सुनने में आ रहा है कि बिहार में फिर से विक्रम बेताल पच्चीसी शुरू हो गई है। समय का चक्र तेजी से घूमना शुरू हो चुका है। पिछले दो दिनों से बिहार की राजनीति अचानक से तब सुर्ख़ियों में आ गई थी, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष, तेजस्वी यादव के बीच मुलाक़ात की चर्चा से अफवाहों का बाजार गर्म हो गया था कि नीतीश कुमार मोदी जी को झटका देने की तैयारी में हैं।
लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार के द्वारा पिछले दो दिनों के दौरान दिखाई गई पहल को खुद उनके द्वारा आज भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, जेपी नड्डा के सामने ख़ारिज करते हुए देखा गया है, जिसमें उनका कहना है कि अतीत में आरजेडी के साथ हाथ मिलाना उनकी भूल थी।
ऐसी स्वीकारोक्ति उन्हें क्यों करनी पड़ी? यह सब उन्हें इसलिए करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि आज सुबह ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाव-लश्कर के साथ पटना पहुंच गये और उनका पहला ठिकाना मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आवास रहा।
इस यात्रा का मकसद बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी कई नई घोषणाओं की शुरुआत को बताया जा रहा है, लेकिन असली वजह तो वही है जिसे लेकर पटना से दिल्ली तक चर्चा का बाज़ार गर्म है।
बीजेपी का डैमेज कंट्रोल लोजपा और जेडीयू नेतृत्व को बैचेन कर रहा
चिराग पासवान भी पिछले दिनों विद्रोही तेवर दिखाने लगे थे। 4 सितंबर को चिराग पासवान ने जेपी नड्डा के घर जाकर मुलाक़ात की जब उनके टीवी स्क्रीन पर राहुल गांधी का भाषण चल रहा था। इससे पहले कुछ दिनों से चिराग पासवान के सुर बदले-बदले से थे।
एक टीवी डिबेट में उन्होंने जो बयान दिया था, उसे कोट करते हुए X पर 2 सितंबर को चिराग पासवान लिखते हैं, “धोखा मुझे मेरे अपनों ने ही दिया। मेरे अपने अगर मेरे साथ होते तो दुनिया की कोई ताकत मेरे परिवार या मेरी पार्टी नहीं तोड़ सकती थी। मैं किसी दूसरे या बाहर वाले से क्या शिकायत करूं, जब मेरे अपने खून ने ही मेरी पीठ में खंजर घोंप दिया।
जिनको मैंने पिता माना, उन्होंने ही मुझे मंझधार में छोड़ दिया तो दूसरों से क्या शिकायत करता। इस दौरान मैंने सीखा-समझा कि शिकायतें करने से कुछ नहीं होता, अपने आपको मजबूत बनाना होगा। मैंने अगली लड़ाई को जीतने के लिए अपने को मजबूत बनाया और महज तीन साल में पार्टी को वहां पर लेकर आया हूं, जहां पापा छोड़कर गए थे।”
लेकिन इसके बाद अचानक से उनके सुर फिर से ठंडे पड़ चुके हैं, और उन्हें पीएम मोदी के ट्वीट को रिट्वीट करते देखा जा सकता है। उनकी जगह पर इस बार बिहार की राजनीति में पीएम मोदी के हनुमान के तौर पर प्रशांत किशोर की एंट्री हो रही है।
2 अक्टूबर को अपनी पार्टी की विधिवत घोषणा करने से पहले उन्होंने बिहार की राजनीति को गर्मा दिया है। लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि पी के की रणनीति से एनडीए के घटक दल भी डरे हुए हैं। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव उनके निशाने पर हैं, और प्रशांत किशोर बिहार के युवाओं और मुस्लिम समुदाय के बीच बिल्कुल अलग भाषा में तकरीर पेश कर रहे हैं।
यह वही मतदाता हैं जो बिहार में तेजस्वी यादव के साथ अपने भविष्य को जोड़कर देख रहा है। इस मतदाता आधार पर सेंधमारी में वे जितना सफल होंगे, उतना ही भाजपा के लिए बिहार का चक्रव्यूह भेदना आसान हो सकता है।
खबर तो यह भी है कि लोजपा के चिराग पासवान के साथ भी प्रशांत किशोर अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत कर सकते हैं। उन्होंने चिराग पासवान को अपनी पार्टी के भावी मुख्यमंत्री की पेशकश भी की है, बशर्ते चिराग पासवान अपनी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का विलय उनकी जन सुराज पार्टी के भीतर कर दें।
