(श्रीनगर के लालचौक के सेंट्रल पार्क इलाके में हम लोगों की एक ऐसे शख्स से मुलाकात हुई जिसने इस इलाके में रहते अपनी नजरों से बहुत कुछ देखा है। उसके पास चीजों को लेकर न केवल एक गहरी समझ थी बल्कि उसके विश्लेषण की क्षमता भी अद्भुत थी। हालांकि 70 सालों के संघर्ष ने आम कश्मीरियों को राजनीतिक रुप से बेहद जागरूक बना दिया है। किसी से भी बात करते यह महसूस किया जा सकता है कि वह इतिहास और भूगोल के साथ ही राजनीति और विचारधारा से जुड़ी चीजों की एक बेहतर समझ रखता है। यह सब कुछ देखकर भारत की आजादी की लड़ाई याद आ जाती है। आजादी के बाद की पहली पीढ़ी की सोच-समझ और उसके व्यक्तित्व की जो गहराई और उसका विस्तार था वह समय के साथ दूसरी पीढ़ियों में लगातार कम होता गया। लेकिन कश्मीर के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह अभी भारत की आजादी की लड़ाई के पहले वाले फेज में है। यह शख्स भी कश्मीर में उसी भारतीय पीढ़ी की जेहनियत का प्रतिनिधित्व करता है। बहरहाल उससे हुई बातचीत को अपने शब्दों में मैं यहां रखने की कोशिश करूंगा-संपादक)
लाल चौक की तरफ हम लोग बढ़ रहे थे कि तभी रास्ते में एक अधखुली शॉप में तीन चार लोग बैठे आपस में बात कर रहे थे। हम लोगों ने सोचा थोड़ा इनसे भी चीजों को कुछ जाना-समझा जाए। लिहाजा इजाजत लेकर हम लोग उनके पास बैठ गए। कुछ समय तक छिटपुट अलग-अलग लोगों की राय सुनने के बाद फिर पूरी बातचीत उसी शख्स के साथ केंद्रित हो गयी। बात शुरू करने से पहले उन सज्जन ने कहा कि मैं आपको नहीं जानता। आप रॉ के आदमी हो सकते हैं। सीबीआई के हो सकते हैं। या संघ या फिर किसी दूसरी एजेंसी से जुड़े हो सकते हैं। आप जो भी हों उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है। अब पूछिए आप क्या जानना चाहते हैं। फिर शुरू हो गया सवालों और उनकी तरफ से जवाबों का सिलसिला। कुछ सवाल पूछने और उसका जवाब आने के बाद तो फिर वह बगैर सवाल पूछे बारी-बारी से सारे मसलों पर धारा प्रवाह बोलते रहे।
उन्होंने कहा कि यह 50 दिन पिछले 30 सालों से बिल्कुल अलग है। स्ट्राइक, कर्फ्यू और एनकाउंटर सब कुछ हुआ। लेकिन इसमें कोई एक भी शख्स की मौत नहीं हुई। 54 सालों में यूएन में फाइल नहीं खुली थी लेकिन इन 50 दिनों (उस दिन 50 दिन हुए थे) ने खोल दी। और अब उस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय विचार कर रहा है। एक लाख लोगों के मरने से भी जो बात नहीं हुई वह इन पचास दिनों के स्वत: विरोध ने कर दी। उनका कहना था कि हुर्रियत कांफ्रेंस पहले कैलेंडर देती थी और उसके मुताबिक कश्मीर में विरोध-प्रदर्शन हुआ करते थे। लेकिन यह पहली बार है जब कोई कैलेंडर नहीं आया है। पूरा नेतृत्व जेल की सलाखों के पीछे है। एक तरह से जनता बिल्कुल नेतृत्वविहीन है। बावजूद इसके उसने बंद का फैसला लिया और वह अब तक जारी है।
