है। पर्यटन और पर्यटकों के लिए तेजी से बनते होटल और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर ने कुछ लोगों को बहुसंख्यक लोगों की तुलना में थोड़ा ज्यादा अमीर पिछले वर्षों में जरूर बनाया है। हालांकि पर्यटकों से सबको कुछ न कुछ आय होती है, लेकिन कोई ड्राइवर है, तो कोई कई गाड़ियों-एजेंसियों का मालिक। आर्थिक असमानता बढ़ रही है।

वहां के पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी हमारे यहां से बिल्कुल भिन्न हैं। निगाह डालने पर आमतौर पर निर्जन पहाड़ और बर्फ से ढंकी चोटियां ही यहां दिखती हैं, दूर-दूर तक पेड़-पौधों का नामो-निशान नहीं दिखता। हालांकि करीब 1250 पेड़ -पौधों की प्रजातियों की पहचान विशेषज्ञों ने की है, जिसमें घास भी शामिल है। लद्दाख सबसे ऊंचाई वाला रेगिस्तान है, जहां मानसून की बारिश नहीं होती है। नदियां और झीलें ही यहां एकमात्र पानी के स्रोत हैं।

सिंधु नदी के किनारे इन पंक्तियों का लेखक।

हम दिल्ली में समुद्र तल से  करीब 700 फीट की ऊंचाई पर रहते हैं, लेह समुद्र तल से 11, 562 फीट की ऊंचाई पर है। लेह जाते ही आप कम से कम दिल्ली से 10 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं। यह ऊंचाई आपकी सांसों की गति को धीमा कर देती है, सावधान न रहे तो जानलेवा बन सकती है। जिस सबसे ऊंची जगह (चांग ला) तक हम पहुंचे वह समुद्र तल से 17,688 फीट की ऊंचाई पर है, जहां सांस लेना भी मुश्किल होता है।

लेह-लद्दाख में केवल भौगोलिक ऊंचाई नहीं है, वहां के बाशिंदों के चरित्र और जीवन-मूल्यों में हिंदी वालों- दिल्ली वालों से आमतौर बहुत अधिक ऊंचाई दिखती है। वहां कोई दुकानदार आप से साफ शब्दों में यह कह सकता है कि यह सामान आप के लिए बेकार है या इसकी क्वालिटी ठीक नहीं आप इसे न खरीदें, बाद में खराब हो जाएगा। जबकि आप उसे खरीदने के लिए पूरी तरह तत्पर हैं, मुंहमांगा पैसा भी देने को तैयार हैं। लेह-लद्दाख मंहगा तो है, लेकिन चिटिंग आमतौर पर नहीं है।

लेह पहुंचते ही बर्फ ढंकी चोटियां सबसे पहले आपको आकर्षित करती हैं, जो पल-पल रंग भी बदलती रहती हैं, हालांकि निर्जन पहाड़ एक किस्म का अवसाद भी पैदा करते हैं। पहाड़ों और बर्फ के बाद जो चीज सबसे अधिक दिखती है, वह है भारतीय सेना। लेह-लद्दाख की विशाल सीमा का बड़ा हिस्सा चीन और पाकिस्तान से सटा हुआ है। सच तो यह ऐतिहासिक लेह-लद्दाख आज तीन देशों में बंटा हुआ है। जहां बड़ा हिस्सा भारत में है, तो वहीं के एक बड़े हिस्से पर चीन ने कब्जा जमा लिया है, पहले 1962 में फिर 2020 में।

1962 में चीन ने एक हिस्से पर कब्जा कर लिया, इसे नेहरू की सरकार ने ईमानदारी से स्वीकार किया, लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि चीन ने करीब 4 हजार वर्ग किलोमीटर पर 2020 में कब्जा जमा लिया है, जबकि सारे तथ्य इसकी पुष्टि करते हैं। एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास है। पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले एक हिस्से को चीन को दे दिया। जहां चीन सड़क बना चुका है और अब बहुत सारे अन्य निर्माण कार्य कर रहा है। सीमा पर रहने वाले लद्दाखी लोगों का भौगोलिक दायरा सिमटता जा रहा है, जहां वे पहले आराम से आते-जाते थे, अपनी भेड़-बकरियां चराते थे, अब चीन की सेना ने वहां से उन्हें खदेड़ दिया है। नरेंद्र मोदी सरकार झूठ-पर-झूठ बोले जा रही है।

लेह-लद्दाख पर कब्जे के लिए चीन और पाकिस्तान दोनों से युद्ध हो चुका है। 2020 में चीन से गलवान झड़प और उसके पहले कारगिल युद्ध ( 1999)। लेह-लद्दाख के ठंढे क्षेत्र में हमेशा युद्ध की गर्मी बनी रहती है, कब युद्ध भड़क जाए इसका खतरा हमेशा मंडराता रहता है, सीमा के गांव हमेशा शान्ति की कामना करते रहते हैं, क्योंकि हर युद्ध में उन्हें मौत का साया दिखाई देता है। कब कौन सा गोला या बम आकर उनके गांव और उनके मवेशियों पर फट जाए वे इसी आशंका में जीते रहते हैं।

लेह-लद्दाख में जहां भी जाइए, हर जगह भारतीय सेना का जमावड़ा मिलेगा। हर जगह सेना का स्टेबलिशमेंट दिखता है। बड़ी संख्या में सैनिकों के लिए बने आवास दिखते हैं। छावनियां दिखती हैं। लेह-लद्दाख में करीब 50,000 भारतीय सैनिक हैं। जो करीब वहां की कुल आबादी के एक तिहाई के बराबर हैं। आसमान में सेना के हेलिकॉप्टर हमेशा मंडराते रहते हैं, सड़कों पर हर कहीं सैनिकों की गाड़ियां और ट्रक से आपका सामना होता है। सेना और वहां के मूल वासियों के बीच संबंध बहुत ही मधुर और प्रगाढ़ हैं। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। बार्डर के एरिया में सेना वहां लोगों के समर्थन-सहयोग के बिना न सीमा की रक्षा ठीक से कर सकती है और न कोई युद्ध लड़ सकती है। वहां के बाशिंदे भी सेना के बिना खुद को सुरक्षित नहीं पाते, क्योंकि चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ का खतरा मंडराता रहता है। वहां के लोगों से जो बात हुई, उससे पता चला कि वहां लोगों के लिए सेना बहुत सारी नागरिक सुविधाएं भी मुहैया कराती है, यहां तक कि सेना के अस्पतालों में वहां के सामान्य नागिरकों के लिए इलाज की सुविधा उपलब्ध है। सड़क निर्माण-पुल आदि के निर्माण का भी अधिकांश काम सेना करती है।

 सेना का बाद लेह-लद्दाख में जिसकी उपस्थिति सबसे अधिक दिखती है, वे देश-दुनिया के पर्यटक हैं, हालांकि पर्यटन का समय कुछ महीने ही रहता है, मई-जून में सबसे अधिक पर्यटक आते हैं। एक अनुमान के अनुसार हर साल करीब 80,000 पर्यटक लेह-लद्दाख आते हैं। सामान्य पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा प्राकृतिक आकर्षण पैंगोंग या पैंगोंग त्सो झील है।

यह दुनिया की सबसे खूबसूरत झीलों में एक है। यह हिमालय की एक ऐसी झील है, जो करीब 13,862 फीट की ऊंचाई पर है। यह करीब 135 किलोमीटर लंबी है और करीब 604 वर्ग किलोमीटर में फैली है। इसका एक हिस्सा भारत में है और एक हिस्सा चीन में है। यह खारे पानी की झील है, जो ठंड में पूरी तरह जम जाती है। इस पर आइस स्केटिंग भी होती है। 

