पिछले कुछ समय से उत्तराखंड राज्य भाजपा के लिए आदर्श प्रयोगशाला के तौर पर उभरा है। लगातार दूसरी बार भाजपा को राज्य में जीत हासिल हुई, हालाँकि इसके लिए उसे 3-3 मुख्यमंत्रियों को बदल-बदलकर आजमाना पड़ा। तीसरी बार यह ज़िम्मेदारी मिली, मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को, जो अपनी सीट ही हार गये थे। लेकिन जाको राखे दिल्ली दरबार, मार सके ना कोय को चरितार्थ करते हुए उत्तराखंड में पिछले 3 साल से धामी सरकार चल रही है। केंद्र के इशारे पर इसी तरह एजेंडा जारी रखते हैं, तो इन्हीं की पौ बारह रहने वाली है।
फरवरी 2022 में लगातार दूसरी बार जीत हासिल करने के बाद, शुरुआत में कुछ समय तक धामी सरकार को आम लोगों की भारी नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इसमें सरकारी नौकरियों में धांधली, अंकिता भंडारी रेप और मर्डर केस और राज्य में भू-कानून की मांग को लेकर लंबे समय तक उत्तराखंड के आम लोग, विशेषकर युवा वर्ग सड़कों पर था।
ऐसा जान पड़ रहा था कि यदि चुनाव से पूर्व यह स्थिति होती तो बीजेपी की हार निश्चित थी। लेकिन धामी सरकार ने जैसे-तैसे मामलों को शांत होने दिया, और पूरे धैर्य के साथ काम लिया। समय बदलता है, मुद्दे भी बदलते हैं। पहले मुस्लिम समुदाय से जुड़ी मजारों के मुद्दे को हवा दी गई, और अफवाह उड़ाई गई कि मुस्लिमों के द्वारा यह उत्तराखंड पर कब्जे की साजिश है।
उत्तरकाशी के पुरोला जैसे छोटे से कस्बे में रातोंरात उन्माद की स्थिति पैदा होने दी, और हल्द्वानी के वनभूलपुरा इलाके में नैनीताल उच्च न्यायालय की आड़ लेकर अचानक बड़ी तोड़फोड़ की कार्रवाई के विरोध में जब मुस्लिम समुदाय की ओर से पत्थरबाजी की गई तो धामी सरकार की जैसे लाटरी लग गई। नतीजा, बड़े पैमाने पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ राजकीय हिंसा और विवादास्पद ढांचे को बुलडोज कर दिया गया। इसके बाद से पुष्कर सिंह धामी भी भाजपा के श्रेष्ठ हिन्दुत्वादी नेताओं की शुमार में शामिल हो चुके हैं।
अब सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार, अंकिता भंडारी के लिए न्याय और भू-कानून या गैरसैण राजधानी जैसे मुद्दे हवा में गायब हो चुके हैं। उल्टा, उत्तराखंड देश का ऐसा पहला राज्य बन चुका है जहां समान नागरिक संहिता कानून लागू किया जा चुका है। लिव इन रिलेशनशिप जैसे सामजिक मुद्दे पर सरकारी पहरेदारी के माध्यम से अब राज्य के युवाओं को बीजेपी सरकार की रजामंदी हर हाल में चाहिए।
आज हालात इस कदर बदहाल हो चुके हैं कि सीएजी की रिपोर्ट तक पर कोई सवाल उठाने वाला नहीं बचा। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट बता रही है कि उत्तराखंड में जिस मद को वनों की रक्षा और रोपण के लिए आवंटित किया गया था, उसका इस्तेमाल उत्तराखंड सरकार और प्रशासन ने आईफोन, लैपटॉप, रेफ्रिजरेटर और कानूनी फीस जैसे अनधिकृत खर्चों में फूंक डाला है। बजट सत्र के दौरान पेश की गई यह रिपोर्ट खुलासा कर रही है कि 2019-2022 की अवधि के लिए प्रतिपूरक वनरोपण निधि प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) के 13। 86 करोड़ रुपये का दुरूपयोग किया गया।
सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक इस धनराशि का दुरुपयोग मुख्यतया बाघ सफारी परियोजनाओं, कानूनी शुल्क, निजी यात्राओं के साथ-साथ आईफोन, लैपटॉप, रेफ्रिजरेटर और कार्यालय सामग्री की खरीद के लिए किया गया था। इसमें सबसे ज्यादा दुरूपयोग के मामले लैंसडाउन एससी, कॉर्बेट टाइगर, देहरादून, राजाजी, तराई क्षेत्र और पौड़ी रिजर्व के इलाके आते हैं।
धामी सरकार का नया भू-कानून एक और मजाक
बजट सत्र में सरकार की ओर से नया भू कानून पेश किया गया है, जिसका लक्ष्य 2022 से आक्रोशित समाज के कुछ हिस्सों को शांत करना है। दावा किया जा रहा है कि इस कानून के अमल में आ जाने के बाद राज्य के बाहरी लोगों के लिए उत्तराखंड में भूस्वामी बनना संभव नहीं रहने वाला है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसकी यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि कश्मीर में तो धारा 370 हटाकर सबके लिए प्लाट खरीदने के लिए उकसाया जाता है, लेकिन भाजपा अपने प्रदेश में ऐसा प्रतिगामी कदम उठा रही है।