देखना होगा कि चिराग पासवान इस ऑफर को कितना भाव देते हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री बनने की लालसा तो उनके पिता स्वर्गीय राम विलास पासवान की भी थी, लेकिन वह पूरी न हो सकी। लेकिन कहा जाता है कि दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है।
चिराग पासवान पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के हनुमान बनकर जिस तरह से नीतीश कुमार को ठिकाने लगाने के लिए निकले थे, उससे नीतीश कुमार तो बाल-बाल बच गये, लेकिन उनका खुद का घर स्वाहा हो गया था।
उनकी पार्टी को एक भी विधानसभा सीट पर जीत हासिल नहीं हो सकी थी, उल्टा उनके चाचा सहित तमाम सांसद अलग पार्टी बनाकर भाजपा के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का सुख भोगते रहे।
तीन साल अपने बिखरे घर को संवारते हुए चिराग पासवान ने लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से अपना मुकाम हासिल कर लिया, लेकिन जातिगत जनगणना, वक्फ बोर्ड बिल, लेटरल एंट्री और एससी-एसटी में क्रीमी लेयर के प्रश्न पर भाजपा से विरोधी रुख पेशकर चिराग पासवान ने स्पष्ट संदेश दे दिया था कि उनकी पार्टी के प्रति भाजपा को आश्वस्त नहीं रहना चाहिए।
आनन-फानन में उनकी पार्टी के सांसदों के साथ उनके प्रतिद्वंदी खेमे की बैठक से उन्हें स्पष्ट संदेश दे दिया गया है कि उनके पर कभी भी कतरे जा सकते हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि उनके सांसद जीजा को छोड़कर पार्टी के बाकी सभी सांसद कभी भी पलटी मार सकते हैं।
इतना ही नहीं, केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान की लोकसभा सदस्यता तक को बीजेपी के एक विधायक के द्वारा पटना हाई कोर्ट और चुनाव आयोग में चुनौती दी गई है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि एक रेप केस में आरोपी नम्बर दो होने के बावजूद चिराग पासवान ने अपने चुनावी हलफनामे में इस तथ्य को छिपाने का काम किया है।
इसके अलावा, खगड़िया स्थित अपने घर और 80 एकड़ जमीन के बारे में भी चिराग पासवान ने तथ्य छिपाए हैं। तीसरा आरोप चिराग पासवान की बी टेक डिग्री को लेकर लगाया गया है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चिराग के राजनीतिक कैरियर पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह उसी पार्टी के इशारे पर लगाया जा रहा है, जिसके वे हनुमान होने का दावा करते आये हैं। इसलिए फिलहाल चिराग पासवान की आवाज फिर से दब चुकी है।
ऐसा ही कुछ हाल जेडीयू में नीतीश कुमार की पार्टी में हो रहा है। पिछले कुछ समय से जेडीयू में सबकुछ उल्टा-पुल्टा चल रहा है। नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ दोबारा गठबंधन के पीछे शर्त ही यही रखी थी कि लोकसभा चुनाव के साथ-साथ बिहार विधानसभा के चुनाव कराए जायें।
उनकी इस मांग पर तब कोई ध्यान नहीं दिया गया, और आज भी चुनाव कराने के बजाय उनकी पार्टी के भीतर तोड़-फोड़ करने की कोशिशें जारी हैं। पार्टी में लल्लन सिंह, सांसद और पार्टी अध्यक्ष संजय कुमार झा, राजनीतिक सलाहकार और प्रवक्ता के सी त्यागी और अशोक चौधरी अपना-अपना खटराग गा रहे हैं।
सबको लगता है कि नीतीश कुमार की यह आखिरी पारी है, इसलिए नेतृत्व के लिए मारामारी से लेकर भाजपा की नजरों में चढ़ने की डग्गामार हरकतों का बोलबाला चल रहा है। उधर नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक पारी का अंत एक शानदार सिग्नेचर के साथ करना चाहते हैं।
नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत और बिहार में जातिगत जनगणना कराकर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया था, उसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी इतना आगे ले गये हैं कि नीतीश कुमार काफी पीछे छूट गये लगते हैं। यदि वे इंडिया गठबंधन में रहे होते तो आज यह मुकाम उन्हें हासिल होना था।
