Saturday, April 27, 2024

हल्द्वानी से बेदखल करने के उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश पर सुप्रीम रोक; 7 दिन में 50,000 लोगों को बेदखल नहीं कर सकते

सुप्रीम कोर्ट ने हल्द्वानी में सात दिन में लोगों को हटाने के उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश पर आपत्ति जताते हुए कहा, 7 दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को हल्द्वानी में रेलवे की जमीन से बेदखल करने के उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट के आदेश पर अधिकारियों ने 4000 से अधिक परिवारों को बेदखली नोटिस जारी किया था। वहां रह रहे लोगों का दावा है कि वे वर्षों से इस क्षेत्र में रह रहे हैं। उनके पास सरकारी अधिकारियों द्वारा मान्यता प्राप्त वैध दस्तावेज भी है।

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ ने 20 दिसंबर, 2022 को उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा पारित फैसले के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिकाओं के एक बैच में उत्तराखंड राज्य और रेलवे को नोटिस जारी करते हुए यह आदेश पारित किया। अदालत ने मामले को 7 फरवरी, 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया, जिसमें राज्य और रेलवे को “व्यावहारिक समाधान” खोजने के लिए कहा।

पीठ विशेष रूप से इस तथ्य से चिंतित थी कि कई कब्जेदार दशकों से पट्टे और नीलामी खरीद के आधार पर अधिकारों का दावा करते हुए वहां रह रहे हैं। जस्टिस एसके कौल ने पूछा, “मुद्दे के दो पहलू हैं। एक, वे पट्टों का दावा करते हैं। दूसरा, वे कहते हैं कि लोग 1947 के बाद चले गए और जमीनों की नीलामी की गई। लोग इतने सालों तक वहां रहे। उन्हें पुनर्वास दिया जाना चाहिए। सात दिन में इतने लोगों को कैसे हटाया जा सकता हैं? जस्टिस ओका ने कहा, “लोग कहते हैं कि वे वहां पचास साल से हैं।”

जस्टिस कौल ने कहा, “आप उन लोगों के परिदृश्य से कैसे निपटेंगे जिन्होंने नीलामी में जमीन खरीदी है। आप जमीन का अधिग्रहण कर सकते हैं और उसका उपयोग कर सकते हैं। लोग वहां 50-60 वर्षों से रह रहे हैं, कुछ पुनर्वास योजना होनी चाहिए, भले ही यह रेलवे की जमीन हो। इसमें एक मानवीय पहलू है।” जस्टिस ओका ने कहा कि उच्च न्यायालय ने प्रभावित पक्षों को सुने बिना आदेश पारित किया है। उन्होंने कहा, “कोई समाधान निकालें। यह एक मानवीय मुद्दा है। पीठ ने कहा कि मानवीय मुद्दा कब्जे की लंबी अवधि से उत्पन्न होता है। हो सकता है कि उन सभी को एक ही ब्रश से चित्रित नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि विभिन्न श्रेणियां हों। लेकिन व्यक्तिगत मामलों की जांच करनी होगी। किसी को दस्तावेजों को सत्यापित करना होगा।

जस्टिस ओका ने उच्च न्यायालय के निर्देशों पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यह कहना सही नहीं होगा कि वहां दशकों से रह रहे लोगों को हटाने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात करना होगा।

सुनवाई के दौरान पीठ ने पूछा कि क्या सरकारी जमीन और रेलवे की जमीन के बीच सीमांकन हुआ है। पीठ ने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि सार्वजनिक परिसर अधिनियम के तहत कार्यवाही लंबित है।

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि राज्य और रेलवे का कहना है कि भूमि रेलवे की है। यह भी प्रस्तुत किया कि सार्वजनिक परिसर अधिनियम के तहत बेदखली के कई आदेश पारित किए गए हैं।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि वे कोविड की अवधि के दौरान पारित एकतरफा आदेश था। एएसजी ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता अपनी खुद की जमीन का दावा कर रहे हैं और उन्होंने पुनर्वास की मांग नहीं की है। कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट डॉ. कॉलिन गोंसाल्विस ने कहा कि भूमि का कब्जा याचिकाकर्ताओं के पास आजादी से पहले से है और उनके पास सरकारी पट्टे हैं जो उनके पक्ष में निष्पादित किए गए थे।

सीनियर एडवोकेट सिद्धार्थ लूथरा ने यह भी कहा कि कई याचिकाकर्ताओं ने उनके पक्ष में सरकारी पट्टों को निष्पादित किया था। सीनियर एडवोकेट सलमान खुर्शीद ने कहा कि कई संपत्तियां “नजूल” भूमि में थीं। इन प्रस्तुतियों पर ध्यान देते हुए जस्टिस कौल ने राज्य से कहा, “उत्तराखंड राज्य को एक व्यावहारिक समाधान खोजना होगा।

एएसजी ने कहा कि रेलवे सुविधाओं के विकास के लिए जमीन जरूरी है। उन्होंने इस तथ्य पर जोर दिया कि हल्द्वानी उत्तराखंड रेल यातायात के लिए प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है।

सुनवाई के बाद, पीठ ने आदेश में कहा कि हमने पार्टियों के वकील को सुना है। एएसजी ने रेलवे की आवश्यकता पर जोर दिया है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या पूरी जमीन रेलवे की है या क्या राज्य सरकार जमीन के एक हिस्से का दावा कर रही है। इसके अलावा उसमें से, पट्टेदार या नीलामी खरीदार के रूप में भूमि पर अधिकार का दावा करने वाले कब्जाधारियों के मुद्दे हैं। हम आदेश पारित करने के रास्ते पर हैं क्योंकि 7 दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है। एक व्यावहारिक व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें पुनर्वास शामिल है।

याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता गरीब लोग हैं जो 70 से अधिक वर्षों से हल्द्वानी जिले के मोहल्ला नई बस्ती के वैध निवासी हैं। याचिकाकर्ता के अनुसार, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 4000 से अधिक घरों में रहने वाले 20,000 से अधिक लोगों को इस तथ्य के बावजूद बेदखल करने का आदेश दिया कि निवासियों के टाइटल के संबंध में कार्यवाही जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित है। याचिका में कहा गया है कि स्थानीय निवासियों के नाम नगर निगम के हाउस टैक्स रजिस्टर के रिकॉर्ड में दर्ज हैं और वे वर्षों से नियमित रूप से हाउस टैक्स का भुगतान करते आ रहे हैं। इसके अलावा, क्षेत्र में 5 सरकारी स्कूल, एक अस्पताल और दो ओवरहेड पानी के टैंक हैं। आगे कहा गया है कि याचिकाकर्ताओं और उनके पूर्वजों का लंबे समय से भौतिक रूप से कब्जा है, कुछ भारतीय स्वतंत्रता की तारीख से भी पहले, को राज्य और इसकी एजेंसियों द्वारा मान्यता दी गई है और उन्हें गैस और पानी के कनेक्शन और यहां तक कि आधार कार्ड नंबर भी दिए गए हैं।

याचिका में यह भी कहा गया है कि उत्तराखंड राज्य को याचिकाकर्ताओं को टाइटल से वंचित करने से रोक दिया गया था क्योंकि राज्य ने पहले 2016 में रेलवे भूमि में अतिक्रमण हटाने के लिए उस वर्ष हाईकोर्ट द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की थी।

दरअसल 20 दिसम्बर 2022 के उत्तराखण्ड हाईकोर्ट नैनीताल के दो जजों की खंडपीठ द्वारा दिया गये निर्णय में कहा गया है कि हम लम्बे विचार विमर्श के बाद अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा के निवासियों व अनुबन्ध कर्ताओं का, जिस भूमि पर वह रह रहे हैं, कानूनी अधिकार नहीं बनता है. इसको बलपूर्वक खाली कराया जाना चाहिए. कोर्ट के इस आदेश को अंजाम देने के लिए सचिव सहित पुलिस प्रशासन, जिलाधिकारी और उनके अधीनस्थों के साथ ही रेलवे के अधिकारियों को निर्देश दिया जाता है और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा जाता है कि कोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए तत्काल रेलवे की अनाधिकृत कब्जे वाली जमीन को खाली कराया जाय।

निर्णय को लागू करने के लिए स्थानीय पुलिस बल साथ ही रेलवे सुरक्षा बल का उपयोग किया जाय और यदि जनता की ओर से इस निर्णय को लागू करने पर किसी प्रकार का प्रतिरोध आता है तो आवश्यकतानुसार पैरा मिल्ट्री फोर्स को भी लगाया जा सकता है। इसके लिए नियमानुसार करवाई की जाय।

फैसले में कहा गया है कि हल्द्वानी नगर क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा 1816 में सिगौली संधि के दौरान नेपाली शासकों को दो लाख रुपये अदा करके अपने शासन में मिला लिया था। 1834 में श्रीमान ट्रेल ने हल्द्वानी खास को कंपनी की प्रभुसत्ता के रूप में उचित इस्तेमाल करने के लिए भाबर क्षेत्र में दूरस्थ पहाड़ के निवासियों को हल्दानी लाकर बसाया। उन्हें ज़मीनों का हक दिया गया ताकि वे इस उपजाऊ भूमि को उपयोगी बना सकें।

अंग्रेज़ इतिहासकार एंटिकसन द्वारा लिखे हिमालयन गजेटियर में यह उल्लेख मिलता है कि हल्द्वानी खास का स्वामित्व 1834 से 1896 तक मि. थामस गान के पास था। उसके बाद 1869 में मी. गान ने सदाचार और भलमनसाहत में इस क्षेत्र के दस्तावेज़ पिथौरागढ़ जिले के व्यापारी दान सिंह बिष्ट को प्रदान कर दिए। इस दिन से यह इलाका दान सिंह बिष्ट की संम्पत्ति माना गया। यहाँ पर मुख्य बिन्दु यह है कि 1896 के बाद दान सिंह बिष्ट के पास जो भूमि थी वह नजूल की थी और कानून के अनुसार इसके हस्तान्तरण का अधिकार नहीं बनता। हल्द्वानी नगर निगम के अधिकारिक दस्तावेजों तथा अन्य कागजों के अनुसार हल्द्वानी खास की ज़मीन नजूल भूमि मानी गई है। ऐसे में रेलवे का इस भूमि पर अधिकार जताना कानूनन सही नहीं दिखता।

मई 1907 के स्थानीय प्रशासन के मुख्य दस्तावेजों में यह दर्ज है कि हल्द्वानी खास की जमीन को नजूल भूमि माना जायेगा। इसमें यह कहा गया है कि 16 अप्रैल 1907 में लेफ्टटिनेन्ट गर्वनर यह घोषित करता है कि ‘‘हल्द्वानी नोटिफाईड एरिया कमेटी का पूरा हल्द्वानी खास मौजा हल्द्वानी जिसमें कृषि भूमि भी शामिल है नजूल सम्पत्ति के रूप में माना जायेगा।”

इस पत्र के अनुसार न तो यह भूमि बेची जा सकती है और न ही इसका स्थायी पट्टा माने जाने की इजाजत है। 16 अप्रैल 1907 को अँगरेज़ राज में इस क्षेत्र के उपसचिव ने यह आदेश पारित किया है। ‘‘गर्वमैन्ट आर्डर आफिस मैमो न. 178/1-10-1907 दिनांक 17 मई 1907 में म्यूनिसिपल डिर्पाटमैन्ट बोर्ड ने कमीश्नर को भेजा है, जिसके तीसरे बिंदु से स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण मौजा हल्द्वानी खास की जमीन नजूल भूमि है, जिसका एक हिस्सा कृषि उपयोग का है। यह स्थानीय नियमों के अनुसार संचालित होगी और इसको नजूल संम्पति माना जायेगा। किन्तु रेलवे का इस भूमि पर अनावश्यक कब्ज़ा दिखाकर यहाँ के लोगों को बेदखल करने की योजना बनाई जा चुकी है। क्या यह बात किसी से छिपी है कि कई रेलवे स्टेशन पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए निजीकरण की भेंट चढ़ रहे हैं।”

सर्वोदयी कार्यकर्ता इस्लाम हुसैन से जानकारी मिली कि “इस मुद्दे को विवादित बनाने के लिए 2007 में एक अफसर द्वारा न्यायालय में याचिका डलवा दी गई थी, जिसमें दूसरे पक्ष को सुने बिना रेलवे स्टेशन के पास की बस्ती को हटा दिया गया था। 2013 में गौलापुल गलत डिज़ाइन के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था । लेकिन मिडिया में यह परसेप्शन बनाया गया कि यहाँ रहने वालों के अवैध खनन के कारण यह ढहा और रेलवे बस्ती को हटाने की मांग की जाने लगी। यहाँ रहने वालों के प्रति यह धारणा बनाई गई कि यह लोग बाहरी हैं । जबकि सच्चाई यह है कि यह ब्रिटिश कालीन बस्तियां हैं, यहाँ रहने वालों के पास 80 साल पुराने रिकॉर्ड हैं। सरकार ने पट्टे दिए हैं।

पहले यह दावा किया गया कि 29 एकड़ ज़मीन रेलवे की है और अब कहा जा रहा है की 78 एकड़ ज़मीन रेलवे की है। रेलवे विभाग स्वतंत्र नहीं है बल्कि भारत सरकार के अधीन ही आता है।

यहाँ सिंचाई विभाग, बिजली विभाग के बिल आते हैं। स्वास्थ्य व शिक्षा विभाग खामोशी बनाये रखा, जबकि प्राथमिक अस्पताल और स्कूलों की पर्याप्त संख्या है। यहाँ पर. पी. डब्लू. डी की सड़कें हैं, सिंचाई विभाग की नहरें हैं। इस इलाके में मौजूद बालिका और एक बालकों के सरकारी इन्टर कालेज हैं। यहाँ पर माध्यमिक व प्राइमरी मिलकर करीब पांच-छह स्कूल हैं। इस जगह पर आधा दर्ज़न से अधिक प्राइवेट स्कूल हैं, तीन मंदिर हैं, 11 छोटी बड़ी मस्जिदें हैं। सभी हल्द्वानी नगर निगम के अधीन हैं। पीडब्ल्यूडी की सड़कें बनी हुई हैं, स्वास्थ्य केन्द्र है। पानी की टंकी है, यहां के लोग नगरपालिका को टैक्स देते हैं। इस मामले को लेकर 2016 में कई परिवार कोर्ट में गये थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने वापस हाईकोर्ट भेज दिया था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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