लेकिन वे इस तथ्य को नहीं जानते कि भाजपा सरकार ने ही अपने पिछले कार्यकाल में इस रोक को हटाकर उत्तराखंड में लगभग सभी प्रमुख स्थानों पर बिग कॉर्पोरेट और भू-माफियाओं के लिए बड़ी मात्रा में खरीद के द्वार खोल दिए थे। प्रस्तावित कानून में भी यह नियम नगर निकाय की सीमा के भीतर लागू नहीं होगा और साथ ही हरिद्वार और उधम सिंह नगर को तो इस कानून की सीमा से अलग रखा गया है।
इस कानून से तो बस यह होगा कि भाजपा दो साल बाद राज्य विधानसभा चुनाव में यह कहने लायक हो जायेगी कि उसने भू कानून में आवश्यक संशोधन कर राज्य के हितों की रक्षा करने की पूरी-पूरी कोशिश की है। इस आंदोलन की हवा तो सरकार और भाजपा पहले ही अपने हिंदुत्ववादी अभियान के माध्यम से निकाल चुकी है।
पहाड़ी अस्मिता बनाम कैबिनेट मंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल की बदजुबानी
बजट सत्र के दौरान लंबे अर्से बाद विपक्ष तब मुखर दिखा, जब द्वाराहाट से कांग्रेस विधायक मदन सिंह बिष्ट और कैबनेट मंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल के बीच तीखी बहस हाथापाई की स्थिति तक पहुंच गई। सदन के भीतर प्रेमचंद अग्रवाल की पहाड़ियों को लेकर टिप्पणी से कांग्रेस आंदोलित है, और वह इसे बीजेपी की असली मानसिकता बता रही है। यह मामला सोशल मीडिया में भी छाया हुआ है, जिसे देखते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी स्वीकार किया है कि उन्होंने प्रेमचंद को स्पष्टीकरण देने के लिए कहा था। सदन में मंत्री जी सफाई दे रहे हैं कि उन्होंने उत्तराखंडियों को लेकर कोई अभद्र टिप्पणी नहीं की, और उन्होंने भी उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन में हिस्सा लिया था।
सदन के भीतर विधानसभाध्यक्ष रितु खंडूरी, (पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी की बेटी) का इस मामले में रवैया भी चर्चा का विषय बना हुआ है। नेता प्रतिपक्ष की टिप्पणी विधानसभाध्यक्ष को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि सदन में राजनीतिक बयानबाजी करने की इजाजत नहीं दूंगी। कांग्रेस नेता ने विरोधस्वरुप सदन का बहिष्कार करना बेहतर समझा। सत्ता का मद, अहंकार और दिल्ली दरबार को खुश रखने की ये हरकतें उत्तराखंड की बर्बादी का पर्याय बनती जा रही हैं।
आंकड़ों के लिहाज से देखें तो उत्तराखंड राज्य देश के कई अन्य राज्यों की तुलना में तेजी से विकसित हो रहा है, लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। उत्तराखंड राज्य की स्थापना के पीछे का जो स्वप्न यहां के आम लोगों ने लगा रखा था, वह पूरी तरह से गुम हो चुका है। उसकी जगह अब राज्य की हिंदू बहुल आबादी कब हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक चश्मे से अपने अश्क को ढूंढना शुरु कर दी, यह सवाल उनसे किया जाए तो वे अचकचा सकती है। यही वह चश्मा है, जिसे पहनाकर उब उसे बुरी तरह से निचोड़ा जा रहा है, लेकिन उसे अब वापस लौटने की राह नहीं सूझती।
ऐसा नहीं है कि यह कहानी सिर्फ उत्तराखंड की ही है, उसके साथ नए राज्य का दर्जा पाए झारखंड और छत्तीसगढ़ की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है। इनके बाद 2014 में बने नए राज्य तेलंगाना की स्थिति इनसे काफी बेहतर है, और निकट भविष्य में उसके देश के टॉप राज्यों की सूची में होने की पूरी संभवना नजर आती है।
उत्तराखंड में यदि बीच-बीच में बेरोजगारी, पहाड़ से लगातार पलायन, भू-माफियाओं का तेजी से राज्य की महत्वपूर्ण भू-संपत्तियों पर कब्जे, अंधाधुंध खनन और सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर आंदोलन भी खड़ा होता है तो कुछ समय बाद यह स्वतः ही दम तोड़ देता है। पहाड़ या तो खाली हो चुके हैं, और यदि कुछ बचा भी है तो अधिकांश तबका वो है, जिसने मैदानी या महानगरों में अभी तक अपना आशियाना नहीं बनाया है।
राज्य बनने से उत्तराखंड में कुछ सरकारी नौकरियां, पुलिस, तहसील इत्यादि जरुर बने हैं, और लोगों को कुछ समय तक नौकरियां भी मिलीं। लेकिन अब इसमें गुंजाइश न के बराबर रह गई है, और अगर कुछ रहती भी है तो पहले से ही जमे-जमाए राजनेताओं-नौकरशाहों के नाते-रिश्तेदारों के लिए ही पूरी नहीं हो पा रही।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड से लेकर देश-विदेश तक टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरा यहां का मूलनिवासी कभी इस बात पर एकराय हो पायेगा कि नया राज्य बनने से आम उत्तराखंड नागरिक उबरा या नेता-भू माफिया-ठेकेदारों के लिए नई लूट की राह बन गई?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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