नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल गांधी के पहले भाषण पर भाजपा की बदहवासी की वजह

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10 वर्ष बाद देश को प्रतिपक्ष का नेता प्राप्त हुआ है। यह पद 2014 और 2019 में खाली रहा, क्योंकि नियम के मुताबिक किसी एक दल के पास लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 10 फीसदी अर्थात कम से कम 55 सांसद होने आवश्यक थे। 2014 और 2019 में कांग्रेस दूसरा सबसे बड़ा दल होने के बावजूद क्रमशः 44 और 52 लोकसभा सीट ही जीत पाने में कामयाब रही थी। भाजपा चाहती तो विपक्ष को यह पद प्रस्तावित कर सकती थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो कांग्रेस मुक्त भारत का संकल्प ले रखा था, इसलिए ऐसी कल्पना ही अपने आप में फिजूल है।

बहरहाल 2024 में हालात काफी हद तक बदले हुए हैं। भाजपा के पास संख्या बल आज इतना भी नहीं कि यह 1991 वाली कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार का मुकाबला कर सके। जी हां, जब देश में पहली बार कांग्रेस ने पूरे 5 वर्ष नरसिंह राव के नेतृत्व में गठबंधन सरकार चलाई थी, तब उसके पास आज के 240 के मुकाबले 244 सांसद थे। इतना ही नहीं, राव सरकार ने बखूबी गठबंधन के हितों का ध्यान रखा और साथ ही बड़े आर्थिक बदलावों का सूत्रपात तक करने की हिम्मत दिखाई, जिसे हम नवउदारवादी अर्थनीति के नाम से जानते हैं।

प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर इस बार कांग्रेस 99 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही है। उसके बागी उम्मीदवार भी इंडिया गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव लड़कर विजयी हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आनन-फानन में खुद को तीसरी बार पीएम और भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा पेश कर सत्तापक्ष और विपक्ष के लिए भले ही सोचने-विचारने का कोई मौका न दिया हो, लेकिन पिछले 10 वर्षों के ‘एक अकेला, सबपे भारी’ की अधिनायकत्व वाली शैली से सरकार को हांकने की वो सोच भी नहीं सकते।

24 जून से संसद सत्र की शुरुआत से एनडीए सरकार ने जो तेवर अपना रखे थे, उससे अभी तक वह यही संदेश देने में काफी हद तक सफल रही थी कि यह सरकार भी पिछले दो कार्यकाल की तरह ही जारी रहने वाली है। इसमें मंत्रालयों के बंटवारे से लेकर लोकसभा अध्यक्ष पद और दोनों सदन की कार्रवाई एवं पिछले कुछ दिनों से नीट परीक्षा में धांधली, रेल दुर्घटना और तमाम अन्य मुद्दों पर तत्परता दिखाने के बजाय पुराने ढर्रे पर सरकार चलाने की कवायद दोहराई जा रही थी।

1 जुलाई को आख़िरकार जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के लिए संसद के दोनों सदन को सरकार सुचारू रूप से चलाने को राजी हुई तो विपक्ष के नेताओं ने दोनों सदनों में कल जिस अंदाज के साथ सरकार को एक-एक कर घेरा, वह बताता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार की वास्तविक स्थिति क्या है। इनमें उन बहुत सी बातों को प्रतिपक्ष का नेता होने के नाते राहुल गांधी को अपने भाषण में पेश करने की जिम्मेदारी थी, जिन पर देश लगातार प्रश्न कर रहा था। पिछले दस वर्षों से भाजपा सरकार किसी भी जवाबदेही से इसलिए बच जाती थी कि विपक्ष स्वंय में इतना बिखरा हुआ और कमजोर था कि उसकी आवाज को मोदी सरकार के लिए चुटकियों में फूंक मारकर परे कर देना बायें हाथ का खेल था।

करीब 1 घंटे 40 मिनट के अपने भाषण में राहुल गांधी ने पहली बार संवैधानिक पद संभालने के बाद जिन-जिन मुद्दों को उठाया वे कितने मौजूं थे, और सत्तापक्ष के लिए इससे क्या संकेत मिलते हैं, को लेकर कल शाम से चर्चाओं का बाजार गर्म है। मुख्य डिबेट इस बात को लेकर है कि क्या राहुल गांधी को सत्तारूढ़ दल के हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी स्वरुप पर अपने हमले को फोकस में रखना चाहिए था या उन्हें उन मुद्दों पर केंद्रित रहना चाहिए था, जिसके आधार पर कांग्रेस ने 2024 का चुनाव लड़ा था।

हालांकि जिन्होंने भी प्रतिपक्ष के नेता का पूरा भाषण ध्यान से सुना होगा, उन्हें यह बात अच्छी तरह से समझ आ चुकी होगी कि राहुल गांधी ने महंगाई, बेरोजगारी, संवैधानिक लोकतंत्र और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर अवाम को इंडिया गठबंधन के पीछे लामबंद करने के बाद अब भाजपा/आरएसएस के बहुसंख्यक हिंदुत्ववादी विचारधारा से सीधे दो-दो हाथ करने को ही अपना प्रमुख एजेंडा बनाने का निश्चय किया है। उन्हें पता है कि इस बार संसद में विपक्ष में पास न सिर्फ संख्या बल है, बल्कि उसके गुलदस्ते में एक से बढ़कर एक अनुभवी नेता हैं। शायद इसी को ध्यान में रखकर लोकसभा में राहुल गांधी और राज्य सभा के भीतर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष और विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने भाषण को संघ/भाजपा की वैचारिकी पर केंद्रित रखा।

वो चाहे शिव, ईसा मसीह, पैगंबर मुहम्मद, गुरुनानक, महात्मा बुद्ध या महावीर की तस्वीरों के माध्यम से अभय मुद्रा का संदेश प्रेषित करने की बात कही गई, जिसको लेकर ट्रेजरी बेंच की बैचेनी पहली बार एक नए स्तर को छूती दिखी हो, जिसके जवाब में राहुल गांधी के सत्ता पक्ष के हिंदू धर्म के पालन को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े किये गये। यह पहली बार था जब पीएम नरेंद्र मोदी सहित सरकार में नंबर 2 गृह मंत्री अमित शाह और नं. 3 रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को नेता प्रतिपक्ष के भाषण के बीच ही बार-बार उठकर सफाई देने और यहां तक कि सभापति से संरक्षण देने की मांग करनी पड़ी।

ऐसा लगा कि राहुल गांधी अपने तर्कों के माध्यम से देश को संदेश देना चाहते थे कि संघ-भाजपा की वैचारिकी किस तरह से विश्व के स्थापित धर्मों की बुनियादी मान्यता के खिलाफ हैं, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पूर्ण निषेध है। इसी राह पर चलते हुए पिछले 10 वर्षों में भारत आज इस मुहाने पर खड़ा है, जहां एक तरफ देश में अराजकता, सांप्रदायिक वैमनस्य की आड़ में कॉर्पोरेट घरानों की लूट बेरोकटोक ढंग से जारी है, जिसका सीधा असर महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी के रूप में करोड़ों-करोड़ आम भारतीयों को भुगतना पड़ रहा है। आम लोगों का ध्यान भटकाने के लिए पिछली सरकार ने बड़े पैमाने पर ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग के माध्यम से विपक्ष की आवाज को कुचलने का जीतोड़ प्रयास किया, दो-दो मुख्यमंत्रियों और पार्टी प्रमुखों को जेल के भीतर किया, और कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को ऐन आम चुनाव से पहले सीज कराकर पंगु बनाने का प्रयास किया, लेकिन देश की जनता ने जहां-जहां मौका मिला, विपक्ष को मजबूत करने का काम किया।

अपने भाषण में राहुल गांधी ने नीट परीक्षा में व्यापक धांधली, मणिपुर हिंसा, महंगाई, अग्निवीर और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को भी प्रमुखता से उठाया। लेकिन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को सदन के भीतर सबके सामने सदन के सभापति के महत्व और गरिमा का पाठ संभवतः बेहद जरुरी सबक था, जिसपर ऊपरी सदन ने भी अवश्य गौर किया होगा। असल में संसदीय लोकतंत्र की धुरी ही सदन के सभापति के हाथ में होती है।

राहुल ने इसके लिए उस उदाहरण को चुना, जिसे कुछ दिन पहले ही पूरे देश ने देखा था, जिसमें लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी सभापति को उनके आसन तक ले जाने की औपचारिकता निभाते दिखे थे। नेता प्रतिपक्ष के साथ हाथ मिलाते समय बराबरी का भाव, लेकिन पीएम मोदी के सामने झुक-झुककर अभिवादन स्वीकार करने वाले सभापति महोदय ने जब यह कहा कि प्रधान मंत्री सदन के नेता होने के साथ-साथ उनसे वरिष्ठ भी हैं, तो नेता प्रतिपक्ष ने उन्हें, भाजपा और देश को याद दिलाया कि सदन के मुखिया वे हैं।

संवैधानिक पदों पर आसीन उन सभी लोगों, वे चाहे न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, चुनाव आयोग अथवा सैन्य बलों की कमान संभाल रहा कोई भी व्यक्ति हो, ने पिछले दस वर्षों के दौरान अपने पद और संविधान की शपथ के साथ जिस स्तर पर समझौता किया है, उसने भारतीय लोकतंत्र और संविधान को अपूरणीय क्षति पहुंचाने का काम किया है। राहुल गांधी और विपक्ष यदि इसी तरह हर कदम पर आगे बढ़कर इसी तरह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आता है तो विपक्ष में रहते हुए भी वह इस बार वो सब नहीं होने देगा, जिसे हम एक दशक से भुगत रहे हैं।