वे जानते हैं कि इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराने के लिए उन्हें एक बार फिर से बड़ा राजनीतिक उलटफेर करना होगा, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि कुछ माह पहले नीतीश कुमार के विश्वसनीय नौकरशाह के घर ईडी की छापेमारी से कुछ ऐसे सुबूत हाथ लगे हैं, जिनमें काफी अहम जानकारियां हैं।
संभवतः इसी वजह से पीएम मोदी की अध्यक्षता में जब नीति आयोग की बैठक में देश के सभी मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था तो एनडीए के घटक दलों में से सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री ही इस बैठक में शामिल नहीं हुए थे।
यह घात और प्रतिघात की तैयारी तभी से शुरू हो गई थी, लेकिन नीतीश कुमार अच्छी तरह से जानते हैं कि इस बार भाजपा से अलग होने का मतलब है केंद्र की एनडीए सरकार का निर्णायक अंत होना चाहिए। अपने 12 सांसदों के बल पर वह इसे अंजाम नहीं दे सकते, और बहुत संभव है कि आधे सांसद इस फैसले के खिलाफ चले जायें।
ऐसे में बिहार में तो वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे, लेकिन उसके बाद भाजपा की सारी ताकत बाकी विरोधियों के बजाय जेडीयू को नेस्तनाबूद करने पर केंद्रित हो सकती है।
पिछले दो दिनों में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव से मुलाक़ात और अगले दिन लालू प्रसाद यादव के स्वास्थ्य की जानकारी हासिल करने के लिए उनके आवास पर जाकर की गई मुलाक़ात ने अचानक से पटना और दिल्ली का राजनीतिक पारा गर्म कर दिया था।
तेजस्वी यादव के साथ मुलाक़ात के साथ ही राज्य में दो महत्वपूर्ण नियुक्तियां हुई हैं, जिसके कारण भी अफवाहों का बाजार गर्म है। खबर है कि अमृत लाल मीणा को राज्य का नया मुख्य सचिव नियुक्त किया गया है, जो लालू प्रसाद यादव के बेहद करीबी नौकरशाह माने जाते हैं।
इसी प्रकार सूचना आयुक्त के पद पर प्रकाश कुमार की नियुक्ति के पीछे भी आरजेडी की भूमिका बताई जा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि प्रकाश कुमार, लालू और तेजस्वी यादव के चहेते पत्रकार रहे हैं। ये वही पत्रकार हैं, जिन्होंने दिल्ली से पटना की हवाई यात्रा के दौरान तेजस्वी यादव और नीतीश की हवाई जहाज के भीतर की यात्रा की फोटो वायरल कराई थी।
इसलिए उनकी सूचना आयुक्त के तौर पर नियुक्ति का मतलब है कि वर्तमान में जेडीयू और आरजेडी नेतृत्व आपस में मिलकर काम कर रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में भी नीतीश-तेजस्वी मिलकर साथ लड़ने वाले हैं।
इसी के मद्देनजर, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के बिहार दौरे को देखा जा रहा है। जेपी नड्डा के साथ नीतीश कुमार की क्या बात हुई, यह तो किसी को नहीं मालूम, लेकिन आज एक कार्यक्रम में जेपी नड्डा के साथ मंच साझा करते हुए नीतीश कुमार का यह दोहराना कि आरजेडी के साथ दो बार गठबंधन बनाना उनकी भूल थी, और वे इसे दोबारा कभी नहीं दोहरायेंगे, बहुत कुछ बता रहा है।
वो कौन सी सियासी मजबूरी है, जिसके चलते नीतीश कुमार पल-पल रंग बदल रहे हैं, और उनका कौन सा पैंतरा निर्णायक होगा, इसे कोई नहीं जानता। और जान भी कैसे सकता है कोई?
पिछले 2 दशक से दो प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के बीच बैठकर जिस शख्स ने मुख्यमंत्री की गद्दी को एक पल के लिए भी अपनी पहुंच से दूर नहीं होने दिया, और अपेक्षाकृत कम संख्याबल होने के बावजूद जिसके बगैर दोनों ही बड़े दल मन मसोस कर रह गये हों।
ऐसे में उस व्यक्ति को उसके राजनीतिक अवसान के वक्त अपनी पार्टी के भीतर और बाहर खुद को अपरिहार्य बनाये रखने के लिए यह लड़ाई अकेले ही लड़नी है तो वह लड़ेगा ही।
पूंजीवादी लोकतंत्र में अवसरवादी राजनीति किसी राज्य और उसके नागरिकों की मूलभूत जरूरतों एवं आशाओं-आकांक्षाओं को चुनावी राजनीति की भेंट कैसे चढ़ा देता है, इसी को समझने के लिए बिहार के जटिल राजनीतिक परिदृश्य से परिचित होना नितांत आवश्यक है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं)