यूक्रेन युद्ध पर अमेरिका के बदले रुख को साझा पश्चिम (collective west) की पराजय के रूप में देखा गया है, तो यह उचित आकलन ही है। इस बात का पहला सबूत तो यही है कि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने व्लादीमीर पुतिन प्रशासन से वार्ता शुरू करने के पहले रूस की सारी प्रमुख मांगें मान लीं। मसलन, उसने कहा-
- रूस का यूक्रेन के जिन इलाकों पर नियंत्रण हो चुका है, उन्हें लौटाया जाएगा, यह अपेक्षा हकीकत पर आधारित नहीं है।
- ट्रंप प्रशासन यूक्रेन को उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की सदस्यता देने के पक्ष में नहीं है।
- अमेरिकी फौज को लड़ने के लिए यूक्रेन नहीं भेजा जाएगा।
इसके अलावा राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेन्स्की पर निजी हमला भी बोला। उन्हें तानाशाह और अलोकप्रिय नेता बताया और इसके साथ ही एलान किया कि अमेरिका ने पिछले तीन साल में अरबों डॉलर की जो सहायता यूक्रेन को दी है, उसे यूक्रेन को लौटाना होगा। चूंकि यूक्रेन ऐसा करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए उन्होंने यूक्रेन से कहा कि वह अपने यहां के बेशकीमती खनिज भंडार अमेरिका को सौंप दे। शुरुआती ना-नुकुर के बाद आखिरकार जेलेन्स्की अमेरिका से ऐसा समझौता करने के लिए तैयार हो गए। इसका ड्राफ्ट सार्वजनिक हो चुका है। (https://www.ft.com/content/387afd63-9467-413f-84d0-4f52a3a95a34)
इसके अलावा एक और विस्फोटक घटना हुई, जिसके भूकंप जैसे तेज झटके अमेरिका और यूरोप के लिबरल खेमों को लगे हैं। उससे विचलित इन हलकों से कहा गया है कि इसके साथ ही “फ्री वर्ल्ड” से अमेरिका ने अपने को अलग कर लिया है। इसके विपरीत वह विश्व मंच पर ‘पुतिन जैसे तानाशाहों के दोस्त’ के रूप में खड़ा हो गया है।
(https://www.youtube.com/watch?si=VqEIXS0bZNHXAm6U&v=4EZ7gayXMSI&feature=youtu.be)
घटना यह हुई कि पिछले 24 फरवरी को यूक्रेन युद्ध शुरू होने की तीसरी बरसी पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस की निंदा के लिए प्रस्ताव पर अमेरिका ने अपना रुख 180 डिग्री पलट लिया। जो बाइडेन प्रशासन के समय अमेरिका ने ऐसे अनेक प्रस्ताव खुद स्पॉन्सर किए थे। मगर बीते 24 फरवरी को ट्रंप प्रशासन ने ना सिर्फ उस प्रस्ताव पर मतदान से अपने को अलग किया, बल्कि प्रस्ताव के खिलाफ वोट डाला। जबकि भारत और चीन जैसे रूस के दोस्त कहे जाने वाले देशों ने भी अपने निरंतरता रुख के तहत प्रस्ताव पर मतदान से अपने को अलग रखा।
ट्रंप प्रशासन ने रुख में इस बदलाव का कारण यह बताया कि चूंकि अमेरिका रूस के साथ शांति स्थापना के प्रयास में जुटा है, वैसे में रूस की निंदा में शामिल होना अतार्किक होता। उसी दिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनएल मैक्रों के साथ ह्वाइट हाउस में हुई ट्रंप ने एक पत्रकार के सवाल पर पुतिन को तानाशाह कहने से इनकार किया। ट्रंप के ह्वाइट हाउस में प्रवेश के बाद पहले महीने में अमेरिकी रुख में आया यह बदलाव सचमुच अविश्वसनीय-सा है। मगर यह हुआ है, तो दुनिया ये कयास में जुटी है कि
- आखिर इसके पीछे डॉनल्ड ट्रंप का दांव क्या है?
- इससे वे क्या हासिल करना चाहते हैं?
- जाहिरा तौर पर उनका मकसद यूक्रेन युद्ध खत्म कर रूस के साथ शांति कायम करना है। तो क्या उन्होंने जो कदम उठाए हैं, उससे सचमुच शांति कायम होने की सूरत बन गई है?
रुख परिवर्तन के बाद अमेरिका की रूस के साथ पहली वार्ता सऊदी अरब के रियाद में हुई। उसमें रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने अपने-अपने देश के प्रतिनिधिमंडलों का नेतृत्व किया। अमेरिकी दल में ट्रंप प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माइकल वॉल्ट्ज भी शामिल हुए। इस वार्ता में रूसी पक्ष ने जो कहा उस बारे में कुछ छिटपुट सूचनाएं ही बाहर आई हैं। मगर उनसे साफ संकेत मिलता है कि रूस अपनी मजबूत स्थिति को लेकर जागरूक है और वह ट्रंप प्रशासन की शर्तों पर समझौता नहीं करेगा। रूस की शर्तों को वहां के विदेश उप मंत्री सर्गेई रयाबकोव ने अमेरिकी दल के सामने रखा।
- रयाबकोव ने दीर्घकालिक समाधान की मांग की। कहा- अगर दीर्घकालिक समाधान के बिना युद्धविराम किया गया, तो जल्द ही लड़ाई फिर शुरू हो जाएगी। नई लड़ाई के नतीजे और भी ज्यादा गंभीर होंगे, जिनका असर रूस-अमेरिका संबंधों पर भी पड़ेगा।
- रयाबकोव ने कहा कि पूर्वी यूरोप, खासकर यूक्रेन के मामले में अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की विध्वंसक नीतियों के कारण यूक्रेन में लड़ाई होनी ही थी। यानी दीर्घकालिक समाधान का मतलब है इन नीतियों में आमूल परिवर्तन।
- इन नीतियों के तहत उन्होंने रूस की सीमा तक नाटो के विस्तार का जिक्र किया। कहा कि इससे रूस की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सीधा खतरा पैदा हुआ। उन्होंने दोहराया कि नाटो में यूक्रेन को शामिल करने का मुद्दा रूस की ‘लक्ष्मण रेखा’ है, जिसका उल्लंघन उसे मंजूर नहीं है।
- इसके अतिरिक्त उन्होंने उल्लेख किया कि 2014 में यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के तख्ता पलट में अपनी भूमिका को पश्चिम ने स्वीकार नहीं किया है। रूस की मान्यता है कि यह तख्ता पलट गैर-कानूनी था, जिसे यूक्रेन में कठपुतली सरकार थोपने के लिए पश्चिम की मदद से अंजाम दिया गया।
- रूस मानता है कि तख्ता पलट के बाद हुए मिन्स्क समझौते का यूक्रेन सरकार ने पश्चिम के समर्थन से लगातार उल्लंघन किया। इस समझौते के तहत दोनबास इलाके को स्वायत्तता देने और यूक्रेन की सीमा के अंदर वहां राजनीतिक समाधान लागू करने की बात थी।
- मिन्स्क समझौता लागू ना होने के कारण दोनबास इलाके में रूसी भाषी लोगों के साथ भेदभाव और अत्याचार जारी रहे। रूसी भाषा और रूसी संस्कृति का दमन करने के कदम वहां उठाए गए। इसके वहां विद्रोह हुआ और रूस को हस्तक्षेप करना पड़ा।
- रयाबकोव ने कहा कि इन बुनियादी कारणों को दूर किए बिना दीर्घकालिक समाधान तक पहुंचना असंभव बना रहेगा।
- स्पष्टतः उन्होंने अमेरिकी दल को यह बताया है कि ट्रंप प्रशासन ने अब तक जो प्रस्ताव रखे हैं, उनमें रूस की मुख्य सुरक्षा चिंताओं का ख्याल नहीं किया गया है।
- रयाबकोव ने कहा कि रूस लड़ाई को रोकना भर नहीं चाहता, बल्कि दीर्घकालिक समाधान चाहता है, ताकि उस पूरे इलाके में स्थिरता की गारंटी हो। इसी सिलसिले में उन्होंने कहा- युद्धविराम समाधान नहीं है। यह सिर्फ एक अस्थायी कदम है, जिससे लड़ाई के बुनियादी कारण दूर नहीं होंगे और शांति सुनिश्चित नहीं हो सकेगी।