धारा 370 खत्म करने के बारे में उनका कहना था कि उसका कश्मीरियों को कोई गम नहीं है। कश्मीरियों ने अपनी एक लाख कुर्बानियां धारा 370 हासिल करने के लिए थोड़े ही दी थी। उन्होंने इसको एक दूसरे तरीके से समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि मेरा मकान था आप उसमें किराएदार के तौर पर आए थे और उसकी कुछ शर्तें तय हुई थीं। जिसके तहत विदेश, वित्त और रक्षा तीन महकमे केंद्र के पास रहने थे और बाकी पर राज्य सरकार का अधिकार था। इसके साथ ही हमारी सरकार और उसके संवैधानिक मुखिया पदनाम से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कहलाते थे। लेकिन आप ने उनको पीएम और राष्ट्रपति की कुर्सी से उतार कर सीएम और गवर्नर की कुर्सी पर बैठा दिया। इसके साथ ही लगातार तमाम विभाग छीनते गए और एक प्रक्रिया में अनुच्छेद 370 को बिल्कुल बेमानी बना दिया। और अब उसे खत्म कर आपने खुद ही समझौते की सारी शर्तें तोड़ दीं। यानि आपने किरायेदार बने रहने का हक भी खो दिया। और यह एकतरफा फैसला लेकर आपने खुद ही कर लिया। ऐसे में अब हमारे और आपके बीच क्या रिश्ता बचा? दूसरे शब्दों में कहें तो उस रिश्ते को आपने खुद ही खत्म कर दिया।
उन्होंने बताया कि हां, कश्मीरियों को यह बात पता है कि आने वाले दिनों में जबर्दस्त विकास होगा। मॉल खुलेंगे। फैक्ट्री लगेगी। और ढेर सारा रोजगार सृजित होगा। लेकिन क्या इससे कश्मीर की समस्या हल हो जाएगी? कत्तई नहीं। कश्मीर में विकास का संकट नहीं है। एक हद तक कश्मीर भारत के दूसरे हिस्सों से ज्यादा विकसित है। यहां शायद ही कोई नागरिक हो जिसके सिर पर छत न हो। सबको दो जून की रोटी मिलती है।
उनका कहना था कि जब तक भारत कश्मीर की समस्या को नहीं समझेगा तब तक उसका हल भी नहीं निकाल सकेगा। कश्मीर की मूल समस्या उसके विकास की समस्या नहीं है। युवाओं के रोजगार की समस्या नहीं है। बल्कि मूलतः यह एक राजनीतिक समस्या है। जिसमें कश्मीरियों को लगता है कि उनके साथ धोखा और विश्वासघात किया गया है। और जिस पहचान और अपनी संस्कृति को महफूज करने के लिए उन्होंने सालों साल कुर्बानियां दीं अब उसे पूरी तरह से खत्म करने का रास्ता अख्तियार कर लिया गया है। लिहाजा अब यह कश्मीरियों के जीवन-मरण का सवाल बन गया है। उनका कहना था कि संकट के दौर में जो भी साथ देता है लोग उसका खुले दिल से स्वागत करते हैं और इस मामले में पाकिस्तान की सरकार और अफगानिस्तान के तालिबान उनके सबसे गहरे हमदर्द बनकर उभरते दिख रहे हैं। लिहाजा आने वाले दिनों में अगर घाटी में तालिबानों के सक्रिय होने की सूचना मिले तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।
केवल वही नहीं बल्कि हर कश्मीरी का कहना है कि 370 परिघटना के बाद कश्मीर में अब जो एक नयी स्थिति बनी है उसमें इस बात पर आम सहमति है कि भारत के साथ नहीं रहना है। लेकिन पाकिस्तान के साथ जाना है या फिर स्वतंत्र रहना है इसको लेकर मतभेद है। इस बात की पूरी संभावना है कि एक परिवार में ही एक भाई पाकिस्तान के साथ जाने का पक्षधर हो जबकि दूसरा स्वतंत्रता की बात करे। ऐसा भी हो सकता है कि इसको लेकर पत्नी अपने पति से भी अलग राय रखती हो। जबकि इसके पहले स्थिति बिल्कुल दूसरी थी। दो भाइयों में एक भाई अलगाववादियों के साथ हुआ करता था और दूसरा किंतु-परंतु के साथ भारत के। मोदी के एक फैसले ने कश्मीर को कहां खड़ा कर दिया है इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। (आखिरी तीन लाइनें उस शख्स की नहीं हैं। बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह बात कही गयी थी।)
(कश्मीर के दौरे से लौटे जनचौक के संस्थापक संपादक महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)
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