सिंधु नदी लेह की जीवन-रेखा है। हालांकि सिंधु के साथ श्योक और नुब्रा नदी घाटियां भी लेह में ही हैं। कारगिल में सुरू, द्रास और ज़ांस्कर नदी घाटियां हैं। लद्दाख के दोनों जिलों (लेह-कारगिल) में पानी का स्रोत का ये नदियां और झीलें हैं। भारत-चीन सीमा पर समुद्र तल से 14, 270 फीट ऊंचाई पर स्थिति पैंगोंग त्सो ( पैंगोंग झील) दुनिया की सबसे ऊंची खारे पानी की झीलों में से एक है। इसका आसमानी नीला रंग किसी को भी अपनी खूबसूरती से मुग्ध कर लेता है।

सिंधु सभ्यता की जननी सिंधु नदी पांच हजार वर्षों के सभ्यता के इतिहास को अपने समेटे है, जहां हड़प्पा-सिंधु की सभ्यता जन्मी और विकसित हुई। यह भी आकर्षण का केंद्र है। लेह-लद्दाख बाइकरों  को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित करता है, जगह-जगह बाइकरों की लंबी सी कतार आपको दिखेगी। वे पहाड़ों-बर्फ का लुत्फ उठाते मस्ती से अपने-अपने बाइकों पर झूमते, तेजी से आगे बढ़ते आपको दिख जाएंगे। लेह के करीब हर होटल में आपको किराए पर ऐसी बाइक मिल जाएगी, जिसका आप इस्तेमाल लेह-लद्दाख में बाइकिंग के लिए कर सकते हैं। लेह-लद्दाख में लोग ट्रैकिंग लिए भी आते हैं। बर्फ पर ट्रैकिंग के लिए बहुत सारे ट्रैक हैं। 

बौद्ध धम्म के अनुयायियों के लिए भी यह आकर्षण का एक केंद्र है, यहां हर कहीं बुद्ध के निशान और उपस्थिति मिल जाती है। जिसके लिए बौद्ध अनुयायी यहां आते हैं। एक अच्छी खासी संख्या उन नौजवान लड़के-लड़कियों की यहां आती है,जो कार्पोरेट कंपनियों के कर्मचारी हैं, वर्क फ्राम होम का इस्तेमाल कर वे अप्रैल से सितम्बर तक बीच महीनों तक यहां टिके रहते हैं।

पांच दिन काम करते हैं और सप्ताह के दो दिन सैलानी के रूप में बाइकिंग करते हैं, ट्रैकिंग पर जाते हैं। वे ऑनलाइन काम करते हुए, लेह-लद्दाख की पल-पल बदलती प्राकृतिक छटा का मजा उठाते रहते हैं, दिल्ली-मुबई आदि मेट्रो सिट्टी के भीड़-भाड़ और उमस से आजाद। पर्यटक लेह-लद्दाख की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।

इतनी ऊंचाई,  40 फीट तक जमने वाली बर्फ और माइनस 30 डिग्री तक पहुंच जाने वाले तापमान के बीच जीने वाले लेह-लद्दाख के लोगों में पिछले कुछ महीनों से इतना उबाल क्यों हैं, क्योंकि लोग झंडे-बैनर के साथ सड़कों पर उतर पड़े हैं, भले शांति-पूर्ण तरीके से ही सही। क्यों वैज्ञानिक, शिक्षाविद, पर्यावरण विशेषज्ञ- संरक्षक और मैग्सेसे पुरस्कार से नवाजे गए सोनम वांगचुक को 21 दिन तक भूख हड़ताल (आमरण अनशन) पर रहना पड़ा, क्यों आज भी लोग धरनारत हैं? क्यों लेह-लद्दाख के लोग यह महसूस कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी और भाजपा ने उनके साथ विश्वासघात किया है, उन्हें धोखा दिया है। वे क्यों हर हाल में लोकसभा चुनाव (28 मई) में नरेंद्र मोदी और भाजपा को सबक सिखाना चाह रहे हैं, क्या हैं उनकी मांगे? इस सब का जवाब अगली कड़ी में।

क्रमश: जारी ………..

(महेन्द्र के साथ सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)

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