स्पष्टतः रूस ने जो रुख बताया है, उसका संदेश यह है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद- खासकर 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से जो ‘विश्व व्यवस्था’ दुनिया में लागू की गई, रूस उसे बदलने के इरादे पर कायम है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि रूसी हितों के प्रतिकूल शर्तों और अमेरिका के एकतरफा फॉर्मूले वह को मंजूर नहीं करेगा।
रूसी सूत्रों ने मीडियाकर्मियों से कहा कि यूक्रेन में अपनी विशेष सैनिक कार्रवाई को रूस महज क्षेत्रीय टकराव नहीं मानता, बल्कि वह उसे दुनिया में शक्ति संतुलन को नया रूप देने की बड़ी परियोजना का हिस्सा समझता है। इसलिए केवल युद्धविराम में उसकी रुचि नहीं है। बल्कि वह जो समाधान चाहता है, उस पर अमेरिका राजी हुआ, तो उसका साफ मतलब यूक्रेन के मोर्चे पर पश्चिम की हार स्वीकार करना होगा। संभवतः इसीलिए रियाद वार्ता के बाद रूस से समझौता होने को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप बहुत आश्वस्त नजर नहीं आए हैं। उनकी टिप्पणियों में अनिश्चय झलका है।
दिसंबर 2021 में रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को पत्र लिख कर कुछ मांगें रखी थीं। वो लगभग वही थीं, जो रियाद रूसी उप विदेश मंत्री ने दोहराई हैं। तीन साल के युद्ध के बाद अब अगर रूस उन शर्तों को मानने के लिए अमेरिका को मजबूर कर देता है, तो उसका सीधा संदेश यही जाएगा कि रूस ने वैश्विक शक्ति संतुलन को बदल दिया है।
डॉनल्ड ट्रंप खुद कह चुके हैं कि यह युद्ध खत्म नहीं हुआ, तो अमेरिका के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। उन्होंने इसकी वजह के बतौर हथियार उत्पादन क्षमता में अमेरिका की कमजोरी का जिक्र किया। हकीकत यह है कि गुजरे तीन साल में रूस ने गोला-बारूद से लेकर आधुनिक हथियारों तक के उत्पादन का नया ढांचा रूस ने खड़ा कर दिया है। इसके जरिए उसने वॉर इकॉनमी बनाई है, जिस वजह से तमाम पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद उसकी अर्थव्यवस्था में ग्रोथ का नया दौर आया हुआ दिखा है।
(https://thenextrecession.wordpress.com/2025/02/24/russia-ukraine-war-three-years-on/)
बेशक, इसमें चीन और भारत जैसे देशों से उसे बड़ा सहयोग मिला, जिन्होंने पश्चिमी प्रतिबंधों को नजरअंदाज करते हुए रूस से ना सिर्फ आर्थिक संबंध जारी रखे, बल्कि इन संबंधों में तीव्र गति से वृद्धि भी हुई। चीन से रूस को तकनीक और उपभोक्ता वस्तुएं भी प्राप्त होती रही हैं, जिनकी वजह से पश्चिमी कंपनियों के रूस से जाने का लगभग कोई असर रूस पर नहीं हुआ है।
यह जो नई परिस्थिति बनी है, उसे देखते हुए ये अनुमान लगाने का आधार बनता है कि अगर ट्रंप ने साझा पश्चिम की धारणा को ध्वस्त करते हुए रूस से तार जोड़ने की कोशिश रूस और चीन में दरार डालने के मकसद से की है, तो उसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिलेगी। यह चर्चा खूब रही है कि जिस तरह हेनरी किसिंजर की ‘सूझबूझ’ ने 1970 के दशक में चीन को तत्कालीन सोवियत संघ से अलग कर सोवियत संघ के पराजय की जमीन तैयार की थी, ट्रंप काल में अमेरिका रूस को चीन से अलग कर चीन को पराजित करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहा है।