अपने लंबे भाषण में राहुल ने किसानों के आंदोलन को मोदी सरकार के द्वारा देशद्रोही बताये जाने को भी निशाना बनाया, जिसपर सत्तापक्ष की ओर से जब आपत्ति दर्ज की गई तो उन्हें याद दिला दिया कि किस प्रकार 700 से ज्यादा किसानों की आंदोलन के दौरान मौत हो जाने पर भी इसी संसद ने विपक्ष के दो मिनट के मौन को अस्वीकार कर दिया था। अग्निवीर के मसले पर भी सता पक्ष की ओर से टोकाटोकी होती रही, और बताया गया कि राहुल गांधी मुआवजे को लेकर सदन को गुमराह कर रहे हैं। भाजपा के हिंदुत्व को कटघरे में खड़े करने को हिंदू समाज को निशाने पर लेने और अग्निवीर के मुद्दे पर भाजपा मुद्दा बनाने जा रही है।

यहां पर चीजें दोनों दिशा में जा सकती हैं। पहला, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे ने भाजपा/संघ पर सीधा हमला करके कांग्रेस की मंशा को साफ़ कर दिया है, कि वह कैसा भारत बनते देखना चाहती है। इस ताबड़तोड़ हमले से सत्ता पक्ष को भी सदन के भीतर विपक्षी ताकत का अहसास हुआ होगा, और बाकी दलों और उनके नेताओं को देश के शेष ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने और आड़े हाथों लेने का मौका मिलेगा। इसे महुआ मोइत्रा और आज समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और टीएमसी के कल्याण बनर्जी के ओजस्वी भाषणों में देखा जा सकता है। इसे विपक्ष की एक सामूहिक गोलबंदी के तौर पर भी देखा जा सकता है, जिसमें नेता प्रतिपक्ष सरकार की आँख में आँख डालकर सवाल करेगा, जिसके चलते शेष विपक्ष जरुरी तात्कालिक महत्व के मुद्दों पर सरकार और देश का ध्यान आकर्षित करने का काम करेंगे। यह रणनीति जेडीयू और टीडीपी जैसे दलों और उनके समर्थन आधार के बीच भी अंतर्विरोध को तीखा करने के काम आ सकता है, जो फिलहाल अपने-अपने राज्य के लिए एनडीए सरकार की बैसाखी बने हुए हैं।

लेकिन इस अप्रत्याशित हमले को भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व एक अवसर के तौर पर भी भुना सकता है। हम सभी देख रहे हैं कि किस प्रकार मोदी शासन की निरंकुशता की मार न सिर्फ देश, संवैधानिक संस्थाओं और विपक्ष पर पड़ी बल्कि स्वंय भाजपा और कुछ हद तक आरएसएस भी इसकी चपेट में आ चुके थे। किस प्रकार 2014 में 282 के बाद 2019 में 303 सीट के बाद मोदी-शाह की जोड़ी ने समूचे पार्टी संगठन को ताक पर रखकर सिर्फ अपनी सत्ता को मजबूत करने और कॉर्पोरेट लॉबी की अबाध लूट को बढ़ाने के सारे रास्ते खोल दिए थे।

आरएसएस ये सभी चीजें हाशिये पर खड़ा होकर देख रहा था, हालांकि उसके हिस्से में भी यश-अपयश और भौतिक सुख तो मिल ही रहा था, लेकिन संघ को अच्छे से मालूम है कि जल्द ही वह समय आने वाला है जब आम अवाम का धैर्य श्रीलंका जैसे देशों की पूरी तरह जवाब दे सकता है। उस अवस्था में व्यक्ति तो विलीन हो ही जाता है, लेकिन 100 वर्ष से संजोकर निर्मित किया उसका ढांचा यदि संकट में आ गया तो फिर वह दोबारा कभी भी इस मुकाम को हासिल न कर पाए। यही वजह है कि चुनाव परिणाम आने के बाद से संघ और भाजपा के भीतर विरोध के सुर एक के बाद एक उठने शुरू हो चुके थे।

राहुल गाँधी के हमले के बाद, यदि नरेंद्र मोदी भाजपा/आरएसएस को यह समझाने में सफल रहते हैं कि ये हमले आगे उत्तरोत्तर बढ़ेंगे और हमें एक दूसरे में मीन-मेख निकालने के बजाय एकजुट रहने की जरूरत है और एक बार फिर जमीनी स्तर पर हिंदू खतरे में आ सकता है, का चीत्कार मचाते रहना है, तो यह रणनीति विपक्ष की मंशा पर पानी फेर सकती है। ऐसा होगा या नहीं, यह ठीक-ठीक अभी से नहीं कहा जा सकता।

क्या विपक्ष अगले छह महीने में जमीनी स्तर पर महंगाई, बेरोजगारी, जातिगत आरक्षण, पेपर लीक, बढ़ती गैर-बराबरी, इन्फ्रास्ट्रक्चर में हर तरफ लूट और भ्रष्टाचार की खुलती कलई और किसानों-मजदूरों-असंगठित श्रमिकों के मुद्दों को उठाने जा रहा है? यदि 2024 लोकसभा चुनाव अभियान के अपने अधूरे एजेंडे को आगे भी जारी रखता है तो बहुत संभव है कि राहुल और खड़गे ने भाजपा के जिस राजनीतिक हिंदुत्व को अपने संसदीय भाषण में लक्षित किया है, उसे आम अवाम भी बखूबी समझेगी।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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