बंगाल में पंचायत चुनाव हो गया, नतीजों की घोषणा भी कर दी गई। अलबत्ता इन नतीजों का भविष्य इस बाबत हाईकोर्ट में दायर मामले में आने वाले फैसले पर निर्भर करेगा। इस दौरान 61 लोगों की मौत होने के कारण एक बार फिर पूरे देश के सामने पश्चिम बंगाल को शर्मसार होना पड़ा है। यह मसला हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक गया। पर यह सवाल पूछा ही नहीं गया कि पंचायत चुनाव एक चरण में कराने का फैसला क्यों लिया गया।
अगर पंचायत चुनाव कई चरणों में कराए गए होते तो शायद इतने लोगों की मौत नहीं नहीं हुई होती। हालांकि मौत और हत्या का सिलसिला अभी तक जारी है। इस संदर्भ में चुनाव आयुक्त की भूमिका पर गौर करते हैं। राजीव सिन्हा ने आठ जून को चुनाव आयुक्त का कार्य भर संभाला था। इसी दिन राज्य सरकार के साथ सलाह मशवरा के बाद एक चरण में पंचायत चुनाव कराए जाने की अधिसूचना जारी कर दी। इससे पहले सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाने की परंपरा है, पर चुनाव आयुक्त इतनी जल्दी में थे उन्होंने इसे तवज्जो ही नहीं दिया।
अधिसूचना जारी करने के साथ ही चुनावी आचार संहिता भी लागू हो जाती है। प्रशासन और पुलिस चुनाव आयोग के अधीन हो जाता है। इसलिए अब आइए देखते हैं कि एक चरण में चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग के पास फोर्स की क्या व्यवस्था थी। बंगाल में करीब 70 हजार बूथ हैं और करीब 61 हजार मतदान केंद्र हैं। बंगाल के पास 45 हजार पुलिस के जवान है।
यानी एक बूथ पर पुलिस के एक जवान का तैनात किया जाना भी मुमकिन नहीं है। ऐसे में राज्य सरकार ने कई राज्यों से पुलिस फोर्स की मांग की था। राज्य सरकार को सेंट्रल फोर्स से परहेज था। हाईकोर्ट ने सेंट्रल फोर्स के बाबत आदेश दिया तो राज्य सरकार के साथ-साथ राज्य चुनाव आयोग भी सुप्रीम कोर्ट में चला गया। इसके साथ ही चुनाव आयुक्त के चेहरे का नकाब उतर गया। यह साफ हो गया कि चुनाव आयुक्त की मंशा शांत एवं निष्पक्ष चुनाव कराए जाने की नहीं है पर हैरानी की बात तो यह है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किसी भी राजनीतिक दल ने यह सवाल नहीं उठाया की पंचायत चुनाव एक चरण में क्यों कराए जाएंगे।
जबकि 2013 और 2018 के पंचायत चुनाव पांच चरणों में कराए गए थे। ऐसा भी नहीं है कि पंचायत चुनाव कितने चरण में कराए जाएंगे इस पर आदेश देने का न्यायिक अधिकार सुप्रीम कोर्ट को या हाईकोर्ट को नहीं है। यहां याद दिला दे कि 2018 में पंचायत चुनाव कई चरणों में कराए जाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। पंचायत चुनाव को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तरफ से जनहित याचिका दायर की गई थी। तो फिर उन्होंने पंचायत चुनाव कई चरणों में कराए जाने की मांग क्यों नहीं की। तो क्या पंचायत चुनाव इन दलों के लिए 2024 के पहले एक वार्मअप इक्सरसाइज भर था।
पर इस इक्सरसाइज में तो 61 लोग शहीद हो गए। अब पंचायत चुनाव में सेंट्रल फोर्स तैनात किए जाने का तमाशे का जिक्र करते हैं। एडवोकेट और नेता फैसला लेने से पहले होम टास्क पूरा कर लेते हैं। जब हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस प्रत्येक मतदान केंद्र पर सेंट्रल फोर्स के दो और बंगाल पुलिस के दो जवान तैनात किए जाने का आदेश दे रहे थे उस वक्त भाजपा के सीनियर एडवोकेट हाई कोर्ट में मौजूद थे। तब किसी को यह ख्याल नहीं आया कि 2013 में हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस अरुण मिश्रा ने प्रत्येक मतदान केंद्र पर सेंट्रल फोर्स की दो जवानों को तैनात किए जाने का आदेश दिया था। पर इस पर अमल नहीं हो पाया क्योंकि सेंट्रल फोर्स के कानून के अनुसार एक साथ कहीं भी चार जवान से कम तैनात नहीं किए जा सकते हैं।
इस बार भी यही हुआ और सेंट्रल फोर्स की तैनाती एक जुमला भर बनकर रह गया। इस लिए यह सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक दल वाकई सेंट्रल फोर्स के मामले को लेकर संजीदा थे। अब सवाल उठता है कि इन 61 लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार कौन है। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट में इस मामले पर सुनवाई के दौरान एडवोकेट जनरल ने कहा था चुनाव के दौरान प्रशासन और पुलिस चुनाव आयुक्त के अधीन हो जाता है। क्या चुनाव आयुक्त राज्य सरकार के प्रति अपना आभार जताने की वजह से बलि का बकरा बन जाएंगे। ऐसा ही तो नजर आता है। याद रखे कि चीफ जस्टिस के कोर्ट में उनके खिलाफ कंटेंप्ट का मामला चल रहा है।
( जीतेंद्र कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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