गौरतलब है कि किसिंजर की पहल के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने जब चीन की बहुचर्चित यात्रा की, उसके पहले ही चीन और सोवियत संघ के संबंध इतने कड़वे हो चुके थे कि सीमा पर दोनों की सेनाओं के बीच फायरिंग तक की नौबत आ चुकी थी। फिलहाल, चीन और रूस में ‘असीमित दोस्ती’ का दौर है। फिर तब अमेरिका निर्विवाद रूप से दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक एवं सैनिक महाशक्ति था। अब वह गिरावट के दौर में है। तो कुल मिला कर इस बार इतिहास की धारा विपरीत दिशा में है।
इस बीच संभव यह है कि चीन और रूस की अगुआई में बन रहे नए भू-राजनीतिक ढांचे को रोकने के बजाय ट्रंप का दांव इसके निर्माण की गति को और तेज कर दे। वैसे भी जिस समय सोवियत संघ के विरुद्ध चीन ने अपने तार अमेरिकी खेमे से जोड़े थे, तब सोवियत संघ अंदरूनी तौर पर आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं से ग्रस्त हो रहा था। फिलहाल, चीन सारी दुनिया को चकित करते हुए विकास एवं सशक्त होने की यात्रा में नए मुकाम तय कर रहा है। इसके लिए उसकी रूस पर न्यूनतम निर्भरता ही है।
इसीलिए निरस्त्रीकरण के संबंध में ट्रंप के सुझाव पर राष्ट्रपति पुतिन की टिप्पणी को चीन तुरंत ठुकरा दिया। ट्रंप ने कहा था कि अमेरिका, रूस और चीन तीनों को अपना रक्षा खर्च आधा कर देना चाहिए। पुतिन ने इस प्रस्ताव का स्वागत किया। कहा कि अमेरिका और रूस इसकी शुरुआत कर सकते हैं और चीन बाद में इसमें शामिल हो सकता है। इस पर चीन ने दो टूक कहा कि वह अपनी सुरक्षा जरूरतों की व्याख्या खुद करता है और इस मामले में वह किसी ऐसे सुझाव पर विचार करने को तैयार नहीं है।
(https://x.com/globaltimesnews/status/1894384207935541386)
संदेश साफ है। यूक्रेन युद्ध खत्म हो, चीन इसके पक्ष में है। मगर यह पश्चिमी वर्चस्व से मुक्त नई विश्व व्यवस्था के निर्माण की आगे बढ़ चुकी प्रक्रिया की कीमत पर हो, यह चीन को मंजूर नहीं होगा। संभावना तो यह है कि यह रूस को भी मंजूर नहीं होगा। रयाबकोव का बयान का अर्थ भी यही था।
अमेरिकी रक्षा दस्तावेजों में चीन को revisionist शक्ति बताया गया है। इस शब्द की व्याख्या इस रूप में की जाती है कि वह ताकत जो चले आ रहे ढांचे में परिवर्तन की क्षमता के साथ-साथ इसकी इच्छाशक्ति भी रखता हो। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से इसी सिलसिले में कई अमेरिकी विशेषज्ञों ने यह जुमला चलाया कि रूस “मौसम में बदलाव” है, जबकि चीन “जलवायु परिवर्तन” है।
ऐसा लगता है कि ट्रंप प्रशासन के रणनीतिकार इसी समझ से प्रेरित हैं। उन्होंने “बदले मौसम” को बेअसर करने की योजना बनाई है, ताकि “जलवायु परिवर्तन” का वे मुकाबला कर सकें। मगर विज्ञान यह बताता है कि मौसम और जलवायु अंतर्संबंधित पहलू होते हैं। इसलिए ‘मौसम’ और ‘जलवायु’ को अलग करने की रणनीति ठोस समझ पर आधारित नहीं हो सकती।
अभी स्थितियां अनिश्चित, अस्थिर और अस्पष्ट हैं। इसके बावजूद फिलहाल कुल समझ यही बनती है कि ट्रंप का रूस कार्ड अपने मकसद में कामयाब होगा- इसकी संभावना कम है। उलटे यह जोखिम अधिक है कि इससे अमेरिकी वर्चस्व एवं प्रभाव में आई गिरावट स्थायी हो जाए। आखिर यह कार्ड खेलने के क्रम में ट्रंप ने अमेरिका के परंपरागत सहयोगियों और संबंधों को दांव पर लगा दिया है। आज दुनिया में अमेरिका अकेला खड़ा दिख रहा है। revisionist शक्ति और उसके सहयोगी देशों के लिए इससे ज्यादा अनुकूल सूरत और क्या हो सकती है!
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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