लैटिन अमेरिका में लिथियम का सबसे ज्यादा भंडार, बदलेगा वैश्विक राजनीति का परिदृश्य

बढ़ते पर्यावरणीय खतरों को ध्यान में रखते हुए पूरा विश्व कई सारे परिवर्तनों से होकर गुज़र रहा है, ऐसा ही एक परिवर्तन यातायात के साधनों को लेकर पूरी दुनिया में हो रहा है। जहां पहले मोटे तौर पर परिवहन के साधन जीवाश्म ईंधन से चलते थे वहीं पिछले कुछ सालों से कार निर्माता कंपनियों के साथ ही शासक वर्ग के लोगों द्वारा इलेक्ट्रिक व्हीकल (EV) को एक नए ‘सस्टेनेबल विकल्प’ के तौर पर पेश किया जा रहा है। दुनिया की सारी कार निर्माता कंपनियों ने अपने EV सेग्मेंट के वाहन लॉन्च किए है, साथ ही धीरे-धीरे पेट्रोल-डीजल आधारित वाहनों को कम और बन्द करने की बात भी ज़ोरों पर है।

इस बदलाव के साथ ही लिथियम नाम का एक पदार्थ भू-राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनता जा रहा है। इलेक्ट्रिक व्हिकल में इलेक्ट्रिसिटी स्टोर के लिए बड़े आकार की बैटरी का प्रयोग होता है। प्रायः यह बैटरी लिथियम-आयन तकनीक पर निर्भर होती है, जिसके लिए लिथियम की ज़रूरत पड़ती है। इसके चलते पिछले कुछ वर्षों में लिथियम की क़ीमतों में भारी उछाल आया है, जहां साल 2018 में लिथियम की वैश्विक बाज़ार में क़ीमत क़रीब 13,000 चीनी युआन प्रति मिट्रिक टन थी वहीं 2022 तक उसकी क़ीमत 54,000 चीनी युआन प्रति मिट्रिक टन हो कर लगभग 15% वार्षिक की दर से बढ़ रही है।

पिछले लम्बे समय में विशेष कर सोवियत यूनियन के गिरने के बाद के तीन दशकों में देखा गया है कि पेट्रोलियम तेल भू-राजनीति के केन्द्र में रहा, जिसके चलते अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्ति ने कई देशों पर युद्ध थोपे, हो सकता है वैसी ही स्थिति आने वाले समय में लिथियम को लेकर बने। वर्तमान में जापान, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका और वैश्विक महाशक्ति के तौर पर उभरता चीन ऑटो-मोबाइल इण्डस्ट्री में प्रतियोगी हैं। हालांकि लिथियम बैटरी के निर्माण बाज़ार में चीन की हिस्सेदारी आधे से अधिक है।

लिथियम के सबसे बड़े स्रोत लैटिन अमेरिका में है। अर्जेंटीना, बोलिविया और चिली के पास पूरी दुनिया का 65 प्रतिशत से अधिक लिथियम है। इन देशों को संयुक्त तौर पर लिथियम त्रिकोण भी कहा जाने लगा है। वहीं अगर इनमें मेक्सिको, पेरू और ब्राज़ील को जोड़ दिया जाए तो यह पूरी दुनिया का 70 प्रतिशत से अधिक लिथियम का स्रोत बन जाता है।

हाल ही में बोलिविया के राष्ट्रपति लुईस आर्से ने मार्च 23 को दिए एक भाषण में अन्य लैटिन अमेरिकी देशों को संयुक्त तौर पर लिथियम नीति बनाने के लिए आमंत्रित किया है। उनका कहना है कि जिस प्रकार तेल उत्पादक देशों में तेल की क़ीमत तय करने के लिए एक OPEC जैसा गठबंधन है, ठीक उसी तर्ज़ पर लीथियम के लिए लैटिन अमेरिकी लीथियम उत्पादक देशों का एक संयुक्त मोर्चा बने, जिससे लिथियम की क़ीमतों पर नियंत्रण करके अपनी अर्थव्यवस्था और लोगों के जीवन के हालातों को सुधारा जा सके। लंबे समय से अमेरिकी साम्राज्यवाद और नवउदारवाद की चपेट में रहे लैटिन अमेरिका के लिए लिथियम नीति को लागू करवा पाना आसान बात नहीं होगी।

लैटिन अमेरिका के कई रिसते जख्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त में साल 2019 में एक और ज़ख़्म लिथियम के कारण जुड़ता है, नवम्बर 2019 में जब बोलिविया के समाजवादी राष्ट्रपति इवो मोरालेस के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र अमेरिका द्वारा तख्तापलट को प्रायोजित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि उनकी सरकार को बेदख़ल करने के पीछे मुख्य कारण उनकी माइनिंग की नीति थी, जिसके अनुसार लिथियम माइनिंग कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया गया था।

किसी भी विदेशी कंपनी को बोलिविया में माइनिंग करने के लिए वहां की सरकारी माइनिंग कंपनी के साथ 50 प्रतिशत की साझेदारी करना ज़रूरी हो गया था। जबकि सरकार गिराने के बाद राष्ट्रपति बनाई गई दक्षिणपंथी नेता ज़ीनी आनिएज माइनिंग का पुन: निजीकरण करना चाह रही थी लेकिन अपने कार्यकाल के कम समय के चलते वह ऐसा करने में असफल रहीं।

लिथियम के व्यापार में अमेरिकी पूंजीपति एलान मस्क के हित सबसे अधिक जुड़े हैं, उनकी कार निर्माता कंपनी टेस्ला EV की सबसे बड़ी निर्माता कंपनी है, जिसे हर हाल में सस्ता लिथियम चाहिए। बोलिविया के तख्तापलट के बाद एक ट्विटर यूज़र ने उन्हें बोलिवियन तख्तापलट का ज़िम्मेदार ठहराया था। उसके जवाब में उन्होंने ट्वीट किया था “हम जिसके चाहे उसके ख़िलाफ़ तख्तापलट करेंगे, इससे समझौता करो।”

लिथियम में अमेरिकी पूंजीवाद के हित जनवरी 2023 में अमेरिकी सेना की साउदर्न कमाण्ड के एटलांटिक कौंसिल को दिए एक इंटरव्यू में भी उजागर होते हैं, जिसमें वे लैटिन अमेरिकी क्षेत्र की उपयोगिता के सवाल के जवाब में बताती है कि “अपने सभी समृद्ध संसाधनों और खनिज तत्वों के साथ, वहां लिथियम त्रिभुज भी है, जो आज की तकनीक निर्माण के लिए ज़रूरी है। दुनिया का साठ प्रतिशत लिथियम, लिथियम त्रिकोण में पाया जाता है: अर्जेंटीना, बोलीविया, चिली”।

वे आगे कहती है “मेरी कल ही अर्जेंटिना और चिली के अमेरिकी राजदूतों, लिवेंट कंपनी के स्ट्रेटेजी मैनेजर और ऑल्बामार कंपनी के वीपी से ज़ूम कॉल पर बात हुई, जिसमें लिथियम को लेकर चर्चा हुई की ये कंपनियां किन चुनौतियों का सामना कर रही हैं और उसके लिए क्या किया जा सकता है”।

जहां एक ओर लैटिन अमेरिकी देशों में फिर से समाजवादी राजनीति के मज़बूत होने की लहर चल पड़ी है, जो नवउदारवाद के सामने एक बाधा बनकर उभरना चाहती है, वहीं क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व, औपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का लंबा प्रभाव रहा है। इस बाधा के बावजूद भी अगर लैटिन अमेरिकी देश लिथियम नीति बनाने में कामयाब होते हैं तो यह वैश्विक राजनीति में तीसरी दुनिया के देशों को मज़बूत करने वाला कदम होगा। साथ ही इन देशों के लोगों का जीवन स्तर पर भी सकारात्मक असर देखने को मिलेगा। लेकिन तमाम सवालों के बीच EV के बाद से भू-राजनीति में इन देशों के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता।

(विभांशु कल्ला ने मॉस्को के हायर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डेवलपमेंट स्टडीज़ में मास्टर्स किया है, और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं।)

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Kuldeep chhamgani
Kuldeep chhamgani
Guest
10 months ago

लिथियम किस तरह से विश्व की राजनीति को प्रभावित करेगा उस पर विभांशु की ये दूरगामी रिपोर्ट शानदार हैं ।

Renuka kalla
Renuka kalla
Guest
10 months ago

I agree with you

Sumer
Sumer
Guest
10 months ago

very informative and